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Wednesday, 11 December, 2024
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चाहा था कांग्रेस-मुक्त भारत; मिल गया: कांग्रेस-युक्त गुजरात

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भाजपा की दो स्पष्ट विजय के बावजूद राजनीति का वह क्षेत्र खुल गया है, जो 2019 तक सीलबंद लगता था.

भारतीय जनता पार्टी यदि हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनावी मिशन को सफल बताकर जबर्दस्त जश्न शुरू कर देती तो यह बिल्कुल उचित ही होता, क्योंकि जीत एकदम स्पष्ट है। फिर इसकी प्रतिक्रिया दबी हुई क्यों है? सोमवार को अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में हमेशा की जीत के बाद वाली मुस्कान बिखेरने की बजाय भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की भौहें तनी थीं और कांग्रेस पार्टी से कुछ शिकायतें थीं : कैसे इसने गुजरात के कैम्पेन का मजा ‘किरकिरा’ कर दिया।

ऐसा 2014 की गर्मियों में आम चुनाव की जीत के बाद से पहली बार हुआ है। तब से लेकर कांग्रेस से कोई भी स्पर्धा (उल्लेखनीय रूप से हरियाणा, महाराष्ट्र और उत्तराखंड) भाजपा के लिए बहुत आसान रही। जहां कांग्रेस ने थोड़ा अच्छा प्रदर्शन किया भी तो प्रदर्शन बहुमत के लिए कम पड़ गया जैसे गोवा और मणिपुर में। भाजपा ने मलाई बांटकर आराम से अपनी सरकार बना ली। अब तक कांग्रेस पर मतदान बाद की टिप्पणियों में पार्टी के ‘युवराज’ के लिए सिर्फ तानें, मजाक उड़ाती दया और खिल्ली ही होती थी। उनमें कोई गंभीरता नहीं होती थी।

हिमाचल में कांग्रेस की धुलाई हुई और गुजरात में लगातार छठा चुनाव हार गई। फिर भी इसने सर्वशक्तिमान राष्ट्रीय सत्तारूढ़ पार्टी को शिकायत का कारण दिया है। इसी वजह से यह चुनाव अलग रहा। यहां तीन बातें निर्णायक हैं : स्थान, समय और सामाजिक समीकरण, इसी क्रम में।

स्थान, क्योंकि गुजरात नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की कर्मभूमि है। दोनों को खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वहां अवतार जैसा दर्जा है और जिस तरह से उनमें भय पैदा हो गया था, वह बदलाव था। इसने गुजरात और शेष देश के लोगों को दिखा दिया कि प्रधानमंत्री को उनके राज्य में चुनौती दी जा सकती है। जब तक यह चुनाव अभियान चरम पर नहीं पहुंचा था, उनकी पार्टी में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि मोदी के प्रधानमंत्री रहते उनके राज्य में हुए चुनाव में आंकड़े नीचे गिर जाएंगे। ऐसी चुनौती खड़ी हो जाएगी कि दोनों शीर्ष नेता पूरा जोर लगाने पर मजबूर होंगे।

भारतीय राजनीति में मोदी की अनूठी स्थिति है। वे पहले ऐसे प्रादेशिक नेता हैं जो केंद्र की सत्ता में शीर्ष पर पहुंचे और वह भी अपनी क्षमता के बल पर। किसी भी तरह टिकाऊ सिद्ध हुए प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा, मोरारजी देसाई, राजीव गांधी, नरसिंह राव या वाजपेयी में से कोई भी किसी प्रदेश का प्रतिनिधित्व नहीं करता था। मोदी गुजरात से उठे, जो एक मध्यम आकार का राज्य है। उत्तर प्रदेश का एक-तिहाई और पड़ोसी महाराष्ट्र के आधे से थोड़ा अधिक। जब वे लौटकर गुजरातियों के पास जाते हैं और भावनात्मक आह्वान करते हैं तो आप इतनी निकट की, ऐसी कड़ी स्पर्धा का अनुमान नहीं लगाते, लेकिन यही हुआ। टाइमिंग यानी समय महत्वपू्र्ण है, क्योंकि यह नतीजा कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की नियुक्ति के साथ आया है। वह नियुक्ति जिसमें इतनी देर हुई कि यह मजाक बन गई थी। इससे जिम्मेदारी लेने से झिझक और उदासीनता की राहुल गांधी की ख्याति की ही पुष्टि हो रही थी। लेकिन, इस बार उन्होंने कर दिखाया और अपनी पार्टी के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण राज्य के चुनाव अभियान में वक्त, ऊर्जा और पूरा फोकस लगाया, जहां दो ध्रुवीय राजनीति में भाजपा से सामना था। वे वहां से जीत न सही, अच्छा स्कोर कार्ड लेकर लौटे हैं। भाजपा- और लोकप्रिय धारणा- के हिसाब से राहुल अब एक शाश्वत मजाक से रूपांतरित होकर प्रबल चुनौती बन गए हैं। राहुल ने अपने लिए वह जमीन तैयार कर ली है, जिस पर वे इमारत बना सकते हैं।

