नई दिल्ली और बीजिंग ने जब लद्दाख में अपनी सेनाओं को परस्पर सुरक्षित दूरी पर पीछे हटाने के बारे में एक जैसी घोषणाएं की हैं तो ऐसे में ये कहावत भारत और चीन दोनों पर समान रूप से लागू होती है कि एक अच्छा जनरल जानता है कि उसे कब पीछे हटना है. अभी इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई है कि दोनों सेनाएं संघर्ष से पहले वाली स्थिति में वापस चली गई हैं या नहीं. ऐसा लगता है कि सेनाओं को पीछे हटाने पर सहमति और उसका कार्यान्वयन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच बातचीत के परिणामस्वरूप संभव हो पाया है.
जो लोग लद्दाख गतिरोध और बाद की घटनाओं में भारत के मज़बूत पक्ष पर संदेह खड़ा कर रहे हैं उन्हें थोड़ा आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या वे वास्तव में देश और उसकी रक्षा के हित में काम कर रहे हैं. मौजूदा स्थिति में आक्रामक चीन से निपटने के लिए भारत के पास कई विकल्प हैं जिनमें से कइयों को अभी ढंग से आजमाया भी नहीं गया है.
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चीन की आर्थिक वृद्धि पर चोट
ऐसा लगता है कि चीन को मुख्य शिकायत अमेरिका, जिससे कि उसका व्यापार युद्ध चल रहा है, की तरफ भारत के कथित झुकाव से है, और इसमें कोरोनावायरस के कारण शुरू उसके आर्थिक संकट की भी भूमिका है. भारत ने अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध में एक कठिन संतुलन बनाते हुए चीन के साथ सामान्य व्यावसायिक संबंधों को बनाए रखा. लेकिन लद्दाख में चीनी गीदड़ भभकियों का बराबर की सैन्य ताकत और आर्थिक प्रतिशोध के साथ सामना करना ज़रूरी था.
अभी तक चीन को अपनी हिट-एंड-रन नीति जारी रखने और अपने प्रतिनिधियों के सहारे क्षेत्र में शांति और प्रगति की भारत की पहलकदमियों को बाधित करने का परिणाम नहीं भुगतना पड़ता था. अब चीन-विरोधी भावना के माहौल में प्रधानमंत्री मोदी ने आत्मनिर्भर भारत और भारतीय विनिर्माण सेक्टर के व्यापक पुनरोत्थान पर केंद्रित 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा की है.
चीनी आयातों पर पूर्णतया रोक और चीन के प्रतिकूल बाज़ार के सहारे भारत ये सुनिश्चित कर सकता है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के शताब्दी वर्ष में बीजिंग आर्थिक वृद्धि का अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए.
हांगकांग में दमन के खिलाफ आवाज़ उठाना
भारत ने जिस एक अन्य विकल्प को अभी तक पूरी तरह नहीं अपनाया है वो है चीन-विरोधी गठबंधन में विभिन्न स्तरों पर भागीदारी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य के रूप में भारत ने अभी तक अपना दांव नहीं खेला है.
हांगकांग में चीन की मनमानी और दमनकारी कार्यों के खिलाफ तैयार हो रहे विश्व जनमत के माहौल में वहां मानवाधिकार हनन को लेकर चीन के खिलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए शर्मिंदगी का कारण बन सकता है.
प्रस्ताव में कोरोनावायरस की उत्पत्ति संबंधी सूचना छुपाने के लिए चीन की जांच की मांग को भी शामिल कर जिनपिंग की बढ़ती घरेलू समस्याओं को बढ़ाया जा सकता है. आम धारणा के विपरीत ऐसी रिपोर्टें सामने आ रही हैं कि सरकार के कोविड-19 से निपटने के तरीके को लेकर चीनी जनता में नाराज़गी है.
इसके अलावा सीसीपी के पुराने नेताओं के प्रति केंद्रीय नेतृत्व के व्यवहार को लेकर भी विरोध बढ़ रहा है. साथ ही नौकरियां छिनने और आर्थिक संकट के मुद्दे पर पार्टी के स्थानीय नेताओं और अधिकारियों को उत्तरोत्तर विरोध का सामना करना पड़ रहा है. ऐसा अनुमान है कि हाल के महीनों में चीन में 6 से 10 करोड़ लोगों के रोज़गार छिन गए हैं.
