समझ नहीं पा रहा हूं कि अमेरिका के राजनीतिशास्त्री जेम्स सी. स्कॉट को श्रद्धांजलि देने की किस तरह शुरुआत करूं? मर्ज की उन्होंने जो पहचान की थी उसके कुछ हिस्से की तो मैं प्रशंसा करता हूं, लेकिन मर्ज का उन्होंने जो इलाज और निदान बताया उससे मैं सहमत नहीं हूं.
भारतीय प्रशानिक सेवा में 36 साल के अपने करियर के अनुभवों के बूते मैं राज्य-व्यवस्था के प्रति उनके अविश्वास और “अराजकतावाद के लिए शाबाशी” का मैं समर्थन नहीं कर सकता. लेकिन उनके लेखन ने ‘राज्य-व्यवस्था की उत्पत्ति और कामकाज’ को समझने तथा प्रतिनिधित्व के औपचारिक मंचों से बाहर की ‘विरोधी आवाजों’ को सुनने में मेरी मदद की है.
स्कॉट ने ‘एक उत्साही प्रशासक के रूप में मेरे ‘अहम्’ को काबू में रखने और यह समझने में मेरी मदद की है कि “सीमांत किसानों, औद्योगिक कामगारों, और ईंट भट्टों के मजदूरों तक को” ऐसे “अप्रत्यक्ष लाभ-भोगियों” में नहीं गिना जा सकता जो किसी एनजीओ या पितृसत्तात्मक राज्य-व्यवस्था के किसी संवेदनशील अधिकारी की कृपा का इंतजार कर रहे हों” बल्कि उन्हें “सक्रिय भागीदार” माना जा सकता है, जो “जोखिम के अनुभव जनित आकलन पर आधारित जायज विकल्पों के बीच चुनाव करने वाले हों”.
भारत में प्रशासनिक सेवाओं के लिए प्रशिक्षण देने वाले सर्वोच्च संस्थान ‘लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के पूर्व निदेशक और नेशनल सेंटर फॉर गुड गवर्नेंस के अकादमिक काउंसिल के सदस्य के रूप में मुझे पूरा विश्वास है कि सुशासन न केवल अपेक्षित है बल्कि पूरी तरह से संभव भी है.
इसके अलावा, मेरा मानना है कि भारत के तीन स्तरीय लोकतंत्र में जोरदार चुनावी मुकाबलों ने वास्तव में हमें लोगों के जीवन स्तर, खाद्य सुरक्षा, और सामाजिक शक्ति में सुधार लाने की काफी मजबूत रणनीति भी उपलब्ध कराई है.
व्यवस्था बेशक पूरी तरह दोषरहित नहीं है लेकिन भारतीय राज्य-व्यवस्था (जिसमें मेरे अनुसार तीनों स्तर शामिल हैं) ने काफी प्रगति की है जिसने इस पिरामिड के सबसे निचले पायदान पर स्थित दावेदारों की आवाज़ सुनी है और उसके लिए काम भी किया है. स्कॉट का शुक्रिया कि हममें से कई ने— जिन्होंने ग्रामीण विकास, कृषि, और सहकारी पंचायतों के क्षेत्र में काम करने का फैसला किया— लोगों की बातें सुनने, उनसे संवाद करने, और सहभागी अनुसंधान एवं कार्रवाई करने की बेहतर रणनीति बना सके.
स्कॉट की कुछ महान अंतर्दृष्टि/सूझ
स्कॉट की रचनाओं से मेरा परिचय 1999 में हुआ, जब मैं कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में ह्यूबर्ट एच. हंफ़्री फ़ेलो के रूप में दाखिल हुआ और रोनाल्ड जे. हेरिंग के अधीन राजनीतिक पारिस्थितिकी का कोर्स करने लगा. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं स्कॉट की किताब के बारे में अपने विचार अपने साथियों के बीच रखूं क्योंकि, कुछ अतिशयोक्ति के साथ उन्होंने कहा कि भारतीय प्रशानिक सेवा (आइएएस) भारत में राज-व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती है.
