2020 में जब कोविड-19 की वजह से यात्री ट्रेनों को बंद कर दिया गया था तब रेलवे को इसमें पैसे बचाने का मौका मिला. रेलवे की खत्म की गई रियायतों में से एक बुजुर्गों के लिए ट्रेन का किराया था – जो महिलाओं के लिए 58 और पुरुषों के लिए 60 से अधिक आयुवर्ग के लिए क्रमश: 40 और 50 प्रतिशत था.
महामारी के थमने और ट्रेन संचालन के फिर से शुरू होने के बाद लाखों वरिष्ठ नागरिकों को इसका पता चला. महामारी से बचे रहने के बाद, वे अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलने या जीवन के उपहार का आनंद लेने के लिए यात्रा करने को लेकर उत्साहित थे लेकिन अब उनका खर्च बढ़ गया. नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकार के लिए, वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली ट्रेन किराए में रियायत ‘रेवड़ियों’ की तरह थी जिसे रोकना पड़ा.
द हिंदू बिजनेस लाइन की रिपोर्ट के अनुसार, रेलवे ने अपनी रियायतें वापस लेकर सालाना लगभग 1,000 करोड़ रुपये बचाए.
जैसा कि अंकल एलिस नो कंट्री फॉर ओल्ड मेन (2007) में कहते हैं, उस फिल्म में मेरे पसंदीदा पात्रों में से एक: “आपको जो मिला वह कोई नई बात नहीं है. यह देश लोगों पर कठोर है. जो हो रहा है उसे आप रोक नहीं सकते. यह सब आपकी प्रतीक्षा नहीं करेगा . अगर आप ट्रेन का पूरा किराया नहीं दे सकते तो घर बैठ जाइए.
भाजपा के पास अपने कई वरिष्ठों के लिए कुछ ऐसा ही संदेश था. उन्हें घर पर बैठने के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए. हो सकता है कि राजभवन में उनके लिए कुछ रेवड़ियां हों लेकिन उससे ज्यादा कुछ भी नहीं. ऐसा लगता है कि यह संदेश कुछ दिग्गज नेताओं—कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा, 80 वर्षीय, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह, 70, और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, 70, सहित अन्य पर लक्षित था. आधिकारिक सरकारी पद धारण करने की अलिखित आयु सीमा 75 वर्ष है, लेकिन आलाकमान उन्हें पैक करके जल्दी घर जाने के लिए कहेंगे. लेकिन आम वरिष्ठ नागरिकों की तरह, भाजपा के लोग इसके लिए तैयार नहीं हैं.
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राजस्थान, कर्नाटक, एमपी और छत्तीसगढ़
राजे ने 8 मार्च को अपने वास्तविक जन्मदिन से चार दिन पहले राजस्थान के चूरू जिले के सालासर में शनिवार को अपना जन्मदिन मनाया. यह शक्ति प्रदर्शन था जिसमें पार्टी के अधिकांश विधायक और सांसद उपस्थित थे. भीड़ ने नारे लगाए, “अबकी बार, वसुंधरा सरकार.” एक बीजेपी सांसद ने गरजते हुए कहा, “राजस्थान की शेरनी आ गई है. जयपुर से दिल्ली तक एक ही आवाज जानी चाहिए- जय वसुंधरा. भाजपा आलाकमान को जन्मदिन का संदेश क्वीन सांग की तरह लग रहा था: “वी विल, वी विल रॉक यू .”
लगभग एक पखवाड़े पहले, मैंने येदियुरप्पा से उनके बेंगलुरु आवास पर पूछा कि क्या यह उनका आखिरी चुनाव है. उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “मैं इस चुनाव में और अगले चुनाव में भी भाजपा के लिए प्रचार करूंगा.” “अब जब आप चुनाव भी नहीं लड़ रहे हैं, तो कर्नाटक भाजपा में लिंगायत नेतृत्व की कमान किसे मिलेगी ? बसवराज बोम्मई खुद को अभी तक साबित नहीं कर पाए हैं!” मैंने थोड़ा जोर देकर कहा.
येदियुरप्पा एक मिनट के लिए चुप रहे और फिर चार शब्दों में जवाब दिया, “क्यों? विजयेंद्र हैं. बेशक, यह येदियुरप्पा के बेटे, बी.वाई विजयेंद्र, राज्य भाजपा उपाध्यक्ष हैं, जिन्हें पार्टी नेतृत्व ने विधान परिषद के लिए नामांकन से वंचित कर दिया था. मेरे पास बहुत सारे सवाल थे- भाजपा आलाकमान के साथ येदियुरप्पा के समीकरणों के बारे में, उन्हें दरकिनार करने, उनकी भविष्य की भूमिका आदि के बारे में. वह उन्हें एक ही शब्दों को दोहराते हुए एक सामान्य और मुस्कुराहट को छुपाते हुए जवाब देंगे: “आपको इंतजार करना चाहिए. रुको और देखो.”
