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Sunday, 17 November, 2024
होममत-विमतअखिल भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा न्यायपालिका में वंशवाद के प्रभुत्व को चुनौती देगी, लेकिन SC चुप है

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा न्यायपालिका में वंशवाद के प्रभुत्व को चुनौती देगी, लेकिन SC चुप है

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग और अखिल भारतीय न्यायिक सेवा परीक्षा दोनों ही उच्च न्यायपालिका में वंशवादी स्व-स्थायित्व की मूल जड़ पर प्रहार करती हैं.

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क्या कोई अपारदर्शी संस्था न्याय दे सकती है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उसे न्याय देते देखा भी जा सकता है, तब भी जब उसके सदस्य असाधारण रूप से प्रतिभाशाली, मेहनती, कर्तव्यनिष्ठ और निर्विवाद सत्यनिष्ठ हों?

दरअसल, सबसे पहले रिकॉर्ड में यह रखा जाना चाहिए कि यह कॉलम भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ और सुप्रीम कोर्ट में उनके साथी न्यायाधीशों की बौद्धिक क्षमता, अकादमिक कठोरता और न्यायिक क्षमता पर संदेह नहीं करता है. सवाल संविधान दिवस 2023 पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (एआईजेएस) के निर्माण के सुझाव पर हमारी न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर बैठे लोगों की सामूहिक चुप्पी के बारे में है — “प्रतिभाशाली युवाओं” की भर्ती करके न्यायपालिका में विविधता लाने के लिए योग्यता-आधारित प्रक्रिया के माध्यम से देश भर में न्यायाधीश बनने के लिए.

उनकी टिप्पणियों ने न्यायपालिका में सभी स्तरों पर भर्ती, पदोन्नति और पदों को भरने की मौजूदा प्रणाली पर बहस को पुनर्जीवित कर दिया है. इसमें उप-जिला अदालतों में प्रवेश स्तर के न्यायिक मजिस्ट्रेट और मुंसिफ से लेकर जिला न्यायाधीश और हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों तक की भूमिकाएं शामिल हैं. यह कॉलम संवैधानिक प्रावधानों, संविधान सभा के संस्थापक सदस्यों की मंशा, राजनीतिक सहमति और न्यायिक हठधर्मिता के दृष्टिकोण से मुद्दे की जांच करता है, साथ ही एआईजेएस के खिलाफ तर्कों को भी संबोधित करता है.

न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद

सबसे पहली बात. बता दें कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) और एआईजेएस अलग हैं. एनजेएसी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति के बारे में है, जबकि एआईजेएस फीडर कैडर के बारे में है. हालांकि, दोनों ही उच्च न्यायपालिका में वंशवादी आत्म-स्थायित्व की मूल जड़ पर प्रहार करते हैं.

आइए कुछ अनुभवजन्य आंकड़ों से शुरुआत करें. एक यूट्यूब वीडियो में अधिवक्ता और लेखक संजय दीक्षित ने कहा कि हाई कोर्ट के 25 मुख्य न्यायाधीशों में से 20 खून या विवाह से संबंधित थे, या हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के बतौर जूनियर कई सालों की चाकरी से संबंधित थे.

अपने हालिया कॉलम में भारत के पूर्व अटॉर्नी-जनरल, सोली सोराबजी ने न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद के बारे में लिखा. उन्होंने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के 5 मई के ज्ञापन का हवाला दिया, जिस पर 1,000 अधिवक्ताओं ने हस्ताक्षर किए थे. उनकी योग्यता का संदर्भ दिए बिना, “अब उन अधिवक्ताओं के नामों की सिफारिश करना अभ्यास और सुविधा का मामला बन गया है जो पूर्व न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों के बेटे, बेटियां, रिश्तेदार और जूनियर हैं.”

इससे भी अधिक कड़ी आलोचना इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति रंग नाथ पांडे (सेवानिवृत्त) की ओर से हुई. उन्होंने आरोप लगाया कि बार के लगभग एकाधिकार को कायम रखने के लिए हाई कोर्ट के कॉलेजियम ने जानबूझकर बेंच से न्यायाधीशों की पदोन्नति में देरी की.