इस तरह जेम्स सी. स्कॉट से मेरा परिचय हुआ, जिन्होंने राज-व्यवस्था और उसके प्रमुख पात्रों— नौकरशाहों, योजनाकारों, इंजीनियरों, और राजनीतिक नेताओं— का वास्तव में पैना परीक्षण किया है. उनका यह परीक्षण इन पात्रों को राष्ट्र-निर्माण के बारे में अपनी उन पूर्वनिश्चित धारणाओं को साफ तौर पर समझने में मदद कर सकता है, जो वे अपनी योजनाओं और कार्रवाइयों के दीर्घकालिक प्रभावों को जाने-समझे बिना बना लेते हैं.
स्कॉट की किताब ‘सीइंग लाइक अ स्टेट’ काफी पठनीय है, और इसके बाद मैंने 1985 में प्रकाशित ‘वेपन्स ऑफ द वीक’ पढ़ी और 1976 की उनकी किताब ‘द मॉरल इकोनॉमी ऑफ द पीज़ेंट’ की समीक्षा पढ़ी.
मुझे जो चीज मार्के की लगी वह यह थी कि उन्होंने राज-व्यवस्था को कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के वैचारिक चश्मे से या मेकियावली की किताब ‘द प्रिंस’ या वेबर की पदानुक्रम वाली व्यवस्था या सर्वहारा की तानाशाही की मार्क्सवादी अवधारणा के नहीं बल्कि राज-व्यवस्था के कार्यों के नजरिए से देखा.
स्कॉट के विचार में फौजी तानाशाही से लेकर धर्मतांत्रिक शासनों, राजशाहियों और गणतंत्रों तक सभी –व्यवस्थाओं में एक स्पष्ट साझा विशेषता पाई जाती है. सभी राज–व्यवस्थाएं जमीन को मापती हैं, कृषि से लेकर खनिजों, और उत्पादों पर कर लगाती हैं, अपने नागरिकों की गिनती करती हैं, अपनी भाषा को आगे बढ़ाती हैं, वार्षिक बजट बनाती हैं, लक्ष्य तय करती हैं, अनुशासन लागू करती हैं, जेलें चलाती हैं, और अपने नागरिकों से संबंधित रजिस्टर (या ई-शासन में डेटा बैंक) रखती हैं.
अर्थशास्त्री कांट की ‘श्रेणीगत अनिवार्यता (Categorical Imperative)’ की तरह, राज-व्यवस्था को “अपनी बातें स्पष्ट करने (या अपनी वैधता) के लिए श्रेणियों” की जरूरत होती है. सत्ता पर बैठे लोगों को इस बात का विश्वास था कि इसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है और, चाहे यह कृषि के तरीकों के बारे में हों या नयी बस्तियों का खाका तैयार करने के बारे में हो.
स्कॉट ने इसे “उच्च आधुनिकतावाद” कहा और इसके उदाहरण के रूप में जर्मनी में वैज्ञानिक तरीके से वनीकरण से लेकर सोवियत संघ में कृषि के समूहिकीकरण, तंजानिया में गांवों को बसाने, ब्राज़ीलिया में शहरी बस्तियां बसाने, नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को भंग करने वाली विशाल पनबिजली परियोजनाओं तथा सिंचाई योजनाओं का जिक्र किया.
इसके साथ जब कमजोर ‘सिविल सोसाइटी’ और दीन-हीन न्यायपालिका जुड़ गई तो पर्दे के दूसरी तरफ के लोग तुरंत विद्रोह पर नहीं उतर आए क्योंकि इसकी कीमत और नतीजे काफी महंगे थे. बहरहाल, उन्होंने अपना आक्रोश जताने के रास्ते खोज लिये— गानों, लांछनों के रूप में; जानबूझकर टालमटोल करना, चापलूसी करना या किसी-न-किसी बहाने अपने कार्यस्थल को छोड़ देना. ‘वेपन्स ऑफ द वीक’ का यह मुख्य मुद्दा है. वे सामना नहीं करेंगे बल्कि गतिरोध पैदा करेंगे. और यह राज-व्यवस्था का काम है कि वह इस नजरिए को ‘सुने’ और ‘देखे’. लेकिन सच कहें तो उन्होंने बच्चों के टीकाकरण में राज-व्यवस्था के दखल का समर्थन किया, और उन्हें भारत में बेहतर नियोजन के साथ बनाए गए शहरों में से एक, चंडीगढ़ में कोई खास कमी नहीं दिखी.
