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Saturday, 23 November, 2024
होममत-विमत'अभियान किताब दान' की अब तक की यात्रा उम्मीद जगाने वाली, लोगों के सहयोग से पूर्णिया में कैसे खड़ा हुआ जनांदोलन

‘अभियान किताब दान’ की अब तक की यात्रा उम्मीद जगाने वाली, लोगों के सहयोग से पूर्णिया में कैसे खड़ा हुआ जनांदोलन

25 जनवरी 2020 को ‘अभियान किताब-दान’ की शुरुआत हुई. इसमें लक्ष्य रखा गया कि लोगों से उनकी पढ़ी हुई किताबें दानस्वरूप लेकर वंचित किन्तु इच्छुक तबके तक पहुंचायी जाए.

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किताबें सभ्यता में घटित होने वाली सबसे मानीखेज़ (सार्थक) घटना मानी जा सकती हैं. सृजनात्मक यात्रा, भविष्य की उम्मीद, अतीत की स्मृति, स्मृति की सीख, दुर्धर्ष आकांक्षा, अन्वेषण की प्रक्रिया, प्रक्रिया का अन्वेषण-इन सब का दस्तावेज किताबें ही हैं. किताबें ना होती तो हर पीढ़ी को अपना आरंभ शून्य से करना पड़ता. पुरानी पीढ़ियों के संघर्ष और अनुभव का लाभ अल्पजीवी होकर बेमानी हो जाता.

वैदिक काल ने यद्यपि श्रुति परम्परा में वक्त का कुछ सफर तय जरूर किया किंतु यह सच है कि सभ्यता और संस्कृति आज जिस मुकाम पर पहुंची है, उसमें संकलित ज्ञान के वाहक के रूप में किताबों का योगदान अप्रतिम (बहुत ही सराहनीय) है.

किसी समाज या समुदाय के मिज़ाज या उसके टोन को परखने का एक प्रतिमान ये हो सकता है कि उसकी सामूहिक चेतना में किताबों को क्या स्थान प्राप्त है. पढ़ने वाला समाज प्रायः ज्यादा उदार, ज्यादा लचीला एवं ज्यादा विकासशील होता है. वह परिवर्तन के प्रति ज्यादा स्वीकार्यता भी रखता है. समुदाय से उतर कर जब हम व्यक्तिमात्र पर किताबों के प्रभाव की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि किताब के आरंभ में व्यक्ति जो होता है अंत तक बिल्कुल वही नहीं रह जाता. प्रभाव कम, ज्यादा, अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है, किन्तु व्यक्ति बिल्कुल वही नहीं रह जाता.

यह किताब की स्वयं की सफलता या सार्थकता का प्रतिमान भी हो सकता है. समान उदाहरण को लेकर कहें तो कह सकते हैं कि प्रभाव से बिल्कुल शून्य कोई किताब अस्तित्व में नहीं आ सकती. यदि किताब हैं, तो प्रभाव जरूर होगा, होना ही है.


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सपनों की खाई पाटने वाला पुल

किताबें, उनके महत्व और प्रभाव की बातें भूमिका में इसलिए की गई हैं ताकि इंटरनेट और संचार के इस युग वाले इस दौर में जब हम पुस्तकालय का जिक्र करें तो ‘किताबों से इश्क की आखिरी सदी’ कहकर इसे सिरे से खारिज न किया जा सके. इक्कीसवीं सदी के दो दशक बीत जाने के बावजूद पुस्तकालयों की बात इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि समतामूलक समाज अभी भी यूटोपियन संकल्पना है. अवसरों की विषमता ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों की आकांक्षाओं की भ्रूण हत्या न कर दे, इसके लिए आवश्यक है कि संसाधन और सपनों की खाई को पाटने वाले पुल तैयार किए जाएं. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था ‘Education is a Liberating force and in our age it is also a democratizing force, cutting across the barriers of caste & class, smoothing out inequalities imposed by birth &other circumstances.'(शिक्षा एक मुक्तिदायक शक्ति है और हमारे युग में यह एक लोकतांत्रिक शक्ति भी है, जो जाति और वर्ग की बाधाओं को काटकर जन्म और अन्य परिस्थितियों से उत्पन्न असमानताओं को दूर करती है.) अभी भी जाति, वर्ग, समुदाय, भाषा एवं संसाधन की सीमाओं को लांघने के लिए शिक्षा या किसी भी और तरीके से भी किताबें आजमाई हुआ सबसे सफल विकल्प है.

