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Thursday, 10 October, 2024
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आफताब की करतूत से चौंकना भर काफी नहीं, ऐसी वारदातों को न भूलना भी जरूरी है

श्रद्धा वालकर हत्याकांड भी शीना बोरा मामला बनकर न रह जाए. पुलिस, अदालत, जेल अधिकारी, सभी को मालूम है कि जनता की याददाश्त छोटी होती है.

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श्रद्धा वालकर हत्याकांड की तरह शायद ही किसी और अपराध ने देश को इतना सदमा पहुंचाया होगा. पिछली बार ऐसी भावना निर्भया कांड के समय उभरी थी. लेकिन उस मामले से हम परेशान तो हुए ही थे, कुछ दूसरी चिंताओं ने भी हमें परेशान कर दिया था. चिंताएं महिलाओं की सुरक्षा और इस बात से संबंधित थीं कि हमारा प्रशासन ऐसा वातावरण बनाने में विफल रहा है जिसमें ऐसे अपराध न हों.

श्रद्धा हत्याकांड में, राक्षसी किस्म के अपराध ने हमें स्तब्ध कर दिया है. पुलिस का कहना है कि तीन साल से श्रद्धा के ब्वॉयफ्रेंड रहे आफताब पूनावाला ने कथित रूप से क्रोध के आवेश में उसकी हत्या कर दी. हत्या करने के बाद उसके शव को उसने 35 टुकड़ों में काट दिया. इन टुकड़ों को रखने के लिए 300 लीटर का फ्रिज खरीदा.

हर दिन वह आधी रात तक इंतजार करने के बाद शव के कुछ टुकड़ों को महरौली के जंगल में जाकर फेंकता रहा. पुलिस के अनुसार, उसमें पछतावे की कोई भावना नहीं थी और कई महीनों तक वह दूसरी औरतों को अपने उस घर में लाता रहा जिसमें वह श्रद्धा के साथ रहता था. दूसरी औरतों को वह डेटिंग ऐप ‘बंबल’ के जरिए संपर्क करता था और उनसे रोमांस करता था. इसका क्रूर पहलू यह है कि उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उसकी मृत गर्लफ्रेंड का कटा हुआ सिर उसके फ्रिज में पड़ा था.

देखा जाए तो वह किसी भी कोण से क्रूर अपराधी नहीं था. आपको वह पड़ोस में रहने वाला लड़का लग सकता था. वह फूड ब्लॉगर था जिसके इंस्टाग्राम पर 28 हजार फ़ॉलोअर थे. इंस्टाग्राम पर उसने अपना परिचय एक ‘खानपान के बारे में कंसल्टेंट और फूड फोटोग्राफर’ के रूप में दिया है.

श्रद्धा हत्याकांड की खबर सामने आई तब मैंने उसके इंस्टाग्राम अकाउंट को देखा. उस पर आए पोस्टों से लगता है कि उसे इतना महत्व हासिल था कि रेस्तराओं के बारे में प्रचार करने के लिए उसे अच्छी-ख़ासी रकम दी जाती थी. उस पर पा पा या से डिम सम, मुंबई के सांताक्रूज के ताज से ड्रिंक्स और चाइनीज़ फूड की कई फोटो और रॉयल स्टैग व्हिस्की की बोतल आदि की भी फोटो थीं. यानी उसे एक आम फूड ब्लॉगर ही माना जा सकता था, न कि ऐसा आदमी जो अपराधी प्रवृत्ति का हो और उन्मादी हत्यारा हो. मानसिक रोगी तो कतई नहीं.

लेकिन उसने वीभत्स अपराध कर डाला. (उसको में इस आधार पर अपराधी मान रहा हूं कि उसने पुलिस के सामने अपना अपराध कबूल किया है और वह पुलिस को उन स्थानों पर ले गया जहां उसने शव के टुकड़ों और हत्या के हथियार को फेंका था. लेकिन उसे कानूनी प्रक्रिया का सहारा लेने का पूरा अधिकार तो है ही).


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जनता की कमजोर याददाश्त

इस हत्याकांड से हम सब परेशान तो हैं ही, लेकिन मेरी चिंता कुछ और है— असली बात यह है कि अब आगे क्या होगा.

मैं एक अनुमान लगा सकता हूं. आफताब को जमानत नहीं दी जाएगी. वह जेल में रहेगा और पुलिस उसके खिलाफ मामला तैयार करेगी. इस सबमें एक साल लगेगा. इसके बाद मुकदमे की सुनवाई शुरू होगी. यह कई साल चल सकती है. हत्या के बड़े चर्चित मुकदमों में भी सुनवाई इतनी लंबी चलती है कि उनमें लोगों की दिलचस्पी खत्म हो जाती है.

शीना बोरा हत्याकांड को ही लें, जिसने पूरे देश को सन्न कर दिया था. पुलिस के मुताबिक हत्या 2012 में हुई. शीना की मां इंद्राणी मुखर्जी को 2015 में गिरफ्तार किया गया. सात साल बाद आज भी मामले की सुनवाई जारी है. कोई नहीं जानता यह प्रक्रिया कब खत्म होगी, या फैसला कब सुनाया जाएगा. मामले में आरोपी जो है वे समृद्ध लोग हैं और अगर उन्हें दोषी बताया गया तो वे आगे अपील करेंगे. यह सब 10 साल और चलेगा.

