हत्या की ये गुत्थी चंद मिनटों में सुलझा ली गई, वो भी एक पुराने चित-परिचित तरीके से. बात गर्मियों की एक दोपहर की है. फौजदार मुहम्मद शेख और पांच अन्य पुलिस अधिकारी गुन्नू कुन्बी नामक एक आरोपी को घसीटकर एक गोशाला में ले गए, और उसका मुंह कीचड़ में घुसाकर एक छतरी तब तक उसके पिछवाड़े में चुभोते रहे, जब तक उसने अपराध कबूल नहीं कर लिया.
इसके बाद, गुन्नू को उस कुएं के पास ले जाया गया, जहां उसकी पांच साल की भतीजी का शव रखा था और वहां जुटे ग्रामीणों के सामने उससे उसका गुनाह कबूल करवाया गया. दो दिन बाद, 13 अगस्त 1854 को गुन्नू ने नासिक की एक पुलिस सेल में दम तोड़ दिया. आंतों से अत्यधिक रक्तस्राव उसकी मौत का कारण बना.
यह घटना पुलिस का ‘आलसीपन’ दर्शाती है, जैसा एक शाही सिविल सेवक ने बाद में जज और दार्शनिक जेम्स फिट्जपैट्रिक स्टीफन के सामने दी अपनी दलील में कहा था. ‘छांव में बैठकर किसी लाचार संदिग्ध की आंखों में लाल मिर्च रगड़कर जुर्म कबूल करवाना, सबूतों की तलाश में धूप में भटकने से कहीं बेहतर है.’
जज मैलकम लेविन की मानें तो, बिच्छुओं से भरा नारियल का को संदिग्ध की नाभी पर बांधना, मलद्वार में मिर्च डालना, अंडकोष मसलना, लोहे के गर्म चिमटे से खाल खींचना, अधमरा होने तक कुएं के पानी में डुबोना, ईस्ट इंडिया कंपनी की पुलिस गुनाह कबूलवाने के लिए नए-नए तरीके आजमाने से नहीं हिचकिचाती थी.
पिछले हफ्ते, कॉल सेंटर कर्मी श्रद्धा वालकर की हत्या को लेकर बढ़ते जन आक्रोश के बीच दिल्ली पुलिस ने अदालत से उसके पूर्व बॉयफ्रेंड और कथित हत्यारे आफताब पूनावाला का नार्को एनालिसिस कराने की अनुमति हासिल कर ली. नार्को टेस्ट के तहत संदिग्ध को नसों के जरिये एक दवा दी जाती है, जिसे ‘ट्रुथ सीरम’ भी कहते हैं, ताकि अर्धचेतन अवस्था में उसके मुंह से सच उगवाया जा सके.
सुप्रीम कोर्ट भले ही स्पष्ट तौर पर कह चुका है कि नार्को एनालिसिस के तहत दर्ज बयान को सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और इस प्रक्रिया को आजमाने से पहले संदिग्ध की लिखित स्वीकृति लेना अनिवार्य है, बावजूद इसके भारत में पुलिस बलों का इस पर अटूट भरोसा कायम है. उन्हें लगता है कि जांचकर्ताओं को जब कोई रास्ता नजर न आए तो यह टेस्ट मामले की तह तक पहुंचाने में मददगार साबित हो सकता है.
इससे पूर्व, मुंबई की एक कोर्ट ने लापता एमबीबीएस छात्रा सदिच्छा साने से जुड़े मामले में एक संदिग्ध का नार्को टेस्ट करने का आदेश दिया था. उत्तर प्रदेश सरकार ने भी 2020 के हाथरस दुष्कर्म एवं हत्या मामले में पीड़िता के परिवार का नार्को एनालिसिस कराने की मांग की थी.
