scorecardresearch
Friday, 19 April, 2024
होममत-विमतआइशी घोष और कन्हैया कुमार ने जो शुरुआत की है वो वामपंथी नेताओं को बहुत पहले ही करनी चाहिए थी

आइशी घोष और कन्हैया कुमार ने जो शुरुआत की है वो वामपंथी नेताओं को बहुत पहले ही करनी चाहिए थी

जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष का पश्चिम बंगाल में चुनाव लड़ने का फैसला भारत में वामपंथ के पतन की एक बुनियादी वजह में सकारात्मक बदलाव को दर्शाता है.

Text Size:

क्या भारतीय वामपंथ अपनी राजनीति के एक नए चरण में प्रवेश कर चुका है? जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष आइशी घोष कैंपस के बाहर वास्तविक दुनिया की चुनावी राजनीति में कदम रखने वाली वाम दलों की नवीनतम युवा नेता हैं. घोष ने पश्चिम बंगाल की जमुरिया सीट से माकपा उम्मीदवार के रूप में विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है. इससे पहले, जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार बिहार की बेगूसराय सीट से 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं, जिसमें उन्हें नाकामी हाथ लगी थी.

अब आइशी घोष के चुनावी दंगल में उतरने के साथ ही भारत में राजनीतिक और चुनावी दृष्टि से वामपंथी दलों के पतन की एक बुनियादी वजह— जमीनी राजनीति में शिरकत करने के बाद कभी चुनाव नहीं लड़ने वाले नेताओं के हाथों में पार्टी की बागडोर होना— में सकारात्मक बदलाव के साफ संकेत दिख रहे हैं.

वाम मोर्चे की प्रमुख घटक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) का पतन अभूतपूर्व रहा है— 2004 की लोकसभा में 43 सांसदों की प्रभावशाली उपस्थिति वाली पार्टी को 2019 में तीन सीटों पर सिमटने की शर्मिंदगी झेलनी पड़ी. और ये दुर्गति प्रकाश करात और सीताराम येचुरी जैसे महासचिवों के रहते हुई है. डी राजा के नेतृत्व वाली सीपीआई की स्थिति कोई अलग नहीं है. इनमें से सभी ने छात्र नेताओं के रूप में शुरुआत की थी लेकिन मुख्यधारा की राजनीति में आने के बाद उन्होंने कभी भी चुनाव लड़ने का विकल्प नहीं चुना, बजाय इसके उन्होंने राज्य सभा के ज़रिए संसद में दाखिल होने का सुविधाजनक मार्ग चुना.

घोष और कन्हैया के चुनावी राजनीति में उतरने के साथ शायद वामपंथी दलों के भीतर बदलाव की शुरुआत हो गई है. वाम दलों की दुर्दशा के मद्देनज़र ये जरूरी है कि माकपा और भाकपा का नेतृत्व करने वालों को चुनावी राजनीति का व्यक्तिगत अनुभव हो और वे व्यावहारिक राजनीति को समझते हों. भारतीय वामपंथ का पुनरोत्थान यदि संभव है, तो ऐसा केवल जमीन से जुड़े नेतृत्व के माध्यम से ही हो सकता है जिसका कि वर्तमान वास्तविकताओं से सरोकार हो.

और, चुनाव लड़ना इस लक्ष्य को हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका है. चुनाव लड़ने वाले आम मतदाताओं तक व्यक्तिगत रूप से पहुंचने की हरसंभव कोशिश करते हैं. मतदाताओं से जुड़ने पर ही आपको पता चलता है कि वो क्या चाहते हैं और उन्हें क्या चाहिए और चुनाव जीतने की आपकी भूख आपको परिस्थितियों के अनुसार बदलने के लिए प्रेरित करती है. ये किसी भी पार्टी की कमान संभालने वाले के लिए जरूरी है, अन्यथा ज़मीनी स्थिति से अनजान रहते हुए चुनावी मैदान में उतरे लोगों को भाषण देने के अलावा उनके पास करने को और कुछ नहीं रह जाता है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें: हॉन्गकॉन्ग में ‘देशभक्त’ भरकर चीन एक नया मकाओ तैयार करना चाहता है


वामपंथ का पतन

भारत में वाम मोर्चे का तब से निरंतर पतन हो रहा है, जब उसने 2008 में भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर के विरोध में यूपीए-1 सरकार को छोड़ दिया था. गिरती हैसियत के बहुत से कारण हैं— असंगत सोच से लेकर हठधर्मी विचारधारा और बदलते मतदाताओं के अनुरूप चुनावी राजनीति में बदलाव से इनकार तक. लेकिन इन सबके केंद्र में है एक दिशाहीन और वास्तविकता से पूरी तरह कटा नेतृत्व जो चुनावी राजनीति की स्याह दुनिया में कामयाबी की तरकीबों के बारे में कुछ नहीं जानता.

उदाहरण के लिए माकपा को ही लें. यह पार्टी 2005 में अपनी राजनीतिक उत्कर्ष पर थी, जब प्रकाश करात ने महासचिव का पद संभाला था. 2014 आते-आते और करात के कार्यकाल की समाप्ति तक, पार्टी संसद में 43 सीटों से गिरते हुए सिर्फ नौ पर सिमटकर रह गई. माकपा न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि राज्यों में भी पकड़ खोने लगी. ममता बनर्जी ने 2011 में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के तीन दशक लंबे शासन का अंत कर दिया.

