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Saturday, 21 December, 2024
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आप भाजपा का बेझिझक एक और आलसी संस्करण है

ईमानदारी के उसके तमाम दावों के बावजूद, ‘आम आदमी पार्टी’ की पहचान-मुक्त पहचान और कुछ भले हो मगर प्रामाणिक नहीं है.

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मीडिया के साथ प्रेम की पींगें बढ़ाने के एक दशक बाद भी आम आदमी पार्टी (आप) सुर्खियों में अपनी हैसियत से ज्यादा जगह घेरे हुए है. हालांकि अभी यह घोषणा नहीं हुई है कि गुजरात विधानसभा का चुनाव कब होगा, लेकिन उत्साही चुनाव विशेषज्ञों ने अरविंद केजरीवाल और उनकी संभावनाओं का ग्राफ ऊपर बताना शुरू कर दिया है. अपने जन्म से लेकर अब तक कांग्रेस पार्टी से अमिट रूप से निर्भर आप को कांग्रेस के अच्छे सिपाही से नुकसानदेह सिपाही तक बताया जाता है.

पंजाब और दिल्ली के चुनावों से अगर यही संकेत मिलता है कि खुद को राष्ट्रीय ताज की ताजा दावेदार समझने वाली आप इस विशाल प्राचीन पार्टी को उससे भीषण टक्कर लेने पर मजबूर कर रही है. आप को लेकर मीडिया में जो सनसनी और प्रशंसा भाव है उसके कारण यह समझ पाना मुश्किल है कि यह पार्टी और इसके पक्के समर्थकों का आखिर लक्ष्य क्या है.

आप के उत्कर्ष की आम तौर पर तीन तरह से व्याख्या की जाती है. एक तो यह कि वह कांग्रेस नहीं है, इसलिए कुछ नयापन लिये हुए है. दूसरी और इससे जुड़ी व्याख्या यह होती है कि उसे भ्रष्ट नहीं माना जाता. और तीसरी यह कि वह केवल शासन में दिलचस्पी रखती है. इस सबके कारण केजरीवाल को सर्वश्रेष्ठ और सबसे दक्ष नेता के रूप में देखा जाने लगा है. लेकिन यह न केवल अधूरी बात है बल्कि यह पूरी तरह दिग्भ्रमित भी करती है. यह सब पढ़ते हुए आप ऊब गए हों, तो मैं अपना मुख्य मुद्दा स्पष्ट कर दूं कि आप कुल मिलाकर भाजपा का सुस्त और अपराध-बोध मुक्त संस्करण है.


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भ्रष्टाचार और आम आदमी

भारत में आज मौजूद 50 से ज्यादा पार्टियां चाहे जितनी विविधता का प्रतिनिधित्व करती हों, राजनीतिक विचारों का नक्शा सरल-सा है. अपने विचारों और अपने नेता की वजह से लोकप्रिय जनादेश हासिल कर लेने वाली भाजपा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आख्यान पर हावी हो गई है. उसकी पटकथा का सूत्र यह है— मजबूत नेता, हिंदू सर्वोपरि.

इसके विपरीत केजरीवाल ने प्रताड़ित, संयमित, और सबसे ऊपर मामूलीपन के मुलम्मे के साथ अपनी जो छवि गढ़ी है उसका मकसद सत्ता के लिए अपनी आक्रामक जद्दोजहद पर पर्दा डालना है. अगर मोदी को देशा का मसीहा माना जाता है, तो आम आदमी को देश के प्रताड़ित के रूप में पेश किया जाता है. तथाकथित ‘आम आदमी’ को आदर्श प्रतीक के तौर पर मोदी के जवाब के रूप में पेश किया जाता है. अगर हिंदुत्व मोदी को परिभाषित करता है, तो भ्रष्टाचार के खिलाफ उद्घोष ने केजरीवाल के लिए सत्ता हासिल करने का रास्ता बनाया है.

