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Friday, 3 May, 2024
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मोदी के भाषण ने भारत के सबसे खतरनाक, 1960 वाले दशक की चुनौतियों की याद दिला दी

सबसे बुरे या सबसे खतरनाक 10 वर्षों की प्रतिस्पर्धा हमेशा 1960 और 1980 के दशक के बीच रही है. मिजोरम हवाई हमले पहली और ऑपरेशन ब्लू स्टार दूसरी घटना थी.

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अविश्वास प्रस्ताव का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के इतिहास के दो सबसे अहम, विवादास्पद और दुखद मोड़ों को रेखांकित किया.

पहली, मार्च 1966 में आइज़ोल (जो तब एक जिला मुख्यालय था और आज मिजोरम की राजधानी है) से बागियों को खदेड़ने के लिए उस पर भारतीय वायुसेना के विमान से हवाई हमला. दूसरी, ऑपरेशन ब्लू स्टार, जिसके कारण सिखों की आध्यात्मिक तथा सांसारिक सत्ता के केंद्र अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में स्थित अकाल तख्त का विध्वंस.

इसे बेरहम राजनीति ही कहेंगे. वैसे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ऐसे तर्क देने और इतिहास की उन घटनाओं का हवाला देने का अधिकार है जिनसे उन्हें लगता हो कि वे अपनी बात रख सकते हैं. वे ऐसी बातें, खासकर राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित, भी रख सकते हैं जिनसे ऐसा लगता हो कि वे उदारवादियों की भाषा बोल रहे हैं, जिन्हें उनकी पार्टी नापसंद करती हो.

बहरहाल, यह हमें अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी विमर्श के सबसे पुराने सवालों को उठाने और उनकी तफ़्तीश करने का एक मौका देता है, कि आजादी के बाद भारत के लिए सबसे खतरनाक दशक कौन-सा था? 1960 या 1980, ये दो दशक इस सवाल का जवाब बनने में हमेशा एक दूसरे से आगे रहने की होड़ में दिखते हैं. मिजोरम पर हवाई हमला पहली ऐसी खतरनाक घटना थी, और ऑपरेशन ब्लू स्टार दूसरी.

मैं हमेशा 1960 के दशक को सबसे संकटग्रस्त दशक मानता रहा हूं. वैसे, इस पर एक आपत्ति भी वाजिब रूप से लगाई जा सकती है. 1980 के दशक में हम जिन खतरों से गुजरे उन्हें कम भी नहीं आंका जा सकता, दो सहस्राब्दियों में जी चुकी पीढ़ियां इन खतरों से गुजरी हैं. इस दशक ने पंजाब में उग्रवादी बगावत देखी, कश्मीर में आतंकवाद की वापसी देखी, दोनों राज्यों में हिंदुओं की हत्याएं देखी, ऑपरेशन ब्लू स्टार और सेना की सिख टुकड़ियों में विद्रोह देखे, दिल्ली तथा दूसरी जगहों पर सिखों का संहार देखा, भोपाल गैस हादसा देखा, सेना के ‘ब्रासटैक्स’ युद्धाभ्यास को लेकर पाकिस्तान के साथ युद्ध के कगार पर पहुंचना देखा, सुमदोरोंग शू को लेकर चीनी सेना और भारतीय सेना का मुठभेड़ की स्थिति तक पहुंचना देखा जिसे सुलझाने में करीब दस साल लगे, श्रीलंका में भारतीय सेना की कार्रवाई देखी, और खासकर बोफोर्स कांड के बाद आंतरिक अस्थिरता देखनी पड़ी.

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लेकिन 1960 के दशक में जब भारत ज्यादा कमजोर था तब वे 10 साल आजादी के बाद के हमारे इतिहास के सबसे कठिन, सबसे जोखिम भरे साल माने जा सकते हैं. उस उथल-पुथल भरे दशक के बीच सबसे बुरे, सबसे संकटग्रस्त दौर में अचानक मिज़ो विद्रोह फूट पड़ा था.


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जनवरी 1966 में लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन हुआ. अनुभवहीन इंदिरा गांधी को बिना तैयारी के प्रधानमंत्री की गद्दी संभालनी पड़ी. इससे ठीक छह महीने पहले ही भारत को पाकिस्तान के साथ लड़ाई लड़नी पड़ी थी जिसने आर्थिक रूप से हमें कमजोर किया, और मिज़ो नेशनल फ्रंट ने अपनी संप्रभुता की घोषणा कर दी थी. 11 जनवरी को शास्त्री के निधन के बाद तीन महीने भी नहीं बीते थे कि 6 मार्च से बागियों ने आइज़ॉल में असम राइफल्स के मुख्यालय पर हमले शुरू कर दिए थे.

