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Thursday, 19 December, 2024
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भारतीय सेना ‘अखंड भारत’ जैसे सपनों के फेर में पड़कर अपना मकसद न भूले

भारत के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व ‘असुविधाजनक शांति’का दौर माने जाने वाले समय में जब भी धमकियां जारी करते हैं, तब फायदा पाकिस्तानी सेना को पहुंचता है.

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पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 1999 में लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान का दौरा किया था. यह इस बात का प्रतीक था कि भारत ने पाकिस्तान की संप्रभुता को स्वीकार किया है. आज भारत ने जब ‘जी-20’समूह की अध्यक्षता संभाल ली है, तब इस मौके पर 1 दिसंबर 2022 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हमारी आध्यात्मिक परंपराएं कहती हैं कि मूलभूत रूप से ‘हम सब एक हैं’ और उन्होंने ‘वसुधैव कुटुंबकम’के मंत्र को दोहराया.

लेकिन शासक दल को वैचारिक आधार देने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अलग ही राग अलापता रहा है. अप्रैल 2022 में, इसके प्रमुख मोहन भागवत ने दावा किया, ‘अखंड भारत’ का विचार अगले 10-15 साल में वास्तविकता में बदल जाएगा.

‘अखंड भारत’ का विचार

हिंदुत्ववादियों के अनुसार ‘अखंड भारत’वह भौगोलिक उप-महादेश है जिसकी पहचान हिंदू सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी है. ‘अखंड भारत’ की विभिन्न परिकल्पनाओं में पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान के कुछ हिस्से, नेपाल और श्रीलंका शामिल हैं. आज यह परिकल्पना इस धारणा पर आधारित है कि भारत का अनुचित और अमान्य किस्म का बंटवारा किया गया. इसलिए उसे उसके ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक स्वरूप में लौटाया जाए.

इस अवधारणा के मूल प्रस्तावकों में से एक, विनायक दामोदर सावरकर ने ‘अखंड भारत’ के सपने को साकार करने की रणनीति घोषित की थी. इसके पहले चरण में स्वतंत्र भारत में हिंदू वर्चस्व को वापस हासिल करने का लक्ष्य रखा गया. दूसरे चरण में उन भौगोलिक स्थलों का फैसला किया जाएगा जिन पर विदेशियों ने कब्जा किया हुआ है. इसलिए, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल ने नवंबर 2021 में दिए गए अपने एक बयान में ज़ोर देकर कहा था कि युद्ध अब राजनीतिक तथा सैन्य लक्ष्यों को हासिल करने का प्रभावी जरिया नहीं रह गया है.भारत की सिविल सोसाइटी ही युद्ध का नया मोर्चा है, तब वे अखंड भारत को साकार करने के लिए सावरकर के पहले चरण को प्रतिध्वनित कर रहे थे.

दूसरी ओर, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह लगातार कहते आए हैं कि ज्यादा समय नहीं रह गया है जब पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके) फिर से भारत का हिस्सा बन जाएगा. वे यह भी कहते रहे हैं कि देश का धर्म के आधार पर विभाजन एक ऐतिहासिक भूल थी.

सेना के शीर्ष नेतृत्व से जब राजनाथ सिंह के उक्त बयान के बारे में पूछा गया तो दिवंगत चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बिपिन रावत और अभी हाल में सिंगापुर में तैनात 15वीं कोर के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अमरदीप सिंह आहूजा और नदर्न आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने भी इसी तरह के बयान दिए- सेना को जब भी आदेश दिया गया, वह पीओके को कब्जे में लेने को तैयार मिलेगी. ऐसे समय में जब उत्तरी सीमा पर चीन सैन्य चुनौतियां पेश कर रहा है, सेना सियासी लफ्फाजियों का समर्थन करती नज़र आ रही है.


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दुश्मन को लाभ ऐसे पहुंचता है

भारत के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व ‘असुविधाजनक शांति’का दौर माने जाने वाले समय में जब भी धमकियां जारी करते हैं, तब फायदा पाकिस्तानी सेना को पहुंचता है. इस तरह की धमकी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति पर उसकी संस्थागत पकड़ को मजबूत करती है और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी ताकत के आधार को नई ताकत मिली है. रणनीतिक दृष्टि से भारत को नुकसान होता है क्योंकि पाकिस्तानी सेना को संस्थागत मजबूती मिलती है और इस तरह आपसी रिश्ते को सुधारने की गुंजाइश कम होने लगती है. पाकिस्तान को धमकाने से भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को चुनावी लाभ मिल सकता है लेकिन इसकी कीमत राष्ट्रहित को हुए नुकसान के रूप में चुकानी पड़ती है.

