भारत के सबसे ठंडे और ऊंचे पठार लद्दाख में राजनीतिक माहौल गर्म हो रहा है. जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक और लद्दाख एपेक्स बॉडी व कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस के उनके समर्थकों के 21 दिन के उपवास के दो सप्ताह खत्म होने पर भी अभी तक कोई समाधान नजर नहीं आ रहा है.
वे लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं, जो अन्य बातों के अलावा, लद्दाख और कारगिल स्वायत्त परिषदों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करेगी, जिससे उन्हें इस पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में औद्योगिक और खनन माफियाओं पर रोक लगाकर ग्राम प्रशासन और वन प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में कर लगाने और कानून बनाने की अनुमति मिलेगी. इसके अतिरिक्त, वे बौद्ध बहुल लद्दाख और शिया बहुल कारगिल के लिए अलग-अलग संसदीय निर्वाचन क्षेत्र चाहते हैं. कथित तौर पर केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 371 की तर्ज पर विशेष प्रावधानों का विस्तार करने की पेशकश की है, लेकिन उसने छठी अनुसूची की मांग को स्वीकार नहीं किया है.
गौरतलब है कि जब 5 अगस्त 2019 को जम्मू और कश्मीर के पुनर्गठन की घोषणा की गई थी, तो इस निर्णय का लद्दाख और कारगिल दोनों ने स्वागत किया था क्योंकि उन्होंने इसे राज्य के दर्जे की उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग की दिशा में एक कदम के रूप में देखा था. लेकिन उनका उत्साह तब कम हो गया जब लद्दाख को बिना विधानसभा के एक केंद्रशासित प्रदेश बनाकर उसे एक उपराज्यपाल के अधीन कर दिया गया. हालांकि, उन्हें उम्मीद थी कि दोनों जिला परिषदों को छठी अनुसूची के तहत समान दर्जा प्राप्त होगा.
उनकी उम्मीदों को तब बल मिला जब 11 सितंबर