इसके बाद क्या हुआ, वायुसेना की ताकत का क्यों इस्तेमाल किया गया यह सब हम इससे पहले के लेख और ‘कट द क्लटर’ कार्यक्रम में बता चुके हैं और इनके बारे में आप अनन्या भारद्वाज के इस ‘एक्स्प्लेनर’ में विस्तार से पढ़ सकते हैं. इसलिए हम उसकी चर्चा फिर से नहीं कर रहे हैं. इसके बदले हम बार-बार लौटकर उस दौर का सर्वे करेंगे. इसकी वजह यह है कि वह दौर न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कई सबक सिखाता है बल्कि यह भी बताता है कि हमारे नेताओं ने उन मसलों को किस तरह निबटाया. और यह भी कि राष्ट्रीय सुरक्षा, स्थिरता और एकता के लिए आंतरिक राजनीति कितना महत्व रखती है.

जवाहरलाल नेहरू को ब्रिटिश सरकार से जो देश, उसकी जो सीमाएं, और उसके जो पड़ोसी विरासत में मिले वे सब अनिश्चित और भयावह थे. पाकिस्तान 1947 से ही सैन्य दुश्मन था, चीन एक दशक के अंदर ही रणनीतिक क्षितिज पर हावी होने लगा था. 1950 के दशक के मध्य तक नगाओं का विद्रोह शुरू हो गया था. और कहा तो यह जा सकता है कि नेहरू ने इस उम्मीद में सेना भेजने में देर कर दी थी कि मसला बातचीत से सुलझ जाएगा. 1947-52 के दौर में संकट इसी तरह की उम्मीद में गंभीर होता गया.

1957 आते-आते लड़ाई शुरू हो गई, और वास्तव में जनजातीय आबादी को सुदूर अलग-थलग बस्तियों से लाकर सेना की टुकड़ियों के करीब गांवों में बसाने का पहला एकजुट प्रयास तभी शुरू हो गया था. यह ‘सुरक्षित और प्रगतिशील गांवों’ (पीपीवी) के नाम पर पहला अत्याचार था. इस क्रम में भारी जुल्म और मानवाधिकारों के उल्लंघन हुए, हालांकि उन दिनों सेना अध्यक्ष की ओर से जारी आदेश में इससे ठीक उलटा कहा गया कि वे सब हमारे अपने लोग हैं, आदि-आदि.

चीन के साथ रिश्ते बिगड़े तो दलाई लामा भागकर भारत आ गए. चीन नगा विद्रोहियों का रहनुमा बन गया. भारतीय सुरक्षा बल सीआरपीएफ और चीनी सेना पीएलए के बीच पहली सशस्त्र भिड़ंत 21 अक्टूबर 1959 को हॉट स्प्रिंग्स क्षेत्र में हुई, जो आज भी पूर्वी लद्दाख में ‘हॉट’ इलाका बना हुआ है. उस भिड़ंत ने तय कर दिया कि अगला दशक कैसा रहने वाला है.

हम हर एक साल पर एक-एक करके नजर डाल सकते हैं. 1960 में, नगा बागी और भारतीय सेना के बीच पूरी तरह गुरिल्ला युद्ध चल रहा था, जो भारतीय वायुसेना के डाकोटा विमान को मार गिराए जाने के साथ अपने चरम पर पहुंच गया. यह विमान पर्र गांव में बागियों से घिर गई असम राइफल की एक टुकड़ी के लिए सप्लाई गिरा रहा था. पायलटों ने विमान को भीषण बारिश के बीच धान के एक खेत में अचानक उतार दिया, उन्हें बंदी बना लिया गया. विमान में पीछे बैठे सैनिकों को तो जल्दी रिहा कर दिया गया लेकिन वायुसेना के चार अफसरों को 21 महीने तक बंदी बनाए रखा गया. नगाओं का ज़ोर इतना था कि वे ‘द ऑब्जर्वर’ के एक ब्रिटिश पत्रकार गेवीन यंग को चोरी-छिपे अपने कब्जे वाले इलाके में ले आए थे ताकि वह फ्लाइट लेफ्टिनेंट ए.एस. सिंघा के नेतृत्व वाले चालक दल का इंटरव्यू ले. बता दें कि सिंघा फिल्म अभिनेता देवानंद के साले थे.

