scorecardresearch
Saturday, 6 December, 2025
होमThe FinePrintआंबेडकर बिहार, UP और MP को छोटे राज्यों में बांटना चाहते थे. आज हमें इससे क्या सबक मिलता है

आंबेडकर बिहार, UP और MP को छोटे राज्यों में बांटना चाहते थे. आज हमें इससे क्या सबक मिलता है

आंबेडकर ने भारत की संघीय संरचना बनाते समय उत्तर और दक्षिण के अंतर को ध्यान से समझा. उनका मानना था कि संघवाद शक्ति की समानता के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए.

Text Size:

2026 में होने वाली नई परिसीमन प्रक्रिया उत्तर और दक्षिण के बीच बढ़ती दूरी को लेकर चिंता बढ़ा रही है. दक्षिण भारत में यह डर है कि जनसंख्या के आधार पर होने वाली नई सीटों की पुनर्व्यवस्था में उन्हें कम सीटें मिलेंगी. संविधान के अनुच्छेद 82 के तहत लोकसभा और अनुच्छेद 170 के तहत राज्यों की विधानसभाओं के लिए हर जनगणना के बाद सीटों का पुनर्विन्यास किया जाता है.

अगर परिसीमन आयोग जनसंख्या के आधार पर सीटों का पुनर्विन्यास करता है, तो लोकसभा की सीटें 543 से बढ़कर 848 हो जाएंगी और राज्यों के बीच समानुपातिक रूप से सीटों का बंटवारा होगा. दक्षिणी राज्यों, छोटे राज्यों जैसे पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर राज्यों को बड़े उत्तरी राज्यों की तुलना में नुकसान होगा. इससे संघवाद की भावना कमजोर पड़ेगी.

उत्तरी राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में जनसंख्या तेज़ी से बढ़ी है, जबकि दक्षिणी राज्यों जैसे केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश ने प्रभावी नीतियों से जनसंख्या को नियंत्रित किया है. दक्षिण में चिंता है कि वे उत्तर की तुलना में ज्यादा GDP में योगदान देने के बावजूद आगामी पुनर्वितरण में सीटें खो देंगे.

यह लेख बीआर आंबेडकर के नजरिए से संघवाद को समझने की कोशिश करता है.

भारतीय संघ का जन्म और विकास

आंबेडकर भारतीय संघवाद के संवैधानिक निर्माता और नैतिक दार्शनिक थे. उन्होंने कहा कि भारत का संघवाद अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की तरह नहीं बना, जहां अलग-अलग राज्य बातचीत और संधि के जरिए स्वेच्छा से एक संघ बनाते हैं. भारत का संघवाद ब्रिटिश शासन के प्रभाव में बना. भारतीय राज्यों ने पहले से मौजूद संप्रभु इकाइयों के रूप में कोई समझौता नहीं किया, बल्कि संविधान के तहत अलग-अलग राज्यों को एक साथ रखने के लिए संघ बनाया गया.

संघवाद एक आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था है. जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब बहुत कम देशों ने संघीय व्यवस्था अपनाई थी—अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया. अमेरिका का संविधान सबसे पुराना संघीय संविधान (1787) है . स्विट्ज़रलैंड 1848 में स्वतंत्र राज्यों से संघ में बदला. जर्मन साम्राज्य (1871-1918) एक संघीय राजतंत्र था. कनाडा का संविधान अधिनियम 1867 ने ब्रिटिश शासन के तहत प्रांतों को एक ढांचे में जोड़कर एक अर्ध-संघीय व्यवस्था बनाई. भारत और कनाडा की संघीय व्यवस्था में समानताएं हैं. ऑस्ट्रेलियाई संघ 1901 में छह उपनिवेशों को एकजुट कर बना, जिसमें ब्रिटिश परंपराओं और अमेरिकी संघवाद का मिश्रण था. इसी तरह आंबेडकर ने ‘होल्डिंग टुगेदर फेडरलिज्म’ के आधार पर पूरे भारत के लिए एक संघीय ढांचा तैयार किया.

आंबेडकर ने भारतीय संघवाद की तुलना दूसरे संघीय देशों से भूगोल, जनसंख्या और प्रशासनिक स्थिति के आधार पर की. भारत का हर राज्य भाषा, संस्कृति और राजनीति के मामले में अलग है. यह विविधता दुनिया के किसी भी अन्य संघ में नहीं मिलती.

राज्यों का संघ

आंबेडकर चाहते थे कि भारत को “स्टेट्स का यूनियन” कहा जाए, न कि “फेडरेशन ऑफ स्टेट्स” या “यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया”. उन्होंने यह शब्द इसलिए चुना ताकि यह स्पष्ट हो कि भारतीय संघवाद मजबूत है और राज्यों को अलग होने का अधिकार नहीं है.

आंबेडकर ने कहा कि भारत को नैतिक और मानसिक रूप से अभी “यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया” बनने में बहुत समय लगेगा, क्योंकि अमेरिका में सभी राज्यों के पास समान संघीय शक्ति है, लेकिन भारत में राज्यों का राजनीतिक वजन अलग-अलग है. भारत में उत्तर का संकेंद्रण और दक्षिण का विभाजन एक असमान संघीय संरचना बनाता है.

