‘कांग्रेस-मुक्त भारत‘ का नारा भारतीय जनता पार्टी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी और भारत के एकमात्र अन्य राष्ट्रीय दल के खिलाफ चुनाव जीतने के लिए गढ़ा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की बहस में इसका इस्तेमाल किया था. 7 फरवरी 2018 को संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हुए, उन्होंने दावा किया कि दरअसल महात्मा गांधी इस नारे के रचैयता थे क्योंकि राष्ट्रपिता चाहते थे कि कांग्रेस पार्टी को आज़ादी मिलने के बाद भंग कर दिया जाए. वास्तव में, गांधी ने 30 जनवरी 1948 को अपनी हत्या से तीन दिन पूर्व ‘अंतिम इच्छा और वसीयतनामे‘ में इस बारे में लिखा था.
यदि ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ की कल्पना महात्मा गांधी जैसी महान शख्सियत ने की और प्रधानमंत्री मोदी जैसे राजनीतिक दिग्गज ने उसे लोकप्रिय बनाया, तो हमें ‘गांधी-मुक्त कांग्रेस’ के विचार का प्रणेता किसे मानना चाहिए? निस्संदेह इसका श्रेय भारत के प्रमुख इतिहासकारों और राजनीतिक विश्लेषकों में से एक पद्मभूषण रामचंद्र गुहा को जाना चाहिए.
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गुहा गांधी परिवार की बेदखली चाहते हैं
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाली मूल कांग्रेस के समर्थन का दावा करते हुए, 10 दिसंबर को गुहा का एक संपादकीय आलेख प्रकाशित हुआ, जिसका दोटूक शीर्षक था: क्यों गांधियों को अब हट जाना चाहिए. उन्होंने सक्रिय राजनीति से कांग्रेस के प्रथम परिवार के हटने या हटाए जाने का खुलकर आह्वान किया. उनकी दलील थी, ‘अपनी पार्टी और अपने देश के हित में, गांधियों को अब हट जाना चाहिए — न केवल कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से, बल्कि पार्टी से भी. क्योंकि यदि वे टिके रहते हैं, तो वे सत्ता की एक वैकल्पिक धुरी बने रहेंगे, जिससे केवल साज़िश और कलह को ही बढ़ावा मिलेगा.’
गांधी परिवार की गुहा की आलोचना पार्टी पर उसके नियंत्रण के खिलाफ उनकी पूर्व की टिप्पणी के कारण और भी उल्लेखनीय हो जाती है: ‘सोनिया, राहुल और प्रियंका को भले ही लगता हो कि उन्हें कांग्रेस की खातिर राजनीति में बने रहना होगा. लेकिन उन्हें देश की खातिर हट जाना चाहिए.’ हिंदुस्तान टाइम्स में 25 जुलाई को प्रकाशित एक संपादकीय आलेख में उन्होंने पारिवारिक स्वामित्व वाली किसी कंपनी से गांधी परिवार की तुलना करते हुए आगे कहा, ‘जितने अधिक दिनों तक कांग्रेस एक पारिवारिक कंपनी बनी रहेगी, नरेंद्र मोदी के लिए अपनी नीतियों की आलोचना का मुंह मोड़ना उतना ही आसान होगा, और वह न केवल सत्ता पर काबिज रहेंगे, बल्कि राजनीतिक विमर्श पर भी नियंत्रण रखेंगे.’ गुहा के साहस की सराहना की जानी चाहिए. गांधी परिवार की आंतरिक मंडली के साथ-साथ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर काबिज चाटुकारों के विपरीत, गुहा ने बिना लाग-लपेट की अपनी बात कही और ईमानदारी के साथ अपना रुख जाहिर किया.
गुहा उन लोगों से बिल्कुल विपरीत हैं जोकि गांधी परिवार को आलोचना से बचाने की भूमिका निभाते हैं. जैसे जेएनयू स्थित इतिहासकार आदित्य मुखर्जी कहते हैं, ‘यह सोच मूर्खतापूर्ण है कि कांग्रेस के पतल का कारण अकेले राहुल गांधी हैं. समस्या कहीं और है. कांग्रेस पार्टी को सत्ता की पार्टी नहीं बल्कि आंदोलनों की पार्टी बनने की जरूरत है. पुनरुद्धार के लिए, इसे आंदोलन का तरीका अपनाना चाहिए.’ वह ‘आंदोलनकारी शैली,’ ‘उद्देश्य के लिए बलिदान,’ ‘हिंदुत्व की राजनीति,’ ‘जाति और संप्रदाय की राजनीति’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते हुए ईमानदार आत्मनिरीक्षण या आलोचना के खिलाफ कांग्रेस के सत्तारूढ़ परिवार का बचाव करने की कोशिश करते हैं.