लेकिन, वास्तव में ‘आम आदमी’ कौन है? केजरीवाल की पार्टी ने बड़े जतन से आम आदमी को लोकलुभावन राजनीति के भुक्तभोगी के रूप में प्रस्तुत किया है. जाति हो या धर्म, अपनी सामाजिक विरासत से वंचित किया गया आम आदमी, भारतीय पुरुष को वह क्यों आकर्षित करता है यह तो छोड़ ही दीजिए, आपके लिए वह कम आय वाला वेतनभोगी या व्यवसायी हो सकता है. जो भी हो, अमीर हो या गरीब हो, उनके बीच जुड़ाव का जो मुद्दा है वह यह है कि उन सबको भ्रष्टाचार से परिभाषित, शक्तिशाली नौकरशाही वाले राज्यतंत्र से जूझना पड़ता है. यह सब बहुत आकर्षक लगता है. आखिर, भारतीय नौकरशाही के हाथों किसने परेशानी नहीं झेली है? लेकिन असली सवाल यह है कि हर तरह का भारतीय, चाहे वह अमीर हो या मध्यवर्गीय हो या कम आमदनी वाला हो, यह कैसे दावा कर सकता है कि वह आम आदमी है और प्रताड़ित है?

दूसरे देशों के विपरीत भारत में भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे और बायें से दायें तक फैला हुआ है. ऐसा नहीं है कि अकेले भारत के राज्यतंत्र के नस-नस में ही भ्रष्टाचार समाया है. भ्रष्टाचार पर गहन अध्ययन बताते हैं कि विकसित और धनी देशों में भी बड़े सौदों में घूसख़ोरी के रूप में दायें से बाये तक भ्रष्टाचार देखा जा सकता है. यह सौदा बराबर वालों के बीच होता है, जैसे कॉर्पोरेट और सरकार के एजेंटों के बीच.

गरीब देशों में विशाल नौकरशाही का ताल्लुक ऊपर से नीचे वालों तक से रहता है और निर्बल नागरिकों को सार्वजनिक सुविधाएं हासिल करने के लिए अपनी छोटी जेब से नौकरशाही की हथेली गरम करनी पड़ती है. आपको कोई शक हो तो अखिल गुप्ता की शानदार किताब ‘रेड टेप’ पढ़िए, जो भारत में सार्वजनिक वितरण व्यवस्था में रोजाना के भ्रष्टाचार का भरपूर विवरण प्रस्तुत करती है. भारत इस मामले में अनोखा इसलिए है कि यहां भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे और बायें से दायें तक इस कदर फैला हुआ है कि नागरिक खुद को बंधा हुआ पाता है.

कच्चे किस्म के इस सर्वव्यापी भ्रष्टाचार रूपी साझा दुश्मन ने ‘आप’ को लोकप्रिय होने और अपनी ठेठ परिभाषा हासिल करने में मदद की है, वह यह कि उसने पारंपरिक वाम और दक्षिण की हदों को तोड़ा है या उस वर्ग में भी पैठ बनाई है जिसका किसी पार्टी से कोई लगाव नहीं है. यह आप को लोकप्रिय एकजुटता की आभा प्रदान की है, भले ही वह सतही क्यों न हो. अहम बात यह है कि भ्रष्टाचार से प्रताड़ित होने की धारणा पर ज़ोर देकर उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ भी ठोस करने की ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़ लिया है. और कुछ नहीं, तो लोकपाल बिल का क्या हश्र हुआ वही देख लीजिए, जबकि इसी की मांग ने उसे दिल्ली में सत्ता दिलाई थी.

सत्ता हासिल करने के उद्यम के सिवा तमाम राजनीतिक कार्यक्रम से दूर रहकर आप ने तमाम तरह की मांगों और मुद्दों को एक जैसा बना दिया है. भ्रष्टाचार, इनर्जी, और घरों के बिल, शिक्षा, और अब मीडिया, तमाम मुद्दों पर केजरीवाल आक्रोश और दिखावटी नैतिकता का प्रदर्शन करते हैं.

