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Friday, 20 December, 2024
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अखिलेश यादव विजेता हैं, क्योंकि सपा के लोहिया को आंबेडकर मिल गए

अखिलेश यादव ने बसपा से गठबंधन करके दलितों के लिए अपनी पार्टी का वह दरवाजा खोला है, जिसे मुलायम और मायावती के बीच की कटुता ने पूरी तरह बंद कर दिया था.  

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दिल्ली में बीएसपी की समीक्षा बैठक के बाद से ही, बसपा प्रमुख मायावती की बातों का कयास लगाकर सभी टीवी चैनलों द्वारा चटकारे लेकर खबरें परोसी जा रही थीं कि मायावती ने समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन खत्म कर लिया है. खबर परोसने वालों में अधिकतर वे लोग थे जो अखिलेश यादव के ऊपर यह कहते हुए हंस रहे थे कि अखिलेश को मायावती ने मूर्ख बनाया, मायावती विश्वास करने लायक ही नहीं हैं!

इस प्रकरण में सभी विश्लेषक अखिलेश यादव को हारा हुआ साबित करने में जुटे हैं. मौजूदा लेख ये समझने की कोशिश है कि क्या अखिलेश यादव यहां से उबर सकते हैं और क्या वे मौजूदा कठिनाई को अवसर में तब्दील कर सकते हैं. साथ ही ये देखने की कोशिश भी होगी कि क्या सपा दलितों के साथ नाता जोड़ने के इस अवसर का इस्तेमाल कर पाएगी.


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गठबंधन तोड़ने के मायावती के तर्क

एएनआई को दिए अपने वक्तव्य में मायावती ने कहा, ‘अखिलेश और डिंपल को मैंने भी अपने पुराने गिले-शिकवे भूलाकर देश व जनहित में और बड़े होने के नाते भी खुद के परिवार की तरह पूरा आदर-सम्मान दिया है. और हमारे ये रिश्ते राजनीतिक स्वार्थ के कारण ही नहीं बने हैं बल्कि हमेशा हर सुख-दुख में भी वैसे ही बने रहेंगे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘सपा को यादवों के वोट भी नहीं मिले हैं. यादव बहुल सीटों पर सपा के मज़बूत उम्मीदवार भी हारे हैं. हालांकि बीते चुनावों में ईवीएम में गड़बड़ी किसी से छिपी नहीं है. फिर भी ऐसी हार नहीं होनी चाहिए. जिस मक़सद से ये गठबंधन हुआ था, उसमें सफ़लता नहीं मिली. सपा में भी कुछ सुधार लाने की ज़रूरत है.’

इसके बाद अखिलेश यादव ने भी अकेले विधानसभा उपचुनाव लड़ने की बात कही. अगर दोनों नेताओं की बातों पर गौर करें तो हमें लगता है कि अब वे दोनों पार्टियां अगला चुनाव साथ-साथ नहीं लड़ना चाहती हैं, लेकिन भविष्य में अगर जरूरत पड़ी तो वे फिर से गठबंधन बना सकते हैं (जिसकी संभावना काफी क्षीण है)!

जनता के दबाव में बना था गठबंधन

हकीकत तो यह है कि ऐसा बहुजन राजनीति में पहली बार हो रहा था कि बसपा-सपा के नेताओं के गठबंधन बनने से पहले जनता ने इसकी राह बना दी थी, जिसकी शुरुआत फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव से हुई. उस पर पूरी तरह सहमति की मुहर कैराना लोकसभा उपचुनाव में लगाई गई थी. उसके बाद ही सपा, बसपा और रालोद के नेताओं के स्तर पर बातचीत शुरू हुई. इस गठबंधन को जनवरी 2019 में अमलीजामा पहनाया गया.

