यदि ये कहावत सही है कि क़ानून तभी बनते हैं, जब उनका सही वक़्त आता है, तो दलबदल निरोधक क़ानून की एक और मरम्मत करने का वक़्त अब आ गया है. विधायकों के पाला बदलने का ताजा मामला मध्य प्रदेश का है. इससे पहले कर्नाटक में ये हो चुका है. कई जगह तो दल ही जनादेश के खिलाफ चले जाते हैं, जैसा हरियाणा और बिहार में हुआ. कुल मिलाकर, मौजूदा दलबदल क़ानून राजनीतिक और दलगत सुचिता की हिफ़ाज़त करने में नाकाम साबित हो रहा है. मौकापरस्ती और येन-केन-प्रकारेण सत्ता की मलाई खाने वाली राजनीति भारतीय समाज पर सिर चढ़कर बोल रही है. यह मतदाताओं के साथ छल है. ऐसी ठगी को रोकना संसद और सरकार की ज़िम्मेदारी है.
दलबदलू जमात से बीजेपी भी महफ़ूज़ नहीं है और यदि वो आज ख़ुद को सुरक्षित महसूस कर रही है, तो उसे नहीं भूलना चाहिए कि महाराष्ट्र में कैसे 25 साल पुराने मित्र-दल शिवसेना ने मिलकर चुनाव लड़ा और चुनाव के बाद पाला बदल लिया. बीजेपी के अलावा कांग्रेस और आरजेडी को भी नहीं भूलना चाहिए कि कैसे नीतीश कुमार ने जनादेश की अनदेखी कर उनको गच्चा दिया था. ये बात अलग है कि हाल के वर्षों में बीजेपी को दलबदल रूपी ठगी का सबसे ज़्यादा फ़ायदा मिला है. अब हो सकता है कि मध्य प्रदेश में भी विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त की बदौलत कमलनाथ सरकार को गिराकर वो कर्नाटक, गोवा, गोवा, मणिपुर और अरूणाचल की तरह अपनी सरकार बना ले, लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता है कि जैसे दिन आज कांग्रेस को देखने पड़ रहे हैं, वैसी ही नौबत कल को बीजेपी को नहीं झेलनी पड़ेगी.
दलबदल यानी लोकतंत्र के साथ विश्वासघात
ज़ाहिर है कि जब विधायक और सांसद बिकाऊ होंगे तो इसकी मार आज जहां एक को मार पड़ रही है, वहीं कल को दूसरे पर भी पड़ना तय है. दुनिया का दस्तूर है कि हरेक बिकाऊ चीज़ के लिए ऊंची से ऊंची बोली लगाने वाला कोई ना कोई ख़रीदार तो मिल ही जाता है. इतिहास को भी ख़ुद को दोहराने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता. सत्ता हथियाने के लिए जैसे आज बीजेपी ख़रीद-फ़रोख़्त के बाज़ार की सिकन्दर बनी दिख रही है, वैसा ही खेल कांग्रेस ने भी ख़ूब खेला है. ‘आया राम, गया राम’ के खेल की कांग्रेस भी कोई मामूली महारथी नहीं रही है.
दलबदल के लिहाज़ से मोदी-शाह की बीजेपी की टक्कर का ही काला इतिहास इन्दिरा गांधी की कांग्रेस का भी रहा है. लेकिन दोनों के इतिहास में एक बड़ा फ़र्क़ भी है कि मोदी-शाह के ज़माने में सख़्त दलबदल क़ानून मौजूद है, जबकि इन्दिरा गांधी के ज़माने में इसका वजूद नहीं था. 1967 से लेकर 1971 तक के चार वर्षों में सत्ता के घोड़ों की ज़बरदस्त सौदेबाज़ी हुई. तब कांग्रेस सबसे बड़ी सौदागर थीं. 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस ने देश 16 में से 8 राज्यों में बहुमत खो दिया था. सात राज्य में कांग्रेस की सरकारें भी नहीं बन सकीं. लेकिन 1967 से लेकर 1971 में बांग्लादेश का जन्म होने तक, चार साल में 142 सांसदों और 1969 विधायकों ने दलबदल किया. सौदेबाज़ी के रूप में इन दलबदलुओं में से 212 को मंत्री पद मिला.