आप हमारी 21वीं सदी का एक संकेतचिन्ह है जहां शासन, कार्यकुशलता, पारदर्शिता आदि को लेकर लफ्फाजी इनसे ज्यादा पारंपरिक राजनीतिक सरोकारों पर हावी हो गई है. आप का राजनीतिक कल्पनालोक राजनीतिक एजेंटों के रूप में काम करने वाले निचले और ऊंचे ओहदों के प्रशासकों से बना है. जब आप इस पार्टी के शहरी तथा मुखर समर्थकों से समानता, स्वतंत्रता, या न्याय जैसे राजनीतिक मूल्यों की बात करेंगे तो आपके ऊपर ‘विचारधाराग्रस्त’ या ‘विशेषाधिकारप्राप्त’ होने की तोहमत लगाई जाएगी.

पहचान-मुक्त पहचान

‘आम’ का जो विचार है उसके तहत साझा मकसद और पहचान के रूप में साधारणता को प्रक्षेपित करने की कोशिश की जाती है. इसने केजरीवाल की पार्टी को जाति और धर्म जैसे बड़े सामाजिक सवालों से एक रणनीति के तहत कतराने की छूट दी है. मानो आम आदमी पार्टी के लिए समाज नाम की चीज का कोई अस्तित्व ही नहीं है. बस शुद्ध नागरिक उपभोक्तावाद. लगता है, उसके राजनीतिक रिश्ते का आधार यह है कि ‘मुझे मुफ्त बिजली दो, क्योंकि मैं अमुक शहर में रहता हूं; और मैं इसके बदले मैं तुम्हें वोट दूंगा’. आप के प्रतीकों में शामिल बाबासाहब आंबेडकर समाज की इस खतरनाक अनुपस्थिति का न केवल विरोध करते बल्कि इससे हताश भी होते.

हिंदुत्व और सांप्रदायिकता के उत्कर्ष के इस दौर में कोई नासमझ ही होगा जो इस चलन को पहचान की राजनीति का उपसंहार घोषित करेगा. आरक्षण और 2020 के दिल्ली दंगों पर केजरीवाल की सोची-समझी चुप्पी इसे स्पष्ट कर देती है. फिर भी, इसकी व्याख्या संघर्ष या भेदभाव से परे जाने के एक उदात्त आदर्श के रूप में करना एक बुनियादी भूल ही होगी.

इसकी जगह, खुद को खुल कर हिंदू कहने से परहेज करके आप अनिष्टकारी आडंबर का ही परिचय देती है. सीधी बात यह है कि इस पार्टी के बढ़ते आकर्षण का श्रेय उन्हें भी जाता है जो खुल कर यह कबूल करने से कतराते हैं कि भारतीय लोकतंत्र ‘हिंदू सर्वोपरि’ की दिशा में मुड़ रहा है. जाहिर है, पहचान की बात करना बोझिल हो सकता है और भावनाओं तथा निष्ठाओं को भड़का भी सकता है. इस मामले में आप हिंदुत्व के निरंतर आह्वान से बाहर रहने का एक आसान, सुस्त विकल्प प्रस्तुत करती है, जिसमें उसके सिद्धांतों को अपनाने या खारिज करने की जरूरत न पड़ती हो. लेकिन ईमानदारी के उसके तमाम दावों के बावजूद, यह पहचान-मुक्त पहचान और कुछ भले हो मगर प्रामाणिक नहीं है.

मतदाता देश को राजनीति-मुक्त करने की कोशिश में शायद यही चाहेगा कि उसके नेता वास्तविक से ज्यादा फूले हुए ‘सिविल सरवेंट’ जैसे हों, और मतदाता खुद मुफ्त बिजली आदि-आदि का उपभोग करने वाले सामान्य उपभोक्ता. लेकिन मुझे इसमें गहरा संदेह है, क्योंकि भारत सबसे राजनीतिक समाज है.

हिंदुत्व का मूल्यवान राज्य गुजरात न केवल निष्ठाओं और प्रतिबद्धताओं की परीक्षा लेगा, बल्कि वह आम आदमी पार्टी को मजबूर भी करेगा कि वह अपनी असली पहचान को खुल कर कबूल करे और अपनाए.

(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इंडियन हिस्ट्री और ग्लोबल पॉलिटिकल थॉट की प्रोफेसर हैं. वह @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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