यह प्रभावी रूप से सुप्रीम कोर्ट में उनके प्रवेश को रोकता है, जहां आज़ादी के बाद से बार के केवल छह गैर-सदस्यों को न्यायाधीश नियुक्त किया गया है. एसके दास, केएन वांचू, केसी दास गुप्ता, आर दयाल, वी रामास्वामी और वी भार्गव औपनिवेशिक भारतीय सिविल सेवाओं का हिस्सा थे. उनमें से केवल वांचू (1967-1968) तक सीजेआई रहे. उनके बाद, किसी भी न्यायविद् को शीर्ष अदालत में पदोन्नत नहीं किया गया, भले ही संविधान के अनुच्छेद 124(3) के तहत इसका प्रावधान मौजूद है.


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खतरनाक कोलेजियम सिस्टम

इसलिए संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 को समझना महत्वपूर्ण है, जो क्रमशः सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित हैं. इन प्रावधानों के अनुसार, राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के बाद करेगा जिन्हें राष्ट्रपति इस उद्देश्य के लिए आवश्यक समझें और हाई कोर्ट के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों, सीजेआई और राज्यपाल से परामर्श के बाद करेगा.

हालांकि, पिछले कुछ साल में सुप्रीम कोर्ट ने परामर्श को कॉलेजियम का पर्याय बना दिया है, एक ऐसी प्रणाली जिसे संविधान सभा द्वारा तीन बार खारिज किया गया था. ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बीआर आंबेडकर ने इसे ‘खतरनाक’ बताया था. उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया था कि न्यायपालिका को स्वतंत्र होने के साथ-साथ ‘प्रतिस्पर्धी’ भी होने की ज़रूरत है.

इसलिए, योग्यता-आधारित और प्रतिस्पर्धी न्यायपालिका की उत्पत्ति का पता संविधान सभा की बहसों से ही लगाया जा सकता है. राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) द्वारा भारतीय वन सेवा के निर्माण की सिफारिश के ठीक दो साल बाद 1958 में 14वें विधि आयोग द्वारा एआईजेएस का विचार रखा गया था.

1961, 1963 और 1965 में मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में एआईजेएस का समर्थन किया गया था और 1976 में पारित एक प्रस्ताव के आधार पर एआईजेएस के निर्माण के लिए कानूनी मंजूरी प्रदान करने के लिए संविधान (42वें संशोधन) अधिनियम के माध्यम से अनुच्छेद 312 में किया गया संशोधन राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत के साथ पास किया गया था. नतीजतन, आज जो स्थिति है, एआईजेएस की स्थापना में कोई कानूनी बाधा नहीं है.

दूसरी ओर, एनजेएसी की स्थापना व्यापक राजनीतिक सहमति के बाद संविधान (99वें संशोधन) अधिनियम के माध्यम से की गई थी. कॉलेजियम प्रणाली को बदलने के लिए इसे संसद के साथ-साथ 20 राज्य विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित किया गया था. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसे इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह ‘संविधान की मूल संरचना’ के खिलाफ था, लेकिन जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यह बताया जा सकता है कि वर्तमान में प्रचलित कॉलेजियम प्रणाली को कोई संवैधानिक मंजूरी नहीं है. कई आयोगों और संसदीय समितियों ने इसमें खामियां पाई हैं.

आइए अब मौजूदा प्रणाली के नैतिक आयामों पर नज़र डालें, जो गैर-पारदर्शी है और उन लोगों के पक्ष में अत्यधिक पक्षपाती है जो कानूनी बिरादरी में अच्छी तरह से जड़ें जमा चुके हैं, जिससे नए प्रवेशकों के लिए कांच की छत को तोड़ना बेहद मुश्किल हो जाता है. राज्य न्यायिक सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली महिलाओं में से केवल दसवां हिस्सा ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में पहुंच पाता है.