हालांकि, विज्ञान और अनुभव, दोनों ने ही दशकों से कुछ और ही बयां करते आए हैं. मनोचिकित्सक जॉन मैकडोनाल्ड ने 1956 में आगाह किया था, ‘एक अस्पताल में किसी डॉक्टर का नसों के रास्ते दवा चढ़ाना शराबखाने में बड़ी मात्रा में खराब पिलाने से अधिक वैज्ञानिक प्रतीत हो सकता है, लेकिन इसके बाद संदिग्ध की बातों से मिलने वाले साक्ष्य भरोसेमंद हों, यह जरूरी नहीं.’
शारीरिक और मानसिक यातना की तरह ही, नार्को एनालिसिस भी संदिग्धों से कथित अपराध कबूल करवाने का एक बेहतरीन जरिया है, लेकिन जरूरी नहीं कि यह मामले की सच्चाई की तह तक पहुंचा सके.
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स्कोपोलामाइन का आविष्कार
19वीं सदी के अंत में, जब गुन्नू की मौत को बहुत लंबा अरसा नहीं बीता था, जर्मन केमिस्ट अर्न्स्ट शिमिद ने स्लोवेनिया की पहाड़ियों पर उगने वाली बैंगनी फूलों वाली झाड़ियों के राइजोम से स्कोपोलामाइन नाम का एक रसायन अलग किया. इंसान सदियों से हेनबेन के हैलुसिनोजेनिक गुणों से वाकिफ है, जिसे चर्च काली शक्तियों का तांडव करार देते थे. पिछली सदी की शुरुआत में प्रसव पीड़ा को दबाने के लिए स्कोपोलामाइन के इंजेक्शन का इस्तेमाल किया जाने लगा. इसी के साथ इस रसायन के हिप्नोटिक (सम्मोहन) गुणों को पहचानने में ज्यादा समय नहीं लगा.
स्कॉलर एलिसन विंटर लिखते हैं, यह आइडिया टेक्सास के डॉक्टर रॉबर्ट हाउस ने दिया था कि व्यक्ति को अर्धचेतन अवस्था में ले जाकर उसका गुनाह कबूल करवाने में स्कोपोलामाइन का इस्तेमाल ‘ट्रूथ सीरम’ के तौर पर किया जा सकता है. हाउस की नजर में यह यातना का मानवीय विकल्प हो सकता है. उनका मानना था कि पुलिस को ‘कबूलनामा चाहिए होता है और वह जुर्म कबूल करवाकर ही दम लेती है, कभी सच्चा, कभी झूठा.’
हालांकि, शुरुआती दौर से ही यह स्पष्ट था कि स्कोपोलामाइन सच उगलवाने वाला जादुई हथियार नहीं है. 1924 में, पांच अलग-अलग लोगों ने अलबामा में कुल्हाड़ी से की गई सिलसिलेवार हत्याओं में अपना हाथ होने की बात कबूली. एक अन्य मामले में, हवाई में अपहरण और हत्या के आरोपी एक ड्राइवर ने नार्को एनालिसिस के पहले सत्र में अपना जुर्म स्वीकार कर लिया, लेकिन दूसरे सत्र में वह मुकर गया. बाद में पुलिस ने मामले में एक अन्य व्यक्ति को गिरफ्तार किया और अंततः उसे दोषी करार दिया गया.
स्कोपोलामाइन ने जिन मामलों में सफलता दर्ज की, उनमें भी एक आपराधिक जांच उपकरण के रूप में उसकी उपयोगिता सीमित थी. 1934 में, अपनी प्रेमिका के पति की हत्या के आरोपी एक व्यक्ति से पूछा गया कि उसने मर्डर में इस्तेमाल हथियार कहां छिपाया है. उसने कभी इसे नदी में फेंकने का दावा किया तो कभी झाड़ियों के बीच छिपाने की बात कही. उसके बयान काफी भ्रमित करने वाले थे क्योंकि मृतक की लाश के पास से बंदूक बरामद की गई थी. पुलिस को बाद में पता चला कि उक्त व्यक्ति हत्या के कई अन्य मामलों में वांछित था. लेकिन, वह इस मामले में कभी भी उसका कबूलनामा हासिल नहीं कर पाई.