जबकि सेना इस क्रूर जंग में फंसी थी और चीन की ओर से खतरा बढ़ता जा रहा था, नेहरू ने अगले साल दिसंबर में गोवा को मुक्त कराने के लिए तीनों सेनाओं की संयुक्त कार्रवाई शुरू करवा दी. यह उस संकटग्रस्त दशक के हमारे कालक्रम में वर्ष 1961 का ब्योरा है. 1962 के खाते में, चीन के साथ युद्ध में हार दर्ज है. भारत को पराजित और कमजोर देखकर पाकिस्तान ने कश्मीर में गड़बड़ी शुरू कर दी. 1963 में कथित हजरतबल कांड (पवित्र अवशेष की चोरी) ने घाटी में खलबली मचा दी. 1964 में, नेहरू सत्ता में रहते हुए चल बसे जबकि उनके उत्तराधिकार को लेकर कोई योजना नहीं तैयार की गई थी.

शास्त्री ने एक समझौते के उम्मीदवार के तौर पर कमान संभाली, और हम यह नहीं भूल सकते कि उन्हें तीन बार अविश्वास का सामना करना पड़ा जबकि वे मात्र 19 महीने ही सत्ता में रह पाए. इसके अगले साल 1965 में अप्रैल में कच्छ में लड़ाई हुई, जो उस बड़े ‘एक्शन शो’ का ट्रेलर था, जो उसी साल बाद में 22 दिनों की जंग के रूप में कश्मीर से शुरू होकर पंजाब में खत्म होने वाला था.

1966 के शुरू में ही शास्त्री का निधन हो गया. इस समय तक नगा विद्रोह अपने चरम पर पहुंच चुका था. श्रीमती गांधी को कमजोर नेता के रूप में देखा जा रहा था, और मिज़ो विद्रोह भी शुरू हो गया. दूसरे मसले भी राष्ट्रीय संकट की वजह बने हुए थे. पंजाबी सूबे के आंदोलन में हमेशा से एक उग्रवादी तत्व जुड़ा था. 1966 में एक समझौता हुआ और पंजाब को भाषा के आधार पर बांट दिया गया. लेकिन इससे पहले मास्टर तारा सिंह और संत फतेह सिंह (बाद में दर्शन सिंह फेरुमान) कई बार अनशन और विरोध प्रदर्शन कर चुके थे. यह वह दौर भी था जब द्रविड़ राजनीति में मजबूत अलगाववादी भावना भी शामिल थी. इसकी बेबाक पुष्टि एम. करुणानिधि ने एनडीटीवी पर मेरे ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में दिए इंटरव्यू में की थी. 1967 में आकर इसमें बदलाव हुआ.

यह सब उस दशक में हो रहा था जब कई बार अकाल पड़ा, फसलें नष्ट हो गईं, और कुल मिलाकर आक्रामक अमेरिका से पीएल-480 के तहत अनाज की सहायता लेने की शर्म ढोनी पड़ी और आर्थिक गिरावट से भी जूझना पड़ा था. लेकिन 1967 ने कोई राहत नहीं दी. नाथुला में चीन से बड़ी मुठभेड़ हुई, और अच्छी बात यह हुई कि इस मुक़ाबले में भारतीय सेना उस पर हावी रही. उस साल आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी को भारी नुकसान झेलना पड़ा, जिससे श्रीमती गांधी और कमजोर हुईं तथा राजनीतिक अनिश्चितता बढ़ी.

इसके अगले साल कांग्रेस के लिए संकट गहराने लागा. श्रीमती गांधी ने 1969 में इसे तोड़ दिया, वामपंथ की ओर और ज्यादा झुक गईं और एक तरह से इस दर्दनाक दशक का माकूल समापन किया. इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान के घरेलू सियासी संकट, उसके पूर्वी हिस्से पर अत्याचार ने भारत को एक साल बाद ही एक और युद्ध में उलझा दिया.

घटनाओं से भरे उस दौर को अमेरिकी राजनीतिशास्त्री सेलिग हैरिसन ने अपनी मशहूर (या बदनाम?) किताब ‘इंडिया : द मोस्ट डैंजरस डेकेड्स’ में रेखांकित किया है. 1960 में ही उन्होंने गंभीर भविष्यवाणी की थी कि भारत बाहरी तथा अपकेंद्रीय दबावों को झेल नहीं पाएगा और टूट सकता है. लेकिन उसके बाद छह दशकों से भारत ने न केवल उनको गलत साबित किया है बल्कि हर दशक के साथ और मजबूत होकर उभरता रहा है. 1960 और 1980 के दशकों को भूल जाइए. बेशक, मार्च 1966 में मिजोरम में आई उस रात जैसे कई बदकिस्मत मोड़ भी आए.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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