एक हफ्ते बाद, मैं छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के रायपुर वाले घर में बैठा था, कई सवाल दोहरा रहा था जो मैंने येदियुरप्पा से पूछे थे. सिंह, कर्नाटक के नेताओं की तरह, अभी भी आराम करने के मूड में नहीं दिख रहे थे. और येदियुरप्पा के विपरीत, सिंह अगला विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं. जैसा उन्होंने कहा यह उनका आखिरी चुनाव होगा. उन्होंने अपने मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनने के बारे में पूछे गए सवालों को जैसा कि पहले से ही पता था उसे टाल दिया. लेकिन अगर पार्टी चाहे तो क्या वह मुख्यमंत्री के रूप में एक और कार्यकाल के लिए तैयार हैं? उन्होंने कहा, ‘जब पार्टी कोई फैसला लेती है तो उसका शत प्रतिशत पालन करना रमन सिंह की जिम्मेदारी बन जाती है.’
भाजपा आलाकमान को उनका क्या संदेश है? कि उन्होंने चुनाव नजदीक आने पर अपनी एड़ी-चोटी का जोर लगाने का मन बना लिया है. केंद्रीय भाजपा नेतृत्व ने उन्हें दरकिनार करने और नेताओं की एक नई फसल को बढ़ावा देने की मांग की थी.
मोदी-शाह की सबसे कठिन परीक्षा
2013 के अंत से, जब मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी द्वारा किए गए प्रतिरोध को कम कर दिया, तो उन्हें और अमित शाह को ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा जहां स्थानीय क्षत्रप उनकी आज्ञा का उल्लंघन करें. एक बार जब वे निर्णय ले लेते हैं, तो पार्टी के पदाधिकारी इसे निष्पादित करने के लिए एक साथ आते हैं. वे अपनी मर्जी से मुख्यमंत्री भी बदल सकते थे और पार्टी और मतदाताओं ने इसे बिना किसी सवाल के स्वीकार कर लिया. यह आसान था क्योंकि येदियुरप्पा को छोड़कर उन मुख्यमंत्रियों में से कोई भी जन नेता नहीं था. वसुंधरा राजे राजस्थान भाजपा प्रमुख के रूप में गजेंद्र सिंह शेखावत की नियुक्ति का विरोध कर सकती थीं, लेकिन आलाकमान फिर भी उन्हें उनकी पसंद का उम्मीदवार नहीं देगे.
शेखावत को तब केंद्र में कैबिनेट से नवाजा. येदियुरप्पा इस्तीफा देने से पहले महीनों तक रूठे. रमन सिंह ने प्रवाह के साथ जाना चुना. मध्य प्रदेश में, शिवराज सिंह चौहान ने सीएम बनने के लिए कांग्रेस सरकार को हटाना सुनिश्चित किया, लेकिन आलाकमान के करीबी नेताओं ने उनके कद को एहमियत नहीं दी जिसकी वजह से उन्होंने कभी भी सुरक्षित महसूस नहीं किया.
एक बार इन राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन के लिए आलाकमान का रुख साफ हो जाने के बाद, भाजपा के पदाधिकारी से उन्हें छोड़ने और उन्हें अलग-थलग करने की उम्मीद की गई थी. यह ज्यादातर इसलिए भी था क्योंकि नया नेतृत्व उस तरह से काम नहीं कर पाया जिस तरह से शाह-मोदी चाहते थे. येदियुरप्पा के उत्तराधिकारी, बसवराज बोम्मई, एक अन्य लिंगायत नेता, अपेक्षाओं को पूरा करने में विफल रहे. राजे के अनुमानित उत्तराधिकारी दिल्ली के समर्थन के बावजूद कमाल नहीं दिखा सके.
छत्तीसगढ़ में भी यही हाल था. जबकि रमन सिंह ने आलाकमान को उन चेहरों के साथ प्रयोग करने दिया जो उनकी जगह ले सकते थे. पिछले सप्ताह अपने रायपुर प्रवास के दौरान, मैंने वहां मौजूद लोगों में से कुछ से पूछा कि छत्तीसगढ़ में भाजपा का शीर्ष नेता कौन है. प्रतिक्रिया में हमेशा, रमन सिंह का नाम ही लिया गया. लोग प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण साव का नाम तक नहीं जानते थे. अरुण एक ओबीसी नेता हैं, जिनसे ओबीसी मतदाताओं पर सीएम भूपेश बघेल की पकड़ का मुकाबला करने की उम्मीद थी. चौहान के पास इतने सारे मुख्यमंत्री पद के दावेदारों से घबराने का हर कारण था-ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर कैलाश विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्रा, नरेंद्र सिंह तोमर और कई अन्य. वहीं चौहान ने अपनी छवि को एक उदारवादी नेता से एक कट्टर हिंदुत्ववादी नेता के रूप में बदल दिया, जो खुद को योगी आदित्यनाथ के नक्शे कदम पर चलाते हुए दिखाई देते हैं.