अमेरिका में कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने बाद में खोजे गए रसायनों, मसलन-सोडियम एमाइटल और सोडियम पेंटाथॉल पर ज्यादा भरोसा जताना शुरू कर दिया.
स्कॉलर जेम्स माइकलिस कहते हैं, चिकित्सा पेशेवरों में नार्को एनालिसिस के नतीजों को लेकर उत्साह धीरे-धीरे घटता चला गया. 1953 में येल के विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला कि नार्को एनालिसिस की मनोवैज्ञानिक उपयोगिता है, लेकिन यह ‘सच उगलवाने वाला हथियार नहीं है.’ हकीकत और फसाने कभी-कभार इस कदर उलझ जाते हैं कि उनमें अंतर करना मुश्किल हो जाता है. और, ‘कुछ अपराधी ऐसे भी होते हैं, जो नार्को पदार्थ के गहरे प्रभाव के बावजूद अपना गुनाह छिपाने में कामयाब हो जाते हैं.’
1963 में, अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने नार्को एनालिसिस से प्राप्त कबूलनामे के आधार पर हत्या के एक संदिग्ध को दोषी ठहराने के फैसले को पलट दिया था. फिर इस पद्धति का इस्तेमाल लगभग खत्म हो गया, सिवाये 2012 के जब एक प्रतिवादी ने खुद को मानसिक रूप से अस्थिर करार देने के लिए नार्को एनालिसिस का सहारा लेने की कोशिश की.
अमेरिका में कानून प्रवर्तन और खुफिया एजेंसियों ने 9/11 के बाद आतंकवाद से जुड़े मामलों में नार्को एनालिसिस के इस्तेमाल की मंजूरी देने पर जोर दिया. स्कॉलर जेसन ओडेशो बताते हैं, लेकिन यह कोशिश दो वजहों से नाकाम हो गई, पहली-नार्को एनालिसिस से हासिल कबूलनामे की विश्वसनीयता पर संदेह होना और दूसरी-इसे लेकर कानूनी चिंताएं.
बड़े मामलों में भी की गई कोशिश
2008 में, मुंबई को दहलाने वाले ट्रेन बम धमाकों में सबूत जुटाने का दबाव झेल रहे भारतीय जांचकर्ताओं ने कामयाबी हासिल करने की उम्मीद में नार्को एनालिसिस का रुख किया. हालांकि, वो सबूत जिसके आधार पर 7/11 के साजिशकर्ताओं को दोषी ठहराया गया, उसे स्वतंत्र जांचकर्ताओं की तरफ से तो चुनौती दी ही गई, नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) की ओर से अन्य मामलों में दाखिल आरोपपत्र में भी उन पर सवाल उठाए गए हैं. 7/11 के धमाकों में संलिप्तता के दोषी अब्दुल वाहिद शेख ने आरोप लगाया है कि नार्को एनालिसिस के दौरान झूठे कबूलनामे के लिए उसे प्रताड़ित किया गया.
यातना की तरह ही, कम विश्वसनीय नार्को एनालिसिस ढेरों स्कैंडल का कारण बना है. प्रशासन की तरफ से आखिरकार एस. मालिनी की सेवाएं समाप्त कर दी गई थी, जिन्होंने कई हाई-प्रोफाइल मामलों में नार्को एनालिसिस किया था. एक मामले में, मालिनी पर केरल की एक नन की हत्या से जुड़े सबूतों के साथ छेड़छाड़ के आरोप लगे थे.
2007 में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में धमाकों के सिलसिले में कई मुस्लिम संदिग्धों का नार्को टेस्ट किया गया. नार्को टेस्ट ने गुनाह की ओर इशारा किया, लेकिन सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन (सीबीआई) और एनआईए को कबूलनामा साक्ष्यों के अनुरूप नहीं मिला.