तिब्बत को लेकर तनाव
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने चीन के उन अधिकारियों पर वीज़ा पाबंदियों की घोषणा की है जो कि उनके अनुसार, तिब्बत में विदेशियों की पहुंच के खिलाफ प्रतिबंधों के लिए जिम्मेवार हैं. अमेरिका का कहना है कि जहां चीनी अधिकारियों को अमेरिका में सभी जगह बेरोकटोक जाने की छूट है, वहीं चीन अभी भी अमेरिकी राजनयिकों, पर्यटकों, पत्रकारों और शिक्षाविदों के तिब्बत जाने पर पाबंदियां लगाता है. पोम्पियो के इस महत्वपूर्ण बयान में ‘तिब्बतियों की सार्थक स्वायत्तता’ को अमेरिकी समर्थन की प्रतिबद्धता की बात भी दोहराई गई है. दलाई लामा सार्थक स्वायत्तता की बात करते रहे हैं लेकिन चीन ने उन्हें अलगाववादी करार दिया है. अमेरिकी वीज़ा पाबंदियों पर अपनी प्रतिक्रिया में चीन ने भी जवाबी कार्रवाई करने की चेतावनी दी है.
तिब्बत को अधिक राजनीतिक आज़ादी और धार्मिक स्वतंत्रता के साथ स्वायत्तता देकर भी वहां बुनियादी ढांचे का विकास और आर्थिक प्रगति संभव है. अभी तक तक निर्वासित तिब्बती नेतृत्व तिब्बत में चीनी अत्याचारों के खिलाफ हिंसक प्रतिक्रिया को रोकने में कामयाब रहा है लेकिन कभी न कभी दुनिया भर में फैले तिब्बती समुदाय के बीच एक नया नेतृत्व उभरेगा. यदि उन्होंने चीन विरोधी वैश्विक गठबंधन से हाथ मिला लिया तो क्षेत्र की शांति और प्रगति पर उसका प्रभाव घातक हो सकता है.
समुद्र में संघर्ष की आशंका
अमेरिका और चीन के बीच गहराते शीतयुद्ध के बीच ऐसी भी खबरें हैं कि अमेरिकी नौसेना हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ा रही है और अपने ठिकानों को सुदृढ़ कर रही है. हाल ही में अमेरिकी नौसेना ने प्रशांत महासागर में जापान और हवाई के बीच चीनी ‘नाइन डैश लाइन’ के पास वेक आइलैंड स्थित अपने द्वितीय विश्व युद्धकालीन नौसैनिक अड्डे को समुन्नत बनाने का काम किया है.
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बताया जाता है कि यह टापू चीन और उत्तर कोरिया की मध्यम दूरी की मिसाइलों के दायरे में नहीं आता है. हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में भारत सामरिक दृष्टि से मज़बूत स्थिति में है, जो कि आम वस्तुओं और तेल के चीनी व्यापार के लिए सबसे पसंदीदा और व्यवहार्य समुद्री मार्ग है. भारत के लिए बस अंडमान और निकोबार में अपनी नौसैनिक क्षमताओं को बढ़ाने की ज़रूरत है, और हम मलक्का जलडमरूमध्य के संकरे क्षेत्र को अवरुद्ध करने की स्थिति में होंगे.
मोदी सरकार से पारदर्शिता तथा उभरती परिस्थितियों एवं खतरों की धारणाओं के बारे में जनता को सारी जानकारी उपलब्ध कराने की अपेक्षा को समझा जा सकता है लेकिन चीन के खिलाफ हरेक कदम की जानकारी को सार्वजनिक करने के लिए सरकार पर दबाव डालने को सुरक्षा और रणनीति मानकों के अनुरूप सही नहीं ठहराया जा सकता है.
फिर भी, इस सुझाव से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि मोदी सरकार के लिए ये उचित होगा कि वह जमीनी हकीकत से लोगों को अवगत कराए और उन्हें किसी भी संभावित स्थिति का सामना करने के लिए अधिकतम तैयारियों के बारे में आश्वस्त करे.
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(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)