वर्ष 2019 के सितम्बर माह में जब पूर्णिया के जिलाधिकारी के रूप में पदभार ग्रहण किया तो पाया कि देश के सबसे प्राचीनतम जिलों में शुमार, खूबसूरत आवो-हवा और मनोरम लैंडस्केप वाला यह जिला राज्य में साक्षरता के दृष्टिकोण से सबसे निचले पायदान पर बैठा है. यह भी पाया कि ‘मैला आंचल’ जिसे हिन्दी भाषिक समाज में ‘गोदान’ के बाद सबसे अधिक प्रतिष्ठा हासिल की है, के कथानक एवं विन्यास की भूमि होने के बावजूद यहां पढ़ने की संस्कृति (Reading Culture) क्षीण होती जा रही है. कोसी, महानंदा एवं गंगा की सीमाओं के बीच बाढ़ ग्रस्त इस क्षेत्र की आकांक्षाएं (Aspirations) भी सीमाओं में बंधने लगी हैं.

इसी पृष्ठभूमि में 25 जनवरी 2020 को ‘अभियान किताब-दान’ की शुरुआत हुई. मकसद था कि उत्प्रेरक (Catalyst) की भूमिका निभाते हुए जिनके पास है और जिनके पास नहीं है (Haves एवं Have-nots) के बीच पुल बनाने का काम किया जाय. लक्ष्य रखा गया कि लोगों से उनकी पढ़ी हुई किताबें दानस्वरूप लेकर वंचित किन्तु इच्छुक तबके तक पहुंचायी जाय. जनसहयोग से जिले के प्रत्येक ग्राम पंचायत में पुस्तकालय खोलने का संकल्प लिया गया.

इस अभियान में क्या छोटा क्या बड़ा पूरे समुदाय को इस पूरे प्रोसेस से जोड़ा, इसके पीछे दो मुख्य वजहें थीं. एक तो अब से पहले केवल सरकारी योजना के अन्तर्गत पुस्तकालयों के लिए खरीदी गईं किताबों का प्रभाव और उद्देश्य को पूरा करने का अनुभव बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा है. दूसरा किसी भी पहल को लंबे समय तक चलाने और उसके प्रभाव के दूरगामी होने के लिए बहुत जरूरी है कि समुदाय यानी लोग खुद उससे जुड़ जाए, उसे अंगीकृत कर लें.


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कम समय में बड़ा कारनामा

पुस्तकालयों के आरंभ से लेकर उनके सफल संचालन तक चार बुनियादी जरूरतों को हमने रेखांकित किया. इनमें सबसे पहले तो इसकी नींव किताबें ही हैं. जिला प्रशासन की इस पहल को लोगों ने हाथों हाथ लिया तथा सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचार-प्रसार के कारण युवा पीढ़ी से लेकर प्रकाशन समूह तक इस अभियान में भागीदारी के लिए आगे आए.

2020 एवं 2021 में कोविड-19 के कठिन दौर के बावजूद बहुत कम समय और बहुत ही कम प्रयास में अभी तक हमें 1लाख 30 हजार से अधिक पुस्तकें मिल चुकी हैं, जिनसे जिले के सभी 230 ग्राम पंचायतों और 07 नगर निकायों में पुस्तकालय खोलने का लक्ष्य प्राप्त किया जा सका है. दानकर्त्ताओं ने डाक से किताब भेजी हैं, कार्यालयों में आकर पुस्तकें पहुंचायी है. वरिष्ठ नागरिकों की मांग पर जिला प्रशासन द्वारा एक वाहन भी रवाना किया गया एवं एक कॉल पर लोगों के घर-घर जाकर पुस्तकें प्राप्त करने का कार्य किया गया. दस वर्ष के एक बच्चे ‘सक्षम’ ने अपने जन्मदिन पर इस अभियान में 151 पुस्तकें भेंट की. ऐसी अनेक प्रेरणास्पद कहानियों से हमारे संकल्प का पहला पड़ाव पार हुआ.