विशाखापत्तनम पार्टी कांग्रेस के दौरान तीखे आंतरिक संघर्ष के बाद, अप्रैल 2015 में येचुरी के बागडोर संभालने को आशा की किरण के रूप में देखा गया था. उन्हें व्यावहारिक, आधुनिक और अपने पूर्ववर्ती की तुलना में वास्तविकता से कम कटे नेता के रूप में देखा गया था. सीताराम येचुरी पत्रकारों के बीच भी अधिक लोकप्रिय थे, जिनमें से कई करात कैंप का हिस्सा रहे उम्रदराज उम्मीदवार एस रामचंद्रन पिल्लई के मुकाबले खुलकर उऩका समर्थन कर रहे थे. पार्टी कांग्रेस कवर करने के दौरान मुझे माकपा के शीर्ष नेतृत्व का प्रतिस्पर्धा करने और जीतने का जुनून देखने को मिला था, जोकि लोकसभा या विधानसभा चुनावों तक में भी नहीं दिखता.

हालांकि, माकपा की किस्मत में बहुत बदलाव नहीं आया. लगातार गिरावट का दौर जारी रहा और पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने 2014 चुनाव के खराब प्रदर्शन को भी पीछे छोड़ दिया. दरम्यानी चुनावों में स्थिति निरंतर बिगड़ती गई थी. पश्चिम बंगाल के 2016 के चुनावों में माकपा के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे ने केवल 33 सीटें जीती जबकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस 293 सीटों में से 211 पर सफल रही थी. इसी तरह 2017 के त्रिपुरा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने वाम दलों से उनके अंतिम गढ़ों में से एक को छीन लिया.

1992 से 2005 तक माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के कार्यकाल में कहानी काफी अलग थी. पंजाब के इस कुशल राजनेता की भारतीय राजनीति पर जबरदस्त पकड़ थी और गठबंधनों के ज़रिए वह माकपा को राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता दिलाने में कामयाब रहे थे. जबकि भाकपा की सफलताओं के बारे में जितना कम कहा जाए उतना बेहतर.

यह सिर्फ चुनाव जीतने की बात नहीं है. यह वामपंथी दलों के प्रासंगिकता खोने, हाशिए पर जाने और वर्तमान दुर्दशा का मामला है.


यह भी पढ़ें: पलानीस्वामी को जयललिता या MGR बनने की जरूरत नहीं, उन्हें पता है कि सत्ता में कैसे बने रहना है


नेतृत्व की भूमिका

कन्हैया कुमार भले ही बिहार में चुनाव हार गए, आइशी घोष पश्चिम बंगाल में आक्रामक ममता बनर्जी और भाजपा के उभार के सामने जीत पाएं या नहीं, महत्वपूर्ण ये है कि इन युवा नेताओं ने चुनाव मैदान में उतरकर साहस और दूरदर्शिता का प्रदर्शन किया.

अपने पूर्ववर्तियों और वरिष्ठ नेताओं का अनुसरण नहीं करते हुए, इन युवा नेताओं ने चुनाव लड़ने के महत्व को समझा है — जो कि लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति की एक स्थाई खासियत है. इससे पार्टी में युवाओं की नई खेप को शामिल करने में भी मदद मिलती है. अपनी 2015 की राजनीतिक संगठनात्मक मसौदा रिपोर्ट में, माकपा ने ‘उम्रदराज नेताओं’ और ‘विस्तार रुकने’ और ‘जनाधार घटने’ की समस्याओं को खुलकर स्वीकार किया था. हालांकि कमियों को मानने के बावजूद सुधार की कोई कोशिश नहीं हुई. आखिरकार ऐसा होता भी कैसे, जब नेतृत्व वास्तविकता से दूर अपनी अलग दुनिया में मगन हो, नेताओं की अधिक रुचि आपसी प्रतिस्पर्धा में हो और वे भारतीय राजनीति के ‘नव-उदारवादी’ और ‘फासीवादी’ पहलुओं को लेकर मूर्खतापूर्ण विलाप करते हों.

हो सकता है आइशी घोष और कन्हैया कुमार भी कोई अलग या अधिक विवेकपूर्ण साबित नहीं हों लेकिन कम से कम एक नई शुरुआत तो हुई है. सबसे पहले वामपंथी दलों की युवा शाखाओं— आइसा और एसएफआई के नेताओं को छात्र राजनीति से बाहर निकल विधानसभा/लोकसभा के चुनाव लड़ने चाहिए और खुद को लच्छेदार भाषणबाजी तक सीमित नहीं रखना चाहिए, जिसमें शायद ट्विटर पर सक्रिय वामपंथी समूह के अलावा और किसी की रुचि नहीं होगी. उन्हें इस बात पर गौर करना चाहिए कि एबीवीपी (आरएसएस का छात्रसंघ) और एनएसयूआई (कांग्रेस का छात्रसंघ) के कितने नेता अपनी पार्टियों की मुख्य धारा में शामिल होते हैं और चुनाव लड़ते हैं.

किसी भी राजनीतिक दल के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जमीन से जुड़ा और मतदाताओं की भावनाओं को समझने वाला नेतृत्व. इस बात को राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के लोकसभा में 52 सीटों पर सिमटने और नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा के 303 के आंकड़े तक पहुंचने के उदाहरणों से समझा जा सकता है.

वाम मोर्चे की उम्मीद एक युवा और लचीले नेतृत्व के सहारे खुद को बदले माहौल के अनुरूप ढालने पर निर्भर है. कन्हैया कुमार और आइशी घोष ने एक बेहद ज़रूरी पहल की है जिसका बाकियों को भी अनुसरण करना चाहिए.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: केरल में पिनरई विजयन के नेतृत्व वाली LDF की वापसी की संभावना से क्यों चिंता में है उदारवादी


 

share & View comments