यहां ये याद रखना ज़रूरी है कि 1967 से लेकर 1971 वाली कांग्रेस असली ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ थी. जबकि मौजूदा कांग्रेस का उदय 1980 के बाद कांग्रेस (आई) के रूप में हुआ. पुरानी कांग्रेस से ज़ुदा ये इन्दिरा गांधी की अपनी पार्टी थी. इन्दिरा गांधी को ये पार्टी इसलिए बनानी पड़ी क्योंकि आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में जब इन्दिरा गांधी की सरकार चली गयी तो उन्हें उनकी पार्टी से भी निकाल बाहर किया गया. वो बात अलग है कि इन्दिरा गांधी के पुनर्जीवन के बाद ख़ुद को असली कांग्रेस बताने वालों का बहुत जल्द पतन हो गया और 1984 के बाद तो कांग्रेस (आई) को ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का दर्ज़ा मिल गया. फिर पुरानी कांग्रेस के बचे-खुचे अवशेषों का भी इसी में विलय हो गया.
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राजीव गांधी और दलबदल निरोधक कानून
1984 में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से जीतकर केंद्र की सत्ता में आई. इन्दिरा गांधी के अनुभवों से सबक लेते हुए 1985 में राजीव गांधी की सरकार ने मौजूदा दलबदल क़ानून बनवाया. इसके लिए संविधान में 56वां संशोधन करके दसवीं अनुसूची को जोड़ा गया. दलबदल क़ानून को इसी अनुसूची में रखा गया. जिस दौर में राजीव गांधी सरकार ये क़ानून लेकर आयी उस वक़्त लोकसभा में कांग्रेस के 400 से ज़्यादा सांसद थे. तब उसे चिन्ता थी कि ऐसे अपार बहुमत को असंतुष्टों की साज़िश से कैसे सुरक्षित रखा जाए? लिहाज़ा, किसी भी पार्टी के संसदीय दल के टूटने के लिए एक-तिहाई सदस्यों की सीमा रखी गयी. लेकिन देखते ही देखते हुए ये शर्त नाकाफ़ी साबित होने लगी. तब 2003 में वाजपेयी सरकार ने संविधान के 91वें संशोधन के ज़रिये दलबदलुओं के लिए अपनी सदस्यता को बचाये रखने के लिए संसदीय दल के विभाजन के लिए सदस्यों की सीमा को एक-तिहाई से बढ़ाकर दो-तिहाई कर दिया.
दलबदल के नए तरीके
इससे पहले 2002 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस वेंकटचलय्या की अगुवाई वाले संविधान समीक्षा आयोग की उस सिफ़ारिश को नहीं माना गया जिसमें कहा था कि दलबदल करने वाले विधायकों या सांसदों पर उनके बाक़ी बचे कार्यकाल में दोबारा चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी जानी चाहिए. दलबदल से सम्बन्धित उन सिफ़ारिशों को भी नहीं अपनाया गया जो समय-समय पर दिनेश गोस्वामी कमेटी, विधि आयोग और चुनाव आयोग ने की हैं.
इस बीच, दलबदल की जगह पाला बदलने के नए तरीके ढूंढ लिए गए हैं. अब किसी पार्टी को तोड़ने के बजाय सरकारों के बहुमत को तोड़ा जाता है. अब सौदा तय हो जाने के बाद विधायक अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर नयी पार्टी में पहुंच जाते हैं. फिर नयी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर मंत्री बन जाते हैं. इस तरीक़े की वजह से दलबदलुओं का दाम बहुत ऊंचा हो गया है.
अब यदि एक विधायक को पांच-पांच करोड़ रुपये या सांसद को 25-25 करोड़ रुपये में भी ख़रीदना पड़े तो महज कुछेक सौ करोड़ रुपये में किसी भी सरकार को गिराया जा सकता है. लोकतंत्र, संविधान और चुनाव का इससे घिनौना मज़ाक और क्या हो सकता है? दलबदल क़ानून की ख़ामियों की वजह से आज बड़े-बड़े औद्योगिक घराने राजनीतिक दलों को अपनी मुट्ठी में रखते हैं. वो सरकार बदल देने की धमकियां देकर अपना उल्लू सीधा करते हैं. ध्यान रहे कि धन्ना सेठ भी किसी राजनीतिक दल के ग़ुलाम नहीं होते. ये भी आज इसके साथ हैं तो कल उसके साथ. ये भी दलबदलू होते हैं. लिहाज़ा, यदि राजनीति की लाज़ रखनी है, तो जनता को जहां दलबदलुओं का बहिष्कार करना चाहिए, वहीं क़ानूनी ख़ामियों को फ़ौरन दूर किया जाना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक हैं.)