मैंने शीना हत्याकांड का उदाहरण इसलिए दिया कि वह इलीट लोगों का मामला है और इसमें कथित तौर पर एक क्रूर अपराध किया गया है, एक मां ने कथित तौर पर अपनी बेटी की हत्या की है. लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे ज़्यादातर मामलों में इस तरह की देरी आम बात हो गई है. आरोपी जेल जाता है, जनता की याददाश्त धूमिल होती जाती है, आरोपी को जमानत मिलती है और वह अपना जीवन शुरू कर देता है, भुक्तभोगी को भुला दिया जाता है.

मामले में जब राजनीतिक पहलू जुड़ा होता है, मसलन बिलकीस बानो सामूहिक बलात्कार और हत्या कांड, तब आरोपी को कम समय में ही सज़ा दे दी जाती है. लेकिन अगर उस पर सत्ताधारी जमात की कृपादृष्टि हो तो उसे बार-बार पेरोल मिलती रहती है और जेल की उसकी सजा आसानी से कट जाती है. अगर अपराध प्रधानमंत्री की हत्या जैसा गंभीर हो तो अपराधियों को फांसी की सजा से छूट मिल जाती है और पश्चाताप न करने वाले हत्यारों को जेल से रिहा कर दिया जाता है और उत्सुक मीडिया से यह कहा जाता है कि वे ‘स्वतंत्रता सेनानी’ हैं.

इसके बाद जनता की ओर से शोर मच सकता है, जैसा कि बिलकीस बानो कांड या राजीव गांधी हत्याकांड के साथ हुआ, लेकिन इस शोरशराबे से खास फर्क नहीं पड़ता. रिहा किए गए अपराधी प्रायः लापता हो जाते हैं और फिर मामले को शायद ही आगे बढ़ाया जाता है.

मेरा आशय यह नहीं है कि पूनावाला ने अपनी गर्लफ्रेंड की बर्बर हत्या इसलिए की क्योंकि उसे पता था कि वह बच जाएगा, हालांकि तमाम सबूत यही बताते हैं कि उसे पक्का यकीन था कि वे बेदाग बच जाएगा. शायद उसने वैसे भी अपनी गर्लफ्रेंड की हत्या की ही होती, चाहे हमारी न्याय व्यवस्था कैसी भी हो.

मेरा कहना यह है कि चूंकि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और हमारी न्याय व्यवस्था बिखरी हुई है इसलिए भयानक अपराध करने वालों को सजा देना हमारे लिए मुश्किल होता है, चाहे वे बलात्कारी हों या हत्यारे हों वे समाज के कीड़े हैं. उन्हें जब हम गिरफ्तार करते हैं तब तो हम खूब ढ़ोल पीटते हैं लेकिन वे हमारी न्याय व्यवस्था की कठोरता से लुप्त हो जाते हैं, और बाद में हम उनकी परवाह करना भूल जाते हैं. उदाहरण के लिए, हममें से कितनों को यह पता था कि बिलकीस बानो के मामले में जेल भेजे गए लोग ज्यादा समय पेरोल पर जेल से बाहर रहे जबकि हम यह मान रहे थे कि वे जेल में हैं? क्या हमने गौर किया कि उनमें से दो ऐसे थे जिनके खिलाफ दूसरे अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज हैं जबकि वे पेरोल पर थे? और बाबा राम रहीम का मामला क्या है, जिसे राजनीतिक जमात चुनावों में लाभ लेने के लिए पेरोल देती रही है?

सच्चाई यह है कि शुरू में लगा सदमा और झटका जब हल्का पड़ता है तब हमारी दिलचस्पी भी कमजोर पड़ने लगती है.

पुलिस को यह मालूम है. इसलिए वह विशाल आरोपपत्र दाखिल करती है जिसमें 500 या ज्यादा गवाहों के नाम होते हैं क्योंकि उसे पता है कि सबकी गवाही लेने में कई साल गुजर जाएंगे. अदालत को भी यह मालूम है. सुनवाई की तारीखें दूर-दूर की दी जाती हैं और प्रायः मुकदमे जज का तबादला हो जाता है और तब पूरी प्रक्रिया फिर से शुरू होती है.

वकीलों को भी यह अच्छी तरह पता रहता है. अक्सर वे ऐसे मुकदमे को लंबा खींचा जाना पसंद करते हैं जिनमें उनके क्लाइंट के बारे में जनमत में काफी अंतर होता है. इसलिए वे चाहते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर पड़े. जेल के अधिकारी भी यह जानते हैं. पिछले दो महीने में कई मामलों में हम देख चुके हैं कि पहुंच वाले अपराधियों को जेल में कोई तकलीफ नहीं होती, कुछ तो जेल में सुकून से अपनी आपराधिक गतिविधियां चलाते रहते हैं.

संक्षेप में, भारत में पूरी न्याय और दंड व्यवस्था चरमरा रही है. न्याय करना लगभग असंभव हो गया है. तिकड़मी अपराधियों, बलात्कारियों, हत्यारों, नेताओं और गिरोहबाजों को जो सजा मिलनी चाहिए वह जरूरी नहीं कि उन्हें मिल ही जाए. हम बाहर वाले केवल गिरफ्तारियों की सुर्खियों को देख पाते हैं और फिर उन्हें भूल जाते हैं इसलिए हमें एहसास नहीं होता कि हालात कितने बुरे हो चुके हैं.

इसलिए, फूड ब्लॉगर से हत्यारा बने आफताब पूनावाला की करतूतों से सदमे में रहना काफी नहीं है. हमें ऐसे मामलों पर नज़र रखनी चाहिए और तब तक चैन नहीं लेना चाहिए जब तक ऐसे अपराधों का बदला न लिया जाए और अपराधियों को सज़ा न मिल जाए.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: अशोक कुमार)

(संपादन: हिना फ़ातिमा)


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