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Tuesday, 23 April, 2024
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2014 में पहली बार बीजेपी को वोट देने वाले मतदाता अब किस ओर

बीजेपी 2014 से पहले तक अधिकतम 24 परसेंट वोट वाली पार्टी थी. 2014 में उसे जो नए 8 परसेंट वोट मिले, क्या वे उसके विकास के नारे की वजह से मिले.?

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पिछले साल नवम्बर-दिसंबर में पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने तक कई राजनीतिक पंडित मान रहे थे कि बीजेपी शासित तीनों राज्यों में बीजेपी चुनाव जीत जाएगी. जबकि उससे पहले ‘मूड ऑफ द नेशन’ में इंडिया टुडे ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में बताया था कि चार साल में पहली बार प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता पचास फीसदी से नीचे चली गई है.

जब तीनों राज्यों में बीजेपी हार गई तो राजनीतिक टीकाकारों ने नया तर्क गढ़ा कि राज्य सरकारों के खिलाफ ‘एंटी-इंकबेंसी’ फैक्टर काम कर रहा था. यानी लोग राज्य सरकारों के कामकाज से खुश नहीं थे. हालांकि, इस तर्क का कोई मतलब नहीं है फिर भी यह सवाल तो है ही कि एंटी इंकबेंसी फैक्टर केन्द्र सरकार पर फिट क्यों नहीं होगा?

2013 में जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की जीत हुई तो इसने 2014 में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में फिजा बनाने में काफी मदद की थी. उसी तर्क से इन तीन राज्यों में 2018 में बीजेपी की हार का असर 2019 के लोकसभा चुनाव पर पड़ना चाहिए.

पिछली लोकसभा चुनाव को याद करें तो पाते हैं कि नरेन्द्र मोदी ने अपने 453 चुनावी भाषण में एक बार भी किसी विवादास्पद मुद्दे को नहीं उठाया था. उन्होंने इतनी सावधानी बरती थी कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल नहीं किया था. उस समय किसी न किसी रूप में शायद मोदी जी और उनके नीति-निर्धारकों के मन में यह बात थी कि अगर कश्मीर की बात छेड़ी जाएगी, राम मंदिर निर्माण की बात करेगें तो शायद विकास चाहनेवाली जनता हमारे साथ नहीं आएगी.

मोदी जी की टीम यह जानती थी कि अगर हम विकास और गुजरात मॉडल के अलावा और कोई बात करेंगे तो असफल होंगे. शायद उनके मन में 2009 के चुनाव का अनुभव भी रहा होगा, जिसमें वे सारी बातें थी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी की सीटें और कम हो गई थीं.

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चूंकि पिछले लोकसभा चुनाव में मेनिफेस्टो ड्राफ्टिंग कमिटी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी थे जो खुद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक हैं और उस समय तक पार्टी में उनका कुछ असर था, इसलिए उनके दवाब में तीसरे दौर की बैठक के बाद राम मंदिर निर्माण की बात घोषणापत्र में जोड़ी गई. वैसे 2014 के बीजेपी के घोषणापत्र को देखें तो पाएगें कि राममंदिर प्राथमिकता लिस्ट में 34 वें नंबर पर था.

अगर हम बीजेपी के परंपरागत वोट को देखें तो पाते हैं कि वह 18 से 24 फीसदी के बीच रहा है. यह समय-समय पर नारे, उम्मीदवार और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहा है. उदाहरण के लिए हम वर्ष 1999 के चुनाव को लें जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी पांच साल के लिए प्रधानमंत्री बने थे. उस चुनाव में बीजेपी को 23.75 फीसदी वोट मिले थे और 182 सीटें आईं थीं. वर्ष 2004 के चुनाव में में बीजेपी को 22 फीसदी वोट आए और सीटें घटकर 138 हो गईं जबकि 2009 के चुनाव में बीजेपी का वोट घटकर 20 फीसदी हुआ तो सीटें भी घटकर 116 हो गईं. जबकि 2014 के चुनाव में बीजेपी को 31.34 फीसदी मिले जो सीटों में तब्दील होकर 282 हो गया.

इसका मतलब है कि बीजेपी का कट्टर वोटर किसी भी परिस्थिति में उसे ही वोट करता है. जिसे हम कह सकते हैं कि ये वो वोटर हैं जो राम मंदिर बनाना चाहते हैं, वह वोटर पाकिस्तान को औकात बतानेवाला है, वही वोटर हिंदू राष्ट्र बनानेवाला है, दलितों को औकात बताने वाला है, मुसलमानों से घृणा करनेवाला है और ‘अपनी तरह’ का राष्ट्रवादी भी है. फिर भी उनकी पूरी संख्या अंततः 18 से 24 फीसदी के बीच ही है.

फिर सवाल है कि वह सात-आठ फीसदी नया वोटर कौन था या है जिसकी बदौलत 2014 में बीजेपी की सीटों में सौ सीटों का इजाफा हो गया? वे वो वोटर थे जो उस समय मानते थे कि मोदी जी के हाथ में देश का भविष्य सुरक्षित है. वे यह इसलिए मानते थे क्योंकि उन्हें बताया गया था कि नरेन्द्र मोदी गुजरात मॉडल के निर्माता हैं, वे वोटर मानते थे कि जब वह प्रधानमंत्री बनेगें तो उस ‘आदर्श गुजरात मॉडल’ पर पूरे देश का विकास करेंगे. उन्होंने अच्छे दिन आने वाले हैं जैसे मनभावन नारे भी लगाए. उन्होंने लोगों से वादा किया कि विदेशों में जमा काला धन वापस लाएगें और सबके खाते में पंद्रह लाख रूपए आ जाएंगे.

आज पांच साल के बाद परिस्थिति पूरी तरह बदली हुई है. वे किसान भी परेशान हैं जिन्हें अपने गन्ने का बकाया नहीं मिल पाया है, पंद्रह लाख रूपए की बात तो छोड़ ही दीजिए, हर साल दो करोड़ रोजगार देने का वायदा भूल जाइए, रोजगारों में कटौती हुई है, आर्थिक बदहाली का भयावह दौर है. बदहाली का आलम यह है कि पिछले आठ वर्षों में मनरेगा में रोजगार चाहने वालों की सबसे अधिक मांग पिछले साल बढ़ी है.

जो राजनीतिक टिप्पणीकार यह सोच रहे हैं कि इसके बाद भी बीजेपी सत्ता में आ सकती है, वह काफी आशावादी हैं. जबकि जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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