गठबंधन का मकसद बीजेपी को हराना बताया गया. लेकिन पूरे चुनाव प्रचार के दौरान मायावती बीजेपी या नरेंद्र मोदी पर उस रूप में आक्रामक नहीं दिखीं, जिस रूप में वह कांग्रेस के खिलाफ दिखीं. सवाल आज भी अनुत्तरित है कि जब यह गठबंधन बीजेपी को हराने के लिए बना था तो उसे तोड़ने की जरूरत क्यों पड़ी, जबकि वह ताकत एक बार फिर उससे भी ज्यादा बहुमत से सत्ता पर काबिज हो गई है? क्या मायावती समझती हैं कि बीजेपी से लड़ने की जरूरत खत्म हो गई है.

सपा-बसपा गठबंधन क्यों टूटा?

वैसे ये बातें मीडिया में स्पष्ट रूप से नहीं आई हैं फिर भी अनुमान लगाने की कोशिश करें तो शायद मायावती और अखिलेश के बीच यही समझदारी रही होगी कि अगर गठबंधन लोकसभा चुनाव जीत जाता है तो अखिलेश यादव मायावती को प्रधानमंत्री पद दिलाने में मदद करेंगे और अगले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव को बहन मायावती उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कमान सौप देंगी. अखिलेश यादव ने चुनाव के दौरान ये बात साफ भी कर दी थी कि दोनों दलों की योजना क्या है. हालांकि मायावती ने कभी खुलकर नहीं कहा कि वे अखिलेश की मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी की समर्थन करेंगी.

चूंकि महागठबंधन लोकसभा चुनाव के दौरान अपने मुख्य काम में असफल रहा है, इसलिए मायावती की परेशानी यह है कि जिस राज्य की वह चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, वह पद अखिलेश यादव को कैसे परोसकर दे दें! और यही वह पेच है जहां से मायावती को अपना रास्ता अलग करना पड़ा है.

मायावती के तर्कों पर गौर करें तो यह पूरी तरह साफ है कि वह जो कह रही हैं उसकी पुष्टि कोई भी आंकड़ा नहीं कर रहा है. हकीकत यह है कि दोनों दलों का वोट ट्रांसफर हुआ है. अगर यह सही नहीं होता तो बसपा सांसदों की संख्या शून्य से बढ़कर 10 तक नहीं पहुंच जाती. गठबंधन को यूपी में 38.92 प्रतिशत वोट बिना वोट ट्रांसफर हुए नहीं मिले हैं क्योंकि दोनों पार्टियों का अपना वोट तो 20 प्रतिशत के आसपास ही है. इसके बावजूद गठबंधन को उम्मीद जितनी सफलता नहीं मिली क्योंकि बीजेपी का वोट पर्सेंट बढ़ गया है.


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मायावती की अगली रणनीति

उपचुनाव लड़कर मायावती मुसलमान वोटरों को टटोलना चाहती हैं कि उनकी प्राथमिकता में बसपा और सपा में कौन सी पार्टी पहले नंबर पर है. अगर उपचुनाव में उनकी पार्टी बेहतर करती है तो वह एकला चलो का रास्ता अपना लेंगी. फिर वह मान लेंगी कि मुख्यमंत्री पद की वह आज भी अखिलेश से बेहतर उम्मीदवार हैं. लेकिन अखिलेश यादव की पार्टी बेहतर करती है तो अखिलेश मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार होंगे क्योंकि अखिलेश यादव ने बसपा से गठबंधन करके दलितों के लिए अपनी पार्टी का वह दरवाजा खोला है, जिसे मुलायम और मायावती के बीच की कटुता ने पूरी तरह बंद कर दिया था. अखिलेश ने एक झटके में उस कटुता को खत्म कर दिया है जो पिछले 25 वर्षों से दो पार्टियों, बल्कि दो जातियों के बीच चली आ रही थी!

हां, सपा इस अवसर का लाभ तभी ले सकती है जब अखिलेश यादव या उनके परिवार के किसी नजदीकी सदस्यों द्वारा मायावती या दलितों के खिलाफ अभद्र टीका-टिप्पणी न हो और सपा संगठन में दलितों को उचित और सम्मानजनक स्थान मिले. अगर अखिलेश ये कर ले जाते हैं तो अभी का झटका उनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा अवसर साबित हो सकता है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. लंबे समय तक ग्रीन पीस से जुड़े रहे हैं.)

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