इसने चौहान के लिए काम किया, क्योंकि आलाकमान ने भी उनकी ताकत को स्वीकार किया है. उनकी लोकप्रियता है, एक प्रशासक के रूप में उनकी नौकरी के लिए 24×7 प्रतिबद्धता और मोदी-शाह और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की उनसे जो उम्मीद थी, उसे पूरा करने के लिए आगे बढ़कर काम करने की इच्छा. इसके अलावा, 64 साल की उम्र में भी वह अपेक्षाकृत युवा हैं.
लेकिन अब यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी और शाह बाकी तीनों के साथ क्या करते हैं? चार राज्य लोकसभा में 93 सदस्य भेजते हैं. इनमें से मध्य प्रदेश में 29 में से 28, कर्नाटक में 28 में से 25, राजस्थान में सभी 25 और छत्तीसगढ़ में 11 में से 9 सीटें भाजपा के पास हैं. भले ही यह एक स्थापित तथ्य है कि लोग लोकसभा में मोदी को वोट देते हैं, क्या मोदी और शाह विधानसभा चुनावों में अपना दबदबा बनाकर उन सीटों पर जोखिम उठा सकते हैं?
मोदी-शाह के लिए रास्ता निकल गया
भाजपा के चार क्षेत्रीय क्षत्रपों में से मोदी और शाह चौहान पर फिर से दांव लगाने का फैसला कर सकते हैं. वह एक आज्ञाकारी मुख्यमंत्री रहे हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले शायद उन्हें परेशान करने की जरूरत नहीं है. रमन सिंह साथ निभाने को तैयार दिख रहे हैं. जैसा कि उन्होंने दिप्रिंट को दिए अपने इंटरव्यू में बताया, वह पीएम मोदी के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का चेहरा होने से खुश हैं. इसलिए, भाजपा को विधानसभा चुनाव में उनके बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, भले ही पार्टी नेतृत्व ने 2019 के लोकसभा चुनाव में सिंह के बेटे अभिषेक, मौजूदा सांसद सहित सभी भाजपा सांसदों की जगह लेने के लिए उन्हें एक बड़ा झटका दिया था.
मोदी और शाह की सबसे बड़ी चिंता येदियुरप्पा और राजे हैं. पार्टी नेतृत्व ने कर्नाटक के नेता को मनाने, उन्हें भाजपा संसदीय बोर्ड में लाने और उनके बेटे को एक बड़ी संगठन जिम्मेदारी दी. मोदी ने हाल ही में शिवमोगा की अपनी यात्रा के दौरान येदियुरप्पा के हाथों में हाथ डाल दोस्ती दिखाई. हालांकि, कुछ ही लोग लिंगायत नेता के दिमाग को पढ़ सकते हैं. उनके दिमाग में उत्तराधिकार योजना है जैसा कि उन्होंने मेरे साथ बातचीत के दौरान संकेत दिया था. भाजपा आलाकमान आने वाले हफ्तों में उस योजना को कितना टालने को तैयार है, यह तय करेगा कि येदियुरप्पा राज्य विधानसभा चुनाव के लिए खुद को कैसे संचालित करते हैं. जहां तक राजे की बात है तो उन्होंने सालासर मीट में भी बीजेपी कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच अपनी लोकप्रियता साबित की है. कल्पना कीजिए कि सालासर में अधिकांश सांसद और विधायक उस समय दिखाई दे रहे हैं जब राज्य भाजपा प्रमुख जयपुर में एक आंदोलन कार्यक्रम का नेतृत्व कर रहे हैं.
मोदी और शाह क्षेत्रीय क्षत्रपों के आगे घुटने टेकने के लिए नहीं जाने जाते हैं. लेकिन जब लोकसभा चुनाव की बात आती है तो वे कुछ भी जोखिम नहीं लेना चाहते हैं. आने वाले हफ्ते और महीने भारतीय राजनीति में काफी दिलचस्प होने वाले हैं, खासकर इस संदर्भ में कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपने आंतरिक संकट को कैसे संभालता है.
(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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संपादन: आशा शाह
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