आंबेडकर के अनुसार भारत की व्यवस्था इकाईवादी भी है और संघीय भी. वे ऐसी व्यवस्था चाहते थे जो राष्ट्रीय एकता बनाए रखे, लेकिन सामान्य परिस्थितियों में राज्यों को स्वायत्तता दे. उन्होंने स्पष्ट किया कि युद्ध की स्थिति में दोनों सदनों की अनुमति से राष्ट्रपति भारत को एकात्मक व्यवस्था में बदल सकते हैं.

आंबेडकर ने माना कि भारतीय संघवाद अमेरिका की तरह कठोर नहीं है और न ही ब्रिटेन की तरह पूरी तरह केंद्रित है. यह एक लचीला, अर्ध-संघीय ढांचा है.

राज्यों के बीच संतुलन

आंबेडकर ने “थॉट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स” में लिखा कि संघ तब ही प्रभावी बनते हैं जब राज्यों के बीच सही संतुलन हो. अगर कुछ राज्य जनसंख्या, अर्थव्यवस्था और राजनीति में बहुत शक्तिशाली हो जाएं, तो संघ में असंतुलन पैदा होगा और छोटे राज्यों में असंतोष और अविश्वास बढ़ेगा. दुनिया के सफल संघों ने इस खतरे को समझकर ऐसा ढांचा बनाया जिससे बड़े राज्यों का राजनीतिक दबदबा सीमित रहे. अमेरिका में निचला सदन (हाउस ऑफ रिप्रज़ेंटेटिव्स) जनसंख्या के अनुसार है, पर ऊपरी सदन (सीनेट) में हर राज्य को दो सीटें मिलती हैं. इस तरह लोकतंत्र और संघीय संतुलन दोनों को जगह दी गई. आंबेडकर भारत में भी इसी तरह की व्यवस्था चाहते थे—लोकसभा में जनसंख्या आधारित सीटें और राज्यसभा में सभी राज्यों के लिए बराबर प्रतिनिधित्व.

आंबेडकर के अनुसार क्षेत्रीय संतुलन केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन के लिए आवश्यक है. उन्हें डर था कि अगर हिंदी पट्टी राष्ट्रीय राजनीति में हावी हो गई, तो दक्षिण हाशिए पर चला जाएगा और इससे अलगाव की भावना बढ़ेगी. किसी भी क्षेत्र का दबदबा संघीय सहयोग को कमज़ोर करता है और अलगाववाद को जन्म दे सकता है. हर राज्य को यह महसूस होना चाहिए कि वह संघ का बराबरी वाला साझेदार है. किसी भी क्षेत्र का प्रभुत्व नीति पक्षपात और अविश्वास पैदा करता है.

उत्तर भारत में एक ही भाषा का वर्चस्व है, जबकि दक्षिण भारत में हर राज्य की अलग भाषा है. इसलिए दक्षिण भारत उत्तर की तरह एकजुट नहीं हो सकता. इससे उत्तर का संकेंद्रण और दक्षिण का विखंडन एक असंतुलित शक्ति संरचना बनाता है. यह असंतुलन सिर्फ दक्षिण ही नहीं, बल्कि पूर्व और उत्तर-पश्चिम को भी प्रभावित करता है. उत्तर प्रदेश की तुलना में पश्चिम बंगाल और पंजाब के पास कम सीटें हैं.

स्वतंत्रता के बाद उत्तर भारत राष्ट्रीय पार्टियों जैसे बीजेपी और कांग्रेस का केंद्र बन गया, जिसने केंद्र की सत्ता संभाली. यही कारण है कि आंबेडकर संघीय संतुलन पर जोर देते थे. लोकतांत्रिक देशों में निचले सदन में जनसंख्या आधारित प्रतिनिधित्व ठीक है, लेकिन ऊपरी सदन में राज्यों के बीच समान प्रतिनिधित्व जरूरी है. नहीं तो बहुसंख्यक प्रभुत्व बढ़ेगा और विविधता आधारित राजनीति कमज़ोर होगी.

उत्तर और दक्षिण भारत पर आंबेडकर के विचार

आंबेडकर ने उत्तर और दक्षिण भारत के सामाजिक अंतर का भी समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया. उनके अनुसार दक्षिण भारत शिक्षा के मामले में आगे है, जबकि उत्तर भारत शैक्षिक रूप से पिछड़ा है. दक्षिण की संस्कृति आधुनिक है, जबकि उत्तर की संस्कृति प्राचीन है. उत्तर भारत जनसंख्या में बड़ा है लेकिन सांस्कृतिक रूप से रूढ़िवादी है, जबकि दक्षिण भारत प्रगतिशील है. उत्तर भारत अंधविश्वासी है, जबकि दक्षिण भारत तर्कसंगत है. तो ऐसे में दक्षिण भारत उत्तर भारत के शासन को कैसे सहन करेगा.