किताबें प्राप्त होने के पश्चात् दूसरा अहम पड़ाव आधारभूत ढांचों से जुड़ा हुआ था. लाखों की संख्या में प्राप्त बहुसंख्य श्रेणियों की किताबों को कोटिवार संवितरित कर पंचायतों तक पहुंचाना, भवन-फर्नीचर, संचालन समितियों का गठन, संचालन हेतु दैनिक व्यय आदि ऐसी चुनौतियां थीं, जिनको सावधानी से संबोधित नहीं करने पर पुस्तक-संग्रह के शुरुआती उत्साहपूर्ण चरण के बाद इस अभियान के पटरी से उतरने का ख़तरा था. यहां हमने सामुदायिक सहभागिता को तंत्र की सामर्थ्य से जोड़ने का प्रयास किया. शिक्षा विभाग एवं पंचायती राज विभाग की आधारभूत संरचना का लाभ लेते हुए पंचायत की छः स्थायी समितियों में से एक शिक्षा समिति के अधीन इन पुस्तकालयों को लाया गया तथा प्रत्येक ग्राम पंचायत में उपलब्ध पंचायत सरकार भवन/पंचायत भवन/सामुदायिक भवनों में पुस्तकालय संचालित करने का निर्णय लिया गया. संचालन समितियों में भी स्थानीय जनप्रतिनिधियों से लेकर युवा स्वयंसेवक, गांव में रह रहे इच्छुक सेवानिवृत्त कर्मी, नेहरू युवा केन्द्र से जुड़े लोगों को भी शामिल किया गया.

पुस्तकालय संचालन से जुड़ी तीसरी जरूरत वह कड़ी है जिसके लिए यह सारा प्रक्रम है-पाठक. पाठकों को पुस्तकालयों तक लाने के लिए आक्रामक प्रचार-प्रसार का सहारा लिया गया. पुस्तकालयों के आस पास के क्षेत्रों में बैठकों का आयोजन करने से लेकर सोशल मीडिया का भी सकारात्मक उपयोग किया गया . फिर एक बार पाठकों के आ जाने के पश्चात् उन्हें रिटेन करना एक वास्तविक प्रश्न था, जो हमारी चैाथी चुनौती भी थी-पढ़ने की संस्कृति (Reading Culture) का विकास. सतत चलने वाली इस प्रक्रिया में हमने पेशेवर व्यक्तियों एवं संस्थाओं की मदद लेकर जहां एक ओर संचालन समितियों के सदस्यों का उन्मुखीकरण कार्यक्रम आयोजित किया, वहीं दूसरी तरफ उनके समक्ष इस अवधारणा को स्पष्ट किया गया कि पुस्तकालय का तात्पर्य केवल किताबें, भवन एवं पाठक नहीं होता, बल्कि रोचक तरीकों से एक आकर्षक और अनुकूल ( Engaging and Conducive) माहौल का निर्माण करना भी होता है, जिसके अभाव में इस पूरे अभियान को टिकाऊ (Sustainable) बनाये रखना संभव नहीं होगा.

‘अभियान किताब-दान’ की अभी तक की यात्रा उम्मीद जगाने वाली रही है. हजारों लोगों के सहयोग से प्राप्त लाखों पुस्तकों ने पूर्णिया जिले में अरसे बाद किसी सामुदायिक हित के प्रश्न पर जनांदोलन की शक्ल अख्तियार की है. हमारे इस अभियान से प्रभावित होकर कई ऑनलाइन प्लेटफार्मों ने इन पुस्तकालयों में निःशुल्क मेडिकल एवं लॉ जैसे विषयों से जुड़े पाठ्यक्रमों के लिए कोचिंग देने की इच्छा जाहिर की है. भविष्य के रोडमैप में हमने को-ऑपरेटिव प्रतियोगिता (Co-operative Competition) के माध्यम से और बेहतर बनाने और उपलब्धियों के लिए इंटर लाइब्रेरीज की गतिविधियों को शामिल किया है. साथ ही वर्चुअल मीडियम से भी इन लाइब्रेरीज को जोड़ने की योजना पर काम चल रहा है.

उम्मीद है कि ‘अभियान किताब-दान’ से जुड़ कर लाभान्वित होने वाली पीढ़ी अपने लिए एक बेहतर कल, एक बेहतर समाज के निर्माण में योगदान दे पाएगी. इन पंक्तियों के साथ मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि सतह पर स्थिर प्रतीत होने वाला किन्तु अंतस में क्रान्ति सरीखा प्रभाव लिए बदलाव का रास्ता किताबों से होकर ही गुजरता है.

(लेखक आईएएस राहुल कुमार हैं जो बिहार के पूर्णिया जिले के जिलाधिकारी हैं और ‘अभियान किताब दान’ चला रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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