एससी, एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व भी काफी कम है और राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने कॉलेजियम-आधारित प्रेरण प्रणाली में बदलाव के लिए रिकॉर्ड किया है.

एआईजेएस के लिए मामला

एआईजेएस के खिलाफ एक तर्क राज्यों में कानूनी शिक्षा की असमान गुणवत्ता के बारे में है. इस संभावना के साथ कि कुछ राज्यों के उम्मीदवारों को अतिरिक्त बढ़त मिल सकती है. जबकि सदी के अंत तक यह एक वैध बिंदु था, अब भारत में 26 नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज़ (एनएलयू) हैं, जिनमें से प्रत्येक में या तो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश या राज्य के मुख्य न्यायाधीश कुलाधिपति हैं.

इन एनएलयू में प्रवेश कॉम्पिटिटिव परीक्षा कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट (सीएलएटी) के जरिए होता है, जिसकी सफलता दर 5 प्रतिशत से कम है. अगर एआईजेएस होता, तो कई प्रतिभाशाली महिलाओं और पुरुषों को परीक्षा देने के लिए प्रेरित किया जाता, खासकर अगर यह दो दशकों की सेवा के बाद हाई कोर्ट में जाने के लिए एक कैरियर मार्ग प्रदान करता, जिससे सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति की संभावना खुल जाती।

समय के साथ, बेंच के जजों की संख्या बार के जजों से अधिक होनी चाहिए, क्योंकि एक ही अदालत में उनके ‘परिजन, रिश्तेदार और प्रैक्टिस पार्टनर’ होने की संभावना कम होती है. यही कारण है कि नीति आयोग ने India@75 पर अपने पेपर में जीवन में आसानी और व्यापार करने में आसानी दोनों के लिए AIJS की जोरदार सिफारिश की.

फिर भाषा का मुद्दा है, जिसे 116वें विधि आयोग की रिपोर्ट में संबोधित किया गया है. अखिल भारतीय सेवाओं (एआईएस) के अधिकारी अपने राज्य की भाषा में औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं और किसी भी मामले में 1950 और 1960 के दशक में राज्यों के पुनर्गठन से पहले, बॉम्बे, बंगाल, असम और पंजाब जैसे बड़े राज्य वास्तव में द्विभाषी या त्रिभाषी थे और फिर भी एक ही न्यायिक सेवा के माध्यम से प्रशासित होते थे.

इसके अतिरिक्त, एआईजेएस के लिए प्रस्तावित ढांचे में चुनने के लिए पांच भौगोलिक क्षेत्र होंगे और अधिकांश चयनित उम्मीदवारों को संभवतः उनका गृह राज्य या पड़ोसी राज्य मिलेगा. हरियाणा के एक उम्मीदवार के लिए पंजाबी, डोगरी, हिमाचली और राजस्थान की बोलियों की बारीकियों को समझना काफी आसान होना चाहिए, खासकर अगर उसने एआईजेएस परीक्षा पास की है तो.

आखिरी, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रियाओं में पारदर्शिता लाने से सच में न्यायपालिका कमज़ोर होने के बजाय मजबूत होती है. ‘बुनियादी ढांचे’ के बारे में बार-बार उद्धृत किया जाने वाला केशवानंद भारती मामला यहां प्रासंगिक नहीं है क्योंकि कॉलेजियम कभी भी बुनियादी ढांचे का हिस्सा नहीं था — बल्कि यह न्यायिक अतिरेक का मामला है.

न्याय न केवल किया जाना चाहिए; ऐसा प्रतीत होना चाहिए कि यह किया गया है. न्यायमूर्ति रंग नाथ पांडे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे अपने पत्र में ठीक ही लिखा है: “सर्वोच्च न्यायालय ने अधिनियम (एनजेएसी) को रद्द कर दिया क्योंकि इससे नियुक्तियां करने की उसकी शक्तियां प्रभावित होती.”

(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डायरेक्टर थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev. है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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