‘पीओके को वापस लेने’और ‘धर्म के आधार पर बंटवारे को ऐतिहासिक भूल’बताने के राजनाथ सिंह के दावे को वैचारिक आधार अखंड भारत की धारणा से मिला होगा. दूसरी ओर, सैन्य नेतृत्व पीओके को ऐसे विवादित क्षेत्र के रूप में देख रहा है जिसे पाकिस्तान ने अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है. लेकिन वह जब रक्षा मंत्री के बयान को प्रतिध्वनित करता है तब उसे भारत के संवैधानिक मूल्यों के विपरीत हिंदुओं की श्रेष्ठता की, धारणा पर आधारित विचारधारा के समर्थक के रूप में देखा जा सकता है.

इसलिए इस बात पर संदेह नहीं रहना चाहिए कि सैन्य संस्थानों को अखंड भारत जैसी विचारधारात्मक अवधारणा को दो हाथ दूर ही रखना चाहिए और उसे पेशेवर सैन्य शिक्षण के बहाने अपने पोर्टल में दाखिल नहीं होने देना चाहिए.


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‘अखंड भारत’ से परहेज

प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों सेनाओं के कमांडरों को राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था के अधिक-से-अधिक देसीकरण की हिदायत देकर जाने-अनजाने अखंड भारत का दरवाजा खोल दिया है. उनका आशय केवल फौजी साजो-सामान और हथियारों का ही नहीं बल्कि सिद्धांतों, प्रक्रियाओं, और सेना के अंदर रीति-रिवाजों के देसीकरण से भी है. प्राचीन भारतीय सभ्यता के इतिहास लेखन के मुद्दे अब सैन्य संस्थानों के संगोष्ठियों के लिए अछूते नहीं रह गए हैं. इसमें कोई गलत बात भी नहीं है और इसने कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिलचस्पी जगाई है जिसकी सेना अब तक अनदेखी करती रही जबकि यह राजनीति और कूटनीति का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है. आसान शब्दों में कहा जाए तो सेना को अखंड भारत के मसले से दूर ही रहना चाहिए.

भारतीय संविधान के मूल्यों की रक्षा के लिए बनाए गए संस्थानों पर बहुसंख्यकवादी हिंदू दर्शन के वर्चस्व के मसले को लेकर मत अलग-अलग हो सकते हैं. किसी देश की अंतिम रक्षक सेना को अपना अ-राजनीतिक चरित्र बनाए रखना चाहिए. बीजेपी सरकार ने अखंड भारत को आधिकारिक रूप से मंजूरी नहीं दी है, भले ही उसके कुछ कदम इसके समर्थन में उठाए गए दिखाई देते हों. इसलिए, सिविल सोसाइटी के साथ लड़ाई लड़ने का जो बयान डोभाल ने दिया उससे अगर कोई संकेत लिया भी जाए तो वह धार्मिक स्वरूप का लगेगा. इस बात में भी संदेह की गुंजाइश है कि अखंड भारत की नीति के पहले चरण की, जिसका ताल्लुक मुस्लिम और ईसाई जैसे ‘धार्मिक विदेशियों’से है, शुरुआत कर दी गई है.

अखंड भारत जैसे वैचारिक विमर्श से निपटना और उन्हें पेशेवर सैन्य प्रशिक्षण से अलग रखना सैन्य नेतृत्व के लिए कोई मुश्किल काम नहीं होगा क्योंकि उसके पास पर्याप्त अधिकार हैं. इसलिए कोई भी शुरुआत, अगर उसे संस्थागत समर्थन हासिल है, सेना के शीर्ष स्तर के अ-राजनीतिक चरित्र को कमजोर ही करेगी. इसके अलावा, सेना उत्तरी सीमा पर बढ़ रहे खतरे से बेखबर नहीं रह सकती और न ही वहां से उसका ध्यान हटना चाहिए.

अखंड भारत का सपना शायद किसी बाहरी समूह का है लेकिन उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. तब उसे इसे प्रचारित करने की छूट मिल जाएगी. लेकिन उसे सेना के फाटक के अंदर घुसने से रोकना बेहद जरूरी है.

(अनुवाद: अशोक कुमार| संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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