और सामाजिक गणित, क्योंकि भाजपा के लिए हमेशा यह चुनौती होती है कि जाति जो विभाजित कर दे उसे धर्म (हिंदुत्व) से फिर एकजुट करना। लालकृष्ण आडवाणी ने नब्बे के दशक में इसे हासिल करने के लिए मंदिर मुद्‌दे का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया। नरेन्द्र मोदी बहुसंख्यकों की आस्था के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद को पुनर्परिभाषित करके यही कर रहे हैं। बहुसंख्यक राष्ट्रवाद ने उन्हें इसी साल उत्तर प्रदेश में एकतरफा जीत पाने में उनकी मदद की, जहां कई हिंदू समूहों ने अपनी स्थानीय जातिगत वफादारी को दरकिनार कर भाजपा को वोट दिया। धर्म ने फिर हिंदू वोट को एकजुट किया, जिसे जाति ने विभाजित कर रखा था। हमेशा से जाति में विभाजित उत्तर प्रदेश एकजुट होकर भाजपा के पक्ष में आया।

कांग्रेस ने पटेल, ओबीसी और दलित नेताओं के साथ जाति की जो नई शृंखला तैयार की उसने उस राज्य में भाजपा की उक्त रणनीति को चुनौती दी, जिसे मोदी-शाह अपना सबसे सुरक्षित राज्य समझते थे। वे शिकायत कर रहे हैं कि कांग्रेस ने तीन जातियों के युवा नेताओं को साथ में लेकर जाति की राजनीति की लेकिन, तथ्य यह है कि गुजरात (खाम यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम के इतिहास के साथ) के पुराने चलन पर लौट आने का खतरा पैदा हो गया है। दूसरे शब्दों में जाति से फिर वह विभाजित होने का खतरा पैदा हो गया है, जिसे हिंदुत्व ने 25 साल तक एकजुट करके रखा। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी की दो स्पष्ट विजयों के बाद भी यह इतना परिवर्तनकारी चुनाव है। इसने वह राजनीतिक क्षेत्र खोल दिया है, जो सोमवार तक 2019 की गर्मियों तक सीलबंद समझा जाता था। यही माना जाता था कि अगले आम चुनाव में भी नरेन्द्र मोदी यानी भाजपा की जीत तय है। अब संभावनाएं पूरी तरह खुल गई हैं।

या इसे इस तरह भी देख सकते हैं। 2014 के आम चुनाव में विपक्ष के सफाए के बाद भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत बनाने का संकल्प लिया था। वह उस रास्ते पर चल भी पड़ी थी। चुनाव दर चुनाव एक के बाद एक राज्य इसकी झोली में आते जा रहे थे। लेकिन, सोमवार सुबह के परिमाणों के बाद, एक नए दौर की शुरुआत हो गई है, जिसे कांग्रेस युक्त गुजरात कहा जा सकता है। सत्ता में आपके चौथे साल में वास्तव में प्रदेश का चुनाव पराजित हुए बिना यह आपकी पटकथा में आमूल बदलाव है।

शेखर गुप्ता दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ हैं.

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