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सोमवार, 7 जुलाई, 2025
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‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद ओवैसी को राइट विंगर्स ने सराहा, लेकिन सेक्युलर पार्टियों ने क्यों बनाई दूरी

सेक्युलर पार्टियों को लगता है कि ओवैसी का मोदी सरकार का साथ देना—चाहे आतंकवाद के मुद्दे पर ही क्यों न हो—उन्हें मुस्लिम वोटरों से दूर कर सकता है. अब बिहार चुनाव में ओवैसी को यह धारणा गलत साबित करनी होगी.

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असदुद्दीन ओवैसी अपनी सियासत को अच्छे से समझते हैं. 2011-12 में, जब कांग्रेस आंध्र प्रदेश को दो हिस्सों में बांटने पर विचार कर रही थी, तब हैदराबाद के सांसद ओवैसी ने सोनिया गांधी से खुलकर कहा था — “अगर आप तेलंगाना बनाते हैं, तो यहां बीजेपी का प्रभाव बढ़ेगा. ये मेरे लिए अच्छा है, लेकिन आंध्र प्रदेश के लिए नुकसानदायक होगा. मैडम, ऐसा मत करिए.” यह बात मुझे उस नेता ने बताई थी जो इस बातचीत का गवाह था. यह पहला मौका नहीं था जब ओवैसी ने सोनिया गांधी को ऐसा करने से रोका था. मगर कांग्रेस नेताओं ने सोनिया गांधी को मनाकर तेलंगाना राज्य बनाया.

ओवैसी की बात सच साबित हुई. आज तेलंगाना में बीजेपी एक मजबूत ताकत बन चुकी है. राज्य के 17 लोकसभा सांसदों में से 8 बीजेपी के हैं. सोनिया गांधी से उस बातचीत के कुछ महीनों बाद ही AIMIM ने केंद्र की यूपीए सरकार और आंध्र प्रदेश में किरण रेड्डी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस ले लिया. ओवैसी ने इसका कारण बताया था कि सरकार का रवैया ‘सांप्रदायिक’ है—क्योंकि उनके विधायक और पार्षदों को गिरफ्तार कर लिया गया था जब वे चारमीनार के पास स्थित भाग्यलक्ष्मी मंदिर जा रहे थे.

हालांकि, वजह चाहे जो भी बताई गई हो, असल में ओवैसी हालात को भांप चुके थे. उन्हें दिख रहा था कि कांग्रेस का ग्राफ किस दिशा में जा रहा है.

2014 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस ने एक बार फिर AIMIM को अपने साथ लाने की कोशिश की. इसके लिए वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को जिम्मा सौंपा गया, लेकिन ओवैसी ने मन बना लिया था कि अब वे यूपीए का हिस्सा नहीं बनेंगे. वे हैदराबाद के एक होटल में दिग्विजय सिंह से मिलने शिष्टाचारवश पहुंचे भी, मगर बाइक से गए और होटल में हेलमेट पहनकर ही दाखिल हुए, ताकि पहचान में न आएं. ओवैसी से जुड़ी एक सियासी शख्सियत ने बताया कि होटल पहुंचने के बाद भी ओवैसी को दो घंटे इंतज़ार करना पड़ा, क्योंकि दिग्विजय सिंह उस वक्त अपनी होने वाली पत्नी और पत्रकार अमृता राय के साथ होटल के रेस्तरां में खाना खा रहे थे. आखिरकार दिग्विजय सिंह ने ओवैसी से मुलाकात की, लेकिन ओवैसी अपने फैसले पर कायम रहे. असल में, वे सियासी हवा का रुख पहचान चुके थे. शायद वे इसलिए भी कांग्रेस और दूसरी ‘सेक्युलर पार्टियों’ से दूरी बना रहे थे, क्योंकि अब उनकी नज़र आंध्र प्रदेश से बाहर AIMIM के विस्तार पर थी—जो कांग्रेस और दूसरी पार्टियों की कीमत पर ही मुमकिन था.


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अब बदला है रोल

अब साल 2025 आ गया है और हालात पलट गए हैं. अब AIMIM खुद ‘सेक्युलर’ खेमे में जगह पाने के लिए जद्दोजहद कर रही है. AIMIM के बिहार अध्यक्ष और विधायक अख्तरुल ईमान ने राष्ट्रीय जनता दल (RJD) प्रमुख लालू यादव को चिट्ठी लिखी है. उन्होंने मांग की है कि आगामी विधानसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन में AIMIM को शामिल किया जाए, ताकि ‘सेक्युलर’ वोटों का बंटवारा न हो. हालांकि, असदुद्दीन ओवैसी खुद इस पर कुछ नहीं बोले हैं, लेकिन उन्होंने साफ कहा है कि बिहार में अख्तरुल ईमान ही फैसले लेने के लिए अधिकृत हैं.

लेकिन अब ओवैसी के लिए यह मुश्किल घड़ी है. आरजेडी ने AIMIM की ये पेशकश ठुकरा दी है. आरजेडी सांसद मनोज झा ने कहा है कि ओवैसी की पार्टी की असली ताकत हैदराबाद में है. उन्होंने कहा — ‘‘अगर ओवैसी वाकई बीजेपी को हराना चाहते हैं, तो बिहार का चुनाव ही न लड़ें.’’ आरजेडी के कुछ अन्य नेताओं ने तो और भी सख्त बात कही है — उन्होंने AIMIM को ‘बीजेपी की बी टीम’ कहकर निशाना साधा है.

बिहार में मुस्लिम आबादी करीब 17% है और आरजेडी की राजनीति मुस्लिम-यादव वोट बैंक (करीब 32%) पर टिकी हुई है. ऐसे में ओवैसी को नज़रअंदाज करना थोड़ा जल्दबाज़ी भरा लग रहा है. याद दिला दें कि पिछले विधानसभा चुनाव में AIMIM ने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 5 सीटें जीत ली थीं. भले ही बाद में AIMIM के चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गए हों, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ओवैसी की पार्टी खत्म हो गई है—असली वोट तो अब भी ओवैसी ही खींचते हैं.

तो फिर सवाल है—आरजेडी ने AIMIM को ठुकरा क्यों दिया? महागठबंधन के बाकी साथी—कांग्रेस और वाम दल—भी इस मसले पर चुप्पी साधे हुए हैं. ‘सेक्युलर’ खेमे के नेता मानते हैं कि ओवैसी का असर अब कम हो गया है. हाल के चुनावों में AIMIM का प्रदर्शन भी काफी कमजोर रहा है. इन नेताओं का तर्क है कि अब मुस्लिम वोटर फिर से उसी पार्टी या गठबंधन के साथ खड़े हो रहे हैं, जो उनके राज्य में बीजेपी को चुनौती दे रहा है. उन्हें ये भी लगता है कि ओवैसी पर ‘बीजेपी की बी टीम’ का जो ठप्पा उन्होंने लगाया था, वह अब लोगों के मन में बैठ चुका है. पहलगाम आतंकी हमले के बाद ओवैसी का खुलकर मोदी सरकार के समर्थन में बोलना और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर विदेश में मोदी सरकार का पक्ष रखने वाले सांसदों के दल में शामिल होना, इस धारणा को और मजबूत कर गया है—ऐसा कुछ ‘सेक्युलर’ नेताओं का कहना है. यह बात हैरान करने वाली है. काफी लंबे समय तक ‘सेक्युलर’ नेता ओवैसी से दूर रहते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे बीजेपी हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर सकती है. अब जब ‘राइट’ यानी दक्षिणपंथी गुट भी ओवैसी की तारीफ करने लगा है—खासकर पाकिस्तान के आतंकियों के लिए उनके सख्त बोल (“कमीने, कुत्ते, हरामजादे”) और मोदी सरकार की जवाबी कार्रवाई व कूटनीतिक फैसलों के समर्थन के कारण—तब भी ‘सेक्युलर’, यानी बीजेपी विरोधी खेमा उन्हें अपनाने को तैयार क्यों नहीं?

असल में, असदुद्दीन ओवैसी भी उतने ही सेक्युलर हैं, जितने बाकी ‘सेक्युलर’ नेता. फर्क सिर्फ इतना है कि उनका सेक्युलरिज़्म वोटों तक सीमित नहीं है. उन्हें मुसलमानों से जुड़े मुद्दों पर बोलने के बाद मंदिर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. पहलगाम हमले के बाद उनके तीखे शब्दों की चर्चा भले ही ज़्यादा हुई हो, लेकिन इससे पहले भी उन्होंने इस्लामिक स्टेट के आतंकियों को “दोजख के कुत्ते” कहा था. उन्होंने खुद हज सब्सिडी खत्म करने की मांग की थी और कहा था कि ये पैसा मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई पर खर्च होना चाहिए.

क्या आप किसी और ‘सेक्युलर’ नेता को हज सब्सिडी खत्म करने की मांग करते हुए सुनते हैं?


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ओवैसी ने संभाली पूरी कहानी

पहलगाम आतंकी हमले के बाद ओवैसी ने जो किया, वह बेहद सही समय पर और समझदारी भरा कदम था. उन्होंने मुस्लिम समुदाय को बचाने के लिए आगे बढ़कर आवाज़ उठाई, ताकि सांप्रदायिक तत्व पहलगाम आतंकी हमले के बहाने मुसलमानों को बदनाम न कर सकें. बीजेपी भी इस बहाव में बहने लगी थी. याद है छत्तीसगढ़ बीजेपी का सोशल मीडिया पोस्ट—“धर्म पूछा, जाति नहीं…याद रखिए”?

मतलब सांप्रदायिक इशारे शुरू हो चुके थे. ऐसे समय में असदुद्दीन ओवैसी पूरी मुस्लिम कौम की आवाज़ बनकर सामने आए. उन्होंने हमले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिशों को नाकाम कर दिया. साथ ही, ये भी मददगार रहा कि प्रधानमंत्री मोदी और बड़े बीजेपी नेताओं ने भी पीड़ितों के धर्म का ज़िक्र नहीं किया.

अब समझिए कि ओवैसी के लिए कहानी की कमान संभालना इतना ज़रूरी क्यों था. अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने दिलजीत दोसांझ के समर्थन में फेसबुक पोस्ट किया था. दिलजीत पर पाकिस्तान की एक अभिनेत्री को ‘सरदार जी 3’ फिल्म में लेने पर निशाना साधा जा रहा था. शाह ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा — “मैं ‘राष्ट्रवादियों’ और पेड ट्रोल्स के लिए आसान निशाना हूं…क्योंकि मुझे हर बात, यहां तक कि अपने देश के प्रति प्रेम को भी दिखावे में पहनने की ज़रूरत नहीं लगती.”

शायद नसीरुद्दीन शाह को अपनी देशभक्ति का सबूत देने की ज़रूरत नहीं है. मगर आम मुसलमानों के लिए यह हमेशा मुमकिन नहीं होता. ओवैसी ने तय किया कि वे इस बार पूरे समुदाय की आवाज़ बनेंगे. उन्होंने पाकिस्तान से जुड़े आतंकियों के मंसूबों पर पानी फेर दिया और देश के अंदर बैठे सांप्रदायिक ताकतों की उम्मीदों को भी ठंडा कर दिया. यह बहुत समझदारी भरा कदम था. हो सकता है इससे दक्षिणपंथी गुटों के कुछ लोग निराश भी हुए हों, जिन्हें लगा होगा कि सांप्रदायिक माहौल बनाने का मौका हाथ से निकल गया.

असल में, इस वजह से ओवैसी ‘सेक्युलर’ खेमे के लिए और भी अहम नेता बन सकते थे, लेकिन ‘सेक्युलर’ पार्टियां उन्हें अपनाने को तैयार नहीं हैं. वजह ये नहीं कि अब भी उन्हें डर है कि बीजेपी ओवैसी का नाम लेकर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर देगी. असली वजह यह है कि वे इस मौके को इस्तेमाल कर मुस्लिम वोटों के लिए एक बड़े प्रतिद्वंद्वी को हमेशा के लिए खत्म करना चाहते हैं.

उन्हें लगता है कि आतंकवाद जैसे मुद्दे पर भी मोदी सरकार का समर्थन करने से ओवैसी मुसलमानों के बीच अपनी पकड़ खो देंगे. अब यह ओवैसी के ऊपर है कि वे बिहार चुनाव में यह धारणा गलत साबित करें.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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