दिल्ली के बहुचर्चित आरुषि हत्याकांड में आरोपी कृष्णा थडाराई के नार्को एनालिसिस का वीडियो लीक हो गया, जिसमें वह कई विरोधाभासी बातें करता नजर आ रहा था. फॉरेंसिक परीक्षक द्वारा की गई पूछताछ में कृष्णा ने जो जवाब दिए, उनसे मामले के तथ्यों और कयासों को लेकर भ्रम और गहरा गया.
स्कॉलर जिनी लोकनीता अपने व्यापक फील्ड वर्क के आधार पर कहती हैं कि भारतीय पुलिस इन ‘ट्रूथ मशीनों’ का सहारे अपनी जांच क्षमता और संसाधनों की कमी की भरपाई करने की कोशिश करती है. वह तर्क देती हैं, ‘ट्रूथ मशीनें आपराधिक न्याय प्रणाली की खामियों का तकनीकी समाधान पेश करती हैं.’
कम विश्वसनीय तकनीक के नतीजे
दुनियाभर के विशेषज्ञ पुलिसिंग में जंक साइंस (संदेहास्पद या फर्जी माने जाने वाले साक्ष्य, आंकड़े, विश्लेषण) की घुसपैठ पर लगातार सवाल उठा रहे हैं. अमेरिका के प्रतिष्ठित नेशनल एकेडेमी ऑफ साइसेंज के एक अध्ययन में बैलिस्टिक और टूलमार्क आइडेंटिफिकेशन, फिंगरप्रिंट एनालिसिस, दस्तावेजों की तुलना, बालों के नमूनों की जांच और काटने के निशान के नमूने जुटाने जैसे प्रचलित फोरेंसिक उपायों में प्रमाणिकता की कमी का जिक्र किया गया है.
फेडरल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन (एफबीआई) के अधिकारी, जो लगातार दावा करते आ रहे थे कि फिंगरप्रिंट के मिलान से चूक की गुंजाइश नहीं होती, उन्हें बार्सिलोना में हुए एक आतंकवादी हमले के सिलसिले में अधिवक्ता ब्रैंडन मेफील्ड की गिरफ्तारी के गलत साबित होने के बाद अपने दावों को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
बाद में अमेरिकी प्रशासन ने कहा था कि मेफील्ड और हमले के आरोप में गिरफ्तार संदिग्ध के उंगलियों के निशान में समानता का स्तर ‘असाधारण रूप से दुर्लभ है, और यही कारण है कि एफबीआई के तीन फिंगरप्रिंट परीक्षक भ्रमित हो गए’ हालांकि, वास्तव में ऐसी त्रुटियां कितने मामलों में सामने आ सकती हैं, इसे लेकर अभी कोई डेटा नहीं है.
यहां तक, डीएनए सैंपलिंग जैसी उच्च विश्वसनीयता वाली तकनीकें भी भ्रमित कर सकती हैं और करती भी हैं. लंबे समय से जारी 40 अपराधों में वांछित एक सीरियल क्रिमिनल की तलाश जर्मन पुलिस को अंततः उस प्लांट में काम करने वाले कर्मचारी तक ले गई, जिसमें नमूने जुटाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्वैब तैयार किए जाते थे. हालांकि, उस कर्मचारी का किसी भी अपराध से कोई लेना-देना नहीं था.
सिर्फ कबूलनामा हासिल करने के इरादे से इस्तेमाल किए जाने के कारण इस तकनीक के नतीजे बिच्छुओं से डंक मरवाने या अंडकोष मसलने सरीखे उपायों से अलग नहीं निकलते. सच की तह तक पहुंचने के लिए पुलिस के धैर्य, दृढ़ता और सतर्कता के साथ काम करने की जरूरत है. यहां तक कि जिन मामलों की जांच में ये सभी तत्व मौजूद होते हैं, उनमें भी सफलता की गारंटी नहीं होती. अपराध का खुलासा करने का दबाव पुलिस बलों को ऐसे संदिग्ध शॉर्ट-कट आजमाने को उकसाता है, जिनसे दोषसिद्धि भले ही संभव हो पाए लेकिन आपराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता घटने लगती है.
लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
(अनुवाद: रावी द्विवेदी)
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