मैंने अपने साथियों से कहा कि ‘सीइंग लाइक अ स्टेट’ एक सशक्त विश्लेषण है जिससे कुछ महान दृष्टिकोण उभरता है. लेकिन दक्षिण-पूर्व एशिया के अनुभव को सार्वभौमिक नहीं बनाया जा सकता. मैंने पश्चिम बंगाल में सहभागी तथा राज-व्यवस्था के दखल से संबंधित अपने अनुभवों के बारे में बताया. मैंने अपना करियर वहां के गरीब, आदिवासी बहुल, भुखमरी से ग्रस्त, चावल की कमी वाले पुरुलिया जिले से ही शुरू किया था.
एक दशक के अंदर उस जिले को तीन फसलों (खरीफ, रबी, और बोरो), आवागमन योग्य ग्रामीण सड़कों के निर्माण और लगभग सभी बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने के बूते ‘बेहतर’ बना लिया गया था. मेरे ख्याल से यह इस बात का उम्दा उदाहरण था कि ‘उच्च आधुनिकतावाद’ किस तरह लोक विवेक और राजनीतिक सक्रियता के साथ करीबी से जुड़कर काम कर सकता है. इससे जमीन के स्तर पर नेतृत्व उभरकर सामने आया.
जब मैं पीछे मुड़कर पुरुलिया पर नजर डालता हूं तब पाता हूं कि किसानों की हालत को सुधारने के लिए कितना व्यापक समर्थन मिला था. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और रामकृष्ण मिशन की वित्तीय सहायता से शुरू किए गए कृषि विज्ञान केंद्र को वाममोर्चा सरकार ने काफी झिझकते हुए स्वीकार किया था.
जिले के प्रधान कृषि अधिकारी ने सिंचाई और कृषि विभाग के साथ मिलकर काम किया और दालों या आलू की दूसरी तथा बोरो धान की तीसरी फसल रोपी. इस तरह, हमेशा सूखे से ग्रस्त रहने वाला इलाका जोरदार कृषि उत्पादन का क्षेत्र बन गया.
सब जगह एक ही अनुभव नहीं मिलता
24 वर्ष बाद आज जब मैं भारतीय राज-व्यवस्था के बचाव पर नजर डालता हूं तब मुझे स्वीकार करना पड़ता है कि स्कॉट को हासिल हुए अनुभव की तरह मेरे अनुभव को भी सार्वभौमिक नहीं किया जा सकता. पश्चिम बंगाल में कृषि के क्षेत्र में किए गए दखल तो काफी सफल रहे मगर उत्तराखंड के कई पहाड़ी गांवों से किसानों का काफी पलायन हुआ क्योंकि जोत के टुकड़े बढ़े तो पारंपरिक खेती मुश्किल हो गई.
पंजाब की हरित क्रांति ने हवा और पानी को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया, समाज को बांट दिया; और उस राजनीतिक अर्थनीति को जन्म दिया जो ज्यादा पानी हासिल करने के लिए (जो पारिस्थितिकी के लिए नुकसानदेह है) ट्यूबवेलों को मुफ्त बिजली (जो अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह है) पर ज़ोर देती है, जबकि राज्य का वित्तीय घाटा 3.45 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है.
इसके साथ मैं कृषि संबंधी अध्ययनों के उस बेहतरीन विद्वान को अपनी श्रद्धांजलि के साथ समापन करता हूं, जिन्होंने अपना राजनीतिक सिद्धांत विचारधारा से उपजे मतवाद की जगह जमीनी कामों से हासिल अनुभवों पर आधारित किया. उन्होंने हर स्वीकृत धारणा पर सवाल उठाया— कि राज-व्यवस्था एक विनम्र संस्था है, मार्क्सवादी इतिहास लेखन पर, ‘द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेशन’ में कार्ल पोलानी के इस तर्क पर कि बाजार की ताकत के पीछे अदृश्य हाथों का योगदान रहता है. और अंत में, यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि उन्होंने “अराजकतावाद को तीन नहीं बल्कि दो ‘चियर्स’ ही दिए थे. आप उनसे असहमत हो सकते हैं लेकिन आपको जेम्स स्कॉट को जरूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि वे सही सवाल उठाते हैं. और अच्छे सवाल ही अच्छी समझ के लिए आधार तैयार करते हैं.
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