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कहां जाए गांधी परिवार?
अब जबकि कांग्रेस के 23 प्रमुख असंतुष्टों के गुट ने खुलकर विद्रोह कर दिया है, पार्टी लोकतंत्र के जिन्न को कांग्रेस की बोतल में वापस डालना संभव नहीं है. इस गुट द्वारा अगस्त में पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखे जाने के बाद से पार्टी के कामकाज और चुनाव का मुद्दा गरमाता रहा है, भले ही इसमें उबाल नहीं आने दिया गया हो. सच्चाई यही है कि दिसंबर 2017 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) के 87वां अध्यक्ष चुने गए राहुल गांधी को एक निर्णायक या पूरी तरह से प्रतिबद्ध नेता के रूप में नहीं देखा जाता है. बहुतों की नज़र में खुद उनका चुनाव भी एक तमाशा था. उत्तराधिकारी चुने गए राहुल के पास अधिकार और समर्थन तो पूरा था, लेकिन जिम्मेदारी या जवाबदेही बिल्कुल नहीं. आम चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद यह साबित करने के लिए कि उन्हें विशेषाधिकार वाले पद से चिपके रहने में कोई दिलचस्पी नहीं है, उन्होंने मई 2019 में इस्तीफा दे दिया था.
कांग्रेस ने करीब एक हज़ार एआईसीसी प्रतिनिधियों, जो नए अध्यक्ष का चुनाव करेंगे, की सूची घोषित कर अपने आंतरिक चुनाव की प्रक्रिया शुरू कर दी है, लेकिन असंतुष्ट गुट चाहता है कि अतिशक्तिशाली कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) का भी पुनर्गठन हो. पत्रकार रशीद किदवई के अनुसार, ‘अतीत के अच्छे दिनों में भी कांग्रेस का दलगत चुनावों, असंतोष और बगावत का इतिहास रहा है, जैसे सुभाषचंद्र बोस की जीत पर महात्मा गांधी की निराशा, और जवाहरलाल नेहरू का पीडी टंडन को ठिकाने लगाना. लेकिन क्या अस्तित्व के संकट का सामना कर रही लड़खड़ाती कांग्रेस आंतरिक शक्तिपरीक्षण को झेल सकती है? स्वर्गीय सीताराम केसरी कहा करते थे, ‘बिना विध्वंस के निर्माण कैसे होगा?’
लेकिन यहीं पर एक समस्या है. जायें तो जायें कहां? यदि गांधी परिवार हटना चाहे भी तो वह जाएगा कहां? किसी पारिवारिक कंपनी के विपरीत, जिसे किसी प्रतिस्पर्धी कंपनी या अंतरराष्ट्रीय खरीदार को बेचा जा सकता है, गांधी परिवार के लिए कांग्रेस या देश की राजनीति से अचानक हट जाना संभव नहीं है. सोनिया गांधी और उनके दोनों बच्चे राहुल और प्रियंका, उत्साही नहीं बल्कि अनिच्छुक नेता रहे हैं. यहां तक कि राजीव गांधी ने भी अपनी मां या नाना की विरासत को संभालने में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, और जीवन के आखिरी दशक तक वह एयरलाइन पायलट के अपने पेशे से संतुष्ट थे.
सत्ता शीर्ष से पूर्ण विदाई की बजाय अधिक संभावना इस बात की है कि कोई बीच का रास्ता निकाला जाएगा या उनके अधिकारों का क्रमिक हस्तांतरण किया जाएगा. आगे का रास्ता जो भी हो, ये तो निश्चित है कि बदलाव की हवा चल पड़ी है. भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी आत्मविनाश का विकल्प नहीं अपना सकती. कांग्रेस के पास अभी भी अनुभवी और सक्रिय नेताओं की कमी नहीं है, जिनकी सामूहिक बुद्धिमता पार्टी को मरणासन्न या शिथिलता की मौजूदा अवस्था से बाहर लाने में सक्षम होनी चाहिए. किसी भी जीवंत और क्रियाशील लोकतंत्र में एक मजबूत और सक्षम विपक्ष की आवश्यकता के मद्देनज़र, गांधी परिवार को इस बात से आंका जाएगा कि ज़रूरत पड़ने पर दोबारा ज़िम्मेदारी संभालने के लिए तत्पर रहते हुए, पार्टी पर अपनी वंशानुगत पकड़ खत्म करने में वह कितना सहयोग करता है.
(लेखक शिमला स्थित भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में प्रोफेसर और निदेशक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @makrandparanspe है. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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