आंबेडकर दक्षिण भारत को भाषाई आधार पर छोटे राज्यों में बांटने के खिलाफ थे क्योंकि इससे उनकी एकता टूट जाती और वे उत्तर भारत के बड़े राज्यों के दबाव का सामना नहीं कर पाते. वह दक्षिणी राज्यों की राजनीतिक ताकत को बनाए रखना चाहते थे और इसके लिए बड़े राज्यों का निर्माण जरूरी मानते थे. अगर दक्षिणी राज्यों की जनसंख्या कम होती, तो राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका उत्तर भारत की तुलना में कमजोर हो जाती. आंबेडकर के अनुसार यह विभाजन न सिर्फ दक्षिण के लिए, बल्कि पूरे भारत के लिए नुकसानदायक होता.

आंबेडकर ने उदाहरण देकर यह भी समझाने की कोशिश की कि भविष्य में भारत में भी उत्तर और दक्षिण के बीच अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-1865) जैसा संघर्ष हो सकता है.

उत्तरी राज्यों का विभाजन

आंबेडकर का मानना था कि संघीय संतुलन की समस्या राज्यों के आकार के कारण पैदा होती है. राज्य अक्सर भाषा और क्षेत्र के आधार पर बनाए गए हैं जिससे उनका आकार असमान हो गया है. उनके अनुसार राज्यों के निर्माण के लिए समान और स्पष्ट नियम होने चाहिए. उत्तर भारत के राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश इतने बड़े हैं कि इन्हें छोटे राज्यों में बांट देना चाहिए. उन्होंने सुझाव दिया कि हर नए राज्य की जनसंख्या लगभग 2 करोड़ होनी चाहिए (1955 के हिसाब से). इससे संघीय संतुलन मजबूत होगा और क्षेत्रीय व भाषाई पहचान भी सुरक्षित रहेगी.

आंबेडकर ने यूपी को तीन भागों में बांटने का प्रस्ताव दिया था: पश्चिम यूपी, मध्य यूपी और पूर्वी यूपी. महाराष्ट्र को चार हिस्सों में विभाजित करने का सुझाव दिया गया: बंबई शहर राज्य, विदर्भ, मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र (कॉनकण देश). बिहार और मध्य प्रदेश को दो-दो हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव था—उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार, तथा उत्तर मध्य प्रदेश और दक्षिण मध्य प्रदेश.

दक्षिण भारत के ज्यादातर राज्यों की जनसंख्या उस समय दो करोड़ की आदर्श सीमा से कम थी. अगर उन्हें आदर्श आकार तक पहुंचाने के लिए पड़ोसी राज्यों के क्षेत्रों को जोड़कर बड़ा किया जाता, तो वे मिश्रित राज्य बन जाते और उनकी भाषाई एकरूपता टूट जाती. दक्षिणी राज्यों की भाषा और संस्कृति एकजुट है. इन्हें बड़ा करने से उनकी पहचान कमजोर होती और भाषाई राज्यों के सिद्धांत का उल्लंघन होता, जिसे आंबेडकर मान्यता देते थे. इसलिए उन्होंने प्रस्ताव रखा कि सिर्फ उत्तर भारत के बड़े राज्यों को तोड़ा जाना चाहिए, न कि दक्षिणी राज्यों को बड़ा किया जाए.

संघवाद बनाम स्वतंत्रता

आंबेडकर के अनुसार संघीय सरकार शासन का मध्य रास्ता है. एकात्मक सरकार में सारी शक्ति केंद्र में होती है. महासंघ में राज्यों का ढीला-ढाला गठबंधन होता है. लेकिन संघीय सरकार इन दोनों का मध्यम रूप है. राष्ट्रवाद एकात्मक और संघीय दोनों तरह की सरकारों में मौजूद हो सकता है. संघवाद राष्ट्रीय एकता को कमज़ोर नहीं करता.

आंबेडकर की चिंता सिर्फ संस्थागत नहीं थी बल्कि नैतिक भी थी. उनका मानना था कि संघवाद शक्ति की समानता के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए. उनके अनुसार असली एकता तभी आती है जब राज्यों के बीच आपसी सम्मान और बराबरी हो. अगर छोटे राज्य खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा है. वे सांस्कृतिक संतुलन और सहयोग पर आधारित राष्ट्र बनाना चाहते थे. उनकी कल्पना एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की थी जो संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि समानता पर आधारित हो. आंबेडकर की यह चेतावनी आज के समय में भी प्रासंगिक है, जैसा कि परिसीमन, भाषा विवाद, भाषाई आधार पर नए राज्यों की मांग और वित्तीय संघवाद पर बहस में दिखता है.

कृष्ण मोहन लाल टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई में पीएचडी स्कॉलर हैं. वे एक्स हैंडल @Maitreya_G हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: आसिम मुनीर और पड़ोसी देशों में नाकाम होता पाकिस्तान का फील्ड मार्शल वाला फॉर्मूला


 

share & View comments