क्या न्यायपालिका भी न्याय प्रदान करने या विवादों का समाधान करने की प्रक्रिया के दौरान संविधान में प्रदत्त अधिकारों की लक्ष्मण रेखा लांघ रही है. यह सवाल हाल की दो घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में जेहन में उठा है.
पहली घटना तो अधिकरण सुधार कानून, 2021 के संदर्भ में अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल की यह टिप्पणी कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों के माध्यम से सरकार के ‘नीतिगत फैसलों के अधिकार का अतिक्रमण किया है और उसे संविधान में प्रदत्त अधिकारों के बंटवारे को ध्यान में रखना चाहिए.
दूसरी घटना हाल ही में संपन्न मुख्यमंत्रियों और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में प्रधान न्यायाधीश एन रमण की यह टिप्पणी कि न्यायाधीशों को फैसला सुनाते समय लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना चाहिए. उन्होंने कहा कि अगर शासन कानून सम्मत है तो न्यायपालिका को कभी भी उसके रास्ते में नहीं आना चाहिए.
वैसे यह सच्चाई है कि देश की सुप्रीम कोर्ट ने सदैव अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखा है और कई बार याचिकाओं को खारिज करते हुए भी कहा है कि न्यायालय अपनी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ सकता.
प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण ने इस सम्मेलन में भी कार्यपालिका और नौकरशाही के रवैये का जिक्र करते हुए सरकार को आगाह किया था कि जानबूझ कर अदालतों के आदेशों पर कार्रवाई नहीं करना लोकतंत्र के हित में नहीं है क्योंकि इस वजह से न्यायालय की अवमानना के मामलों की संख्या बढ़ रही है.
जुलाई में की जायेगी सुनवाई
इस बार, लक्ष्मण रेखा का सवाल सुप्रीम कोर्ट में एक अपीली अधिकरण में नियुक्त छह सदस्यों के कार्यकाल के खिलाफ मद्रास बार एसोसिएशन प्रकरण में दाखिल कुछ आवेदनों पर सुनवाई के दौरान अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल की दलील से मन में उठा.
न्यायमूर्ति डॉ धनन्जय वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष सुनवाई के दौरान जब अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसले उसके न्यायिक दायरे से बाहर चले गए हैं. उनका कहना था कि कतिपय मामले को नीतिगत निर्णय बताने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट उनमे आगे बढ़ गई. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट नीतिगत मामलों में फैसले ही नहीं सुना रही है बल्कि विधायिका से कह रही है कि उसे इस तरह से ऐसे कानून पारित करने चाहिए.
न्यायालय ने इस तथ्य पर आश्चर्य व्यक्त किया कि जब अधिकरण सुधार ( सुव्यवस्थीकरण और सेवाशर्त अध्यादेश के कतिपय प्रावधान को निरस्त कर दिया गया था तो एक अलग कानून के माध्यम से वैसे ही प्रावधान को कैसे पुनर्जीवित किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने 14 जुलाई 2021 को इस अध्यादेश के कतिपय प्रावधान निरस्त कर दिये थे लेकिन इसके कुछ सप्ताह बाद ही संसद से पारित अधिकरण सुधार कानून में कार्यकाल संबंधी उन प्रावधानों को जस का तस शामिल किया गया था. पीठ ने कहा कि अधिकरण सुधार कानून, 2021 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं पर अंतिम रूप से जुलाई में सुनवाई की जायेगी.
वैसे यह पहला अवसर नहीं है जब केंद्र ने न्यायालय में ऐसा रुख अपनाया है. इससे पहले भी कई मामलों में सुनवाई के दौरान यह तर्क दिया जाता रहा है कि न्यायपालिका न्याय के नाम पर अपनी सीमा लांघ रही है.
बहुचर्चित टू जी स्पेक्ट्रम आबंटन मामले की जांच की निगरानी का विरोध करते हुए भी केंद्र ने सितंबर, 2011 में कहा था कि न्यायालय को अपनी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए और उसे कानून के अनुसार ही काम करना चाहिए. हालांकि इस मामले में सीबीआई की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता (अब अटॉर्नी जनरल) के के वेणुगोपाल ने न्यायालय से जांच की निगरानी करते रहने का अनुरोध किया था.
वही, केंद्र कानून मंत्री किरण रिजिजू ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि कार्यपालिका और न्यायपालिका समेत किसी को भी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघनी चाहिए.
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‘लक्ष्मण रेखा का उद्देश्य सीमित है’
इस मामले में न्यायमूर्ति जी एस सिंघवी के साथ पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति ए के गांगुली ने तो इसके जवाब में टिप्पणी की थी कि अगर सीता ने लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होती तो रावण का वध नहीं होता. उनका कहना था कि यह लक्ष्मण रेखा पवित्र नहीं है, लक्ष्मण रेखा का उद्देश्य सीमित है.
संसद में लगातार सदस्यों के हंगामे को रोकने के लिए दिशा निर्देश बनाने के अनुरोध के साथ दायर फाउंडेशन फॉर रेस्टोरेशन ऑफ़ नेशनल वैल्यूज की जनहित याचिका खारिज करते हुए सितंबर, 2015 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एच एल दत्तू की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा था कि ऐसा करने का मतलब अपनी लक्ष्मण रेखा लांघना होगा और हम अपनी लक्ष्मण रेखा नहीं लांघ सकते.
अगस्त, 2018 में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन ने भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक के लिए हस्तक्षेप का बार बार अनुरोध कर रहे वकीलों को कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में अधिकारों के बंटवारे की अवधारणा का हवाला दिया था और कहा था कि उन्हें उसकी (न्यायपालिका की) लक्ष्मण रेखा की याद दिलाई थी.
उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था बदलने के उद्देश्य से बनाया गया राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून और इससे संबंधित संविधान संशोधन कानून निरस्त करने के संविधान पीठ के अक्टूबर, 2015 के फैसले और आरक्षण तथा भ्रष्टाचार को देश के विकास की सबसे बड़ी बाधा बताने संबंधी गुजरात हाई कोर्ट की टिप्पणी भी संसद सदस्यों के गलत नहीं उतरी थी.
इसके बाद, न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए चयन संबंधी प्रक्रिया के ज्ञापन को लेकर भी लंबे समय तक न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव जैसी स्थिति बनी रह थी. न्यायाधीशों की नियुक्ति के विलंब को लेकर एक अवसर पर तो सुप्रीम कोर्ट ने कार्यपालिका से सवाल किया था कि क्या वह न्यायपालिका को बंद करना चाहती है.
इन दोनों मामलों में ही जहां फिर से संविधान संशोधन विधेयक लाने और आरक्षण के बारे में न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाने तक की मांग उठी थी.
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यही नहीं, इसी दौरान संसद की स्थाई समिति ने 2015 में सदन में पेश अपनी रिपोर्ट में न्यायिक सक्रियता और जांच की उच्चतर न्यायालय द्वारा निगरानी की आलोचना की थी. समिति का मत था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 और 173 के प्रावधानों को दरकिनार करते हुए भ्रष्टाचार निरोधक कानून से संबंधित मामलों में सीबीआई को जांच का निर्देश देकर उनकी जांच की प्रगति रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में तलब कर रहे है.
संसदीय समिति ने हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा आपराधिक मामलों की जांच की निगरानी करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर भी आपत्ति की थी.
हमें ध्यान रखना होगा कि संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के तहत जनहित याचिका दायर करने की व्यवस्था विकसित होने के बाद से अनेक गैर सरकारी संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता जनता के मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने वाले कानूनों, परियोजनाओं तथा कार्यपालिका के कार्यो पर पैनी नजर रखते हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि कई बार पीआईएल की व्यवस्था का उपयोग निजी हित साधने के लिए भी होता है और इसका अहसास होने पर न्यायपालिका ने ऐसे मामलों में सख्त रुख अपनाया है और पीआईएल याचिका दाखिल करने वालों पर भारी अर्थदंड भी लगाया था.
प्रधान न्यायाधीश एन वी रमण ने भी हाल ही में मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में जनहित याचिका की व्यवस्था के दुरुपयोग पर टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि जनहित याचिकाओं का इस्तेमाल राजनीतिक हिसाब चुकता करने, परियोजनाओं में बाधा डालने और लोक प्राधिकारियों पर दबाव डालने के लिए भी हो रहा है.
लेकिन, यह भी सत्य है कि कार्यपालिका और नौकरशाही जनहित से संबंधित महत्वपूर्ण मामलों में न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बगैर हरकत में ही नहीं आती है. इसका ज्वलंत उदाहरण कोविड महामारी के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन रे : प्रोब्लेम्स एंड मिसेरिएस ऑफ़ माइग्रेंट लबोरेर्स में केन्द्र और राज्य सरकारों को इन कामगारों के लिये खाने पीने और ठहरने के साथ ही उनके सकुशल अपने अपने गृह नगर पहुंचने की ट्रेन से व्यवस्था करने संबंधी निर्देश थे.
इसी तरह, 2021 में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान ऑक्सीजन और वैक्सीन सहित जीवन रक्षक दवाओं की कमी के संकट के दौरान न्यायालय ने केन्द्र सरकार को आड़े हाथ लिया था.
कोविड महामारी के दौरान टीकाकरण के मामले में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में कहा था कि इस मामले में किसी भी तरह का अतिउत्साही न्यायिक हस्तक्षेप के अनपेक्षित परिणाम भी हो सकते हैं.
केन्द्र ने कोरोना से संबंधित टीकाकरण नीति को न्यायोचित ठहराते हुए कहा था कि उसकी रणनीति विशेषज्ञ चिकित्सीय और वैज्ञानिक राय पर आधारित है और इसमें न्यायिक हस्तक्षेप की गुंजाइश बेहद कम है.
कई बार ऐसा लगता है कि न्यायालय में असहज स्थिति में पड़ने पर सरकार की ओर से लक्ष्मण रेखा नहीं लांघने जैसी बातें उछाली जाती हैं. होना तो यह चाहिए न्यायपालिका के फैसलों की अनदेखी करने की बजाये उनमें दिये गए सुझावों पर ईमानदारी से अमल किया जाए लेकिन कई बार सरकार का रुख इसके विपरीत होता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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