इस सप्ताह देश में लॉकडाउन में छूट दिए जाने की उम्मीद के साथ यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि पिछले कुछ तकलीफदेह सप्ताहों से बहुत कुछ हासिल हुआ नहीं है, और कोरोनावायरस फिर से अपने पैर फैलाने वाला है. शहरों में शराब की दुकानों को खोलने के बाद जिस तरह लोगों की लंबी-लंबी कतारें लग गईं उससे इस आशंका को बल मिलता है लेकिन संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिहाज से यह आशंका तिल को ताड़ समझने जैसा होगा.
सरकारों, व्यक्तियों और व्यवसायियों के व्यवहार ही अब भारतीय अर्थव्यवस्था का स्वरूप तय करेंगे, और इन्हीं के बूते सुरक्षित गतिविधियों और उनके केंद्रों को मजबूती मिलेगी. सही नीतिगत फ्रेमवर्क का सहारा मिला तो कृषि और ग्रामोद्योग भारत की सबसे बड़ी ताकत बन सकते हैं.
महामारी विज्ञान के मॉडलों ने कई देशों में संक्रमण और मौतों के जितने मामलों के अनुमान लगाए थे उनके मुक़ाबले वास्तविक आंकड़े कम ही रहे हैं. वह भी तब जब कोई वैक्सीन नहीं थी. यह क्या संकेत करता है? अर्थशास्त्री लोग सरकारों और लोगों के व्यवहारों के आधार पर रुझानों की व्याख्या करते हैं और यह आर्थिक विश्लेषण की इस पुरानी मान्यता के अनुकूल है कि एजेंटों को प्रोत्साहन मिलते हैं तो वे सक्रिय होते हैं.
उदाहरण के लिए, जॉन कोशरेन ने आचरण संबंधी एक ‘एसआईआर मॉडल’ प्रस्तुत किया है, जिसके मुताबिक लोगों का आचरण तय करता है कि वे ‘आसानी से संक्रमित होने’ से लेकर ‘संक्रमित’ होने और ‘पुनः स्वस्थ’ होने का चक्र किस तरह पूरा करते हैं. अब तक, व्यापक रूप से दो बदलावों ने वायरस के फैलाव को प्रभावित किया है. एक तो नीतिगत परिवर्तन—कई सरकारों द्वारा लॉकडाउन लागू करना— और दूसरे, व्यक्तियों के आचरण में बदलाव— मास्क का प्रयोग, हाथ धोना, देह की दूरी आदि.
सरकारों के तौर-तरीकों में बदलाव
दुनियाभर में सरकारों ने बड़ी संख्या में मौतों, अस्पतालों पर भारी दबाव के डर के अलावा इस वजह से भी तुरंत कार्रवाई शुरू कर दी कि उन पर निष्क्रियता के आरोप न लगें. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ने लचीला रुख छोड़ते हुए सख्त सरकारी कदम उठाए. कई सरकारों ने वित्तीय पैकेज की घोषणाएं की, मेडिकल सेवाओं को बढ़ाया, घर से बाहर निकलने वालों के लिए दंड तय किए गए. मौतों और संक्रमण के मामलों को काबू किया गया. लेकिन जल्दी ही हर जगह यह साफ हो गया कि सरकार ने चाहे जितने बड़े पैकेज दिए, अर्थव्यवस्था फिर भी तबाह होने वाली ही थी.
सरकारें फिर सक्रिय हुईं. इस बार उन्होंने घटते उत्पादन, तालाबंदी, कारोबार बंद होने, बेरोजगारी, भूख, दूसरे रोगों के कारण मौतों, और लॉकडाउन के कारण लोगों की बढ़ती बेचैनी के खिलाफ कदम उठाए. इस सप्ताह अधिकतर सरकारों ने आबादी के हिसाब से लॉकडाउन में छूट देनी शुरू की, बावजूद इसके कि अभी कोई वैक्सीन नहीं आई है और न सामूहिक प्रतिरोध क्षमता पैदा हुई है. अब नया मंत्र यह है कि वायरस के साथ जीना सीखो.
अर्थव्यवस्था पर और खास तौर से टैक्स से होने वाली आमदनी पर लॉकडाउन के असर को देखते हुए ऐसा लगता है कि सरकारें देशव्यापी सम्पूर्ण लॉकडाउन को आगे बढ़ाने की घोषणा शायद ही करें. आगे की रणनीति टेस्टिंग, संक्रमण के मामलों की खोज, उन्हें अलग-थलग करने, और इलाज पर आधारित होगी. सबको अलग-थलग करने की जगह अब ज़ोर व्यक्तियों, परिवारों, दफ्तरों, इमारतों, और उन बस्तियों को अलग-थलग करने पर दिया जाएगा जिन्हें रोगियों को सीमित करने के लिए बनाया गया है. सरकारें धार्मिक, खेलकूद, राजनीतिक, वैवाहिक आदि आयोजनों के लिए बड़े जमावड़ों पर रोक लगाएंगी.
व्यक्तियों के आचरण में परिवर्तन
लोग भी बीमार न पड़ने के लिए अपने आचरण में परिवर्तन लाएंगे. लॉकडाउन के बाद से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सरकारी तथा सोशल मीडिया सिर्फ कोरोनावायरस की ही बात करते रहे हैं. मानव इतिहास में बेशक यह सबसे बड़ा जागरूकता अभियान रहा है. अब तक, अधिकतर लोग इस संक्रमण के खतरों और वायरस से बचने के उपायों के बारे में जागरूक हो चुके हैं.
इसके अलावा, जब सार्वजनिक जगहों पर न थूकने, मास्क पहनने, खतरे की स्थिति में टेस्ट कराने, दूसरे रोगों से पीड़ित लोगों तथा बुज़ुर्गों को सुरक्षा देने आदि के सामाजिक तौर-तरीकों को लागू किया जाएगा तो वायरस के फैलाव को नियंत्रित किया जा सकेगा. इसके लिए पारदर्शिता, सच्चाई, और विश्वास जैसी चीज़ें बहुत महत्वपूर्ण होंगी.
घनी आबादी वाले शहरों में लोगों का एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखना काफी मुश्किल होगा. 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश के 30 प्रतिशत घरों में 60 साल से अधिक उम्र का औसतन एक व्यक्ति पाया जाता है. फिर भी, पास-पास बैठने के मानव स्वभाव के विपरीत खान-पान में हर व्यक्ति अगर वायरस को रोकने में थोड़ा भी योगदान दे तो काफी फर्क पड़ सकता है.
ग्रामीण भारत के लिए मौका
व्यक्तिगत और सामाजिक आचार-व्यवहार बदलने के साथ अर्थव्यवस्था में भी बदलाव आएगा. अगर अगले डेढ़-दो साल तक कोविड-19 का वैक्सीन दुनिया भर को उपलब्ध नहीं हो पाता, तो सुरक्षित सेक्टरों और स्थानों में व्यवसाय की स्थिति बेहतर हो सकती है, जबकि ज्यादा जोखिम वाले सेक्टरों और स्थानों में कारोबार शुरू तक नहीं हो सकता है.
आज व्यवसाय जगत में जान डालने में नकदी की कमी सबसे बड़ी बाधा है. आज ऋण उपलब्ध होने के बाद भी फिर से लॉकडाउन लागू किए जाने की आशंका, सप्लाई चेन में अड़चनों, कामगारों की कमी, ऊंची लागत, अस्थिर मांगों आदि के कारण घनी आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में कई तरह के व्यवसाय शुरू नहीं किए जा सकते हैं.
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इसके विपरीत ग्रामीण भारत में वायरस के फैलने, और फिर से लॉकडाउन लागू किए जाने का खतरा कम है क्योंकि वहां लोगों के बीच दूरी बनाकर रखने और बाहर कामकाज करने की गुंजाइश ज्यादा है. इसके चलते, मांग और उत्पादन के लिहाज से ध्यान शहरी बाज़ारों से ग्रामीण बाज़ारों की ओर केन्द्रित हो सकता है. मवेशी, मछली पालन, दूध, सब्जी, फल, फूड प्रॉसेसिंग जैसे क्षेत्र ज्यादा रोजगार और ज्यादा लाभ देने वाले हैं. दशकों तक अनुसंधान और विकास (आर-ऐंड-डी) की उपेक्षा, बाज़ार तक पहुंच न होने, निर्यात की ढुलमुल नीति, और बाज़ार की गड़बड़ियों के बाद आज का यह प्रतिकूल दौर ग्रामीण क्षेत्र पर ध्यान देने का माकूल मौका साबित हो सकता है.
जरूरत इस बात की है कि इसे उपयुक्त नीतियों का सहारा दिया जाए; कीमत नीति, टैक्स, बाज़ार तक पहुंच, ऋण व्यवस्था आदि में सुधारों के साथ वेयरहाउस तथा कॉल स्टोरेज जैसे बुनियादी ग्रामीण ढांचे उपलब्ध कराए जाएं.
अगले दो साल जब हम कोरोनावायरस के साथ जीना सीखेंगे, तब हम अर्थव्यवस्था को सुरक्षित और अधिक टिकाऊ उत्पादन एवं उपभोग की दृष्टि से नया स्वरूप प्रदान कर सकते हैं, जिसके लिए कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था एक कमजोरी नहीं, बल्कि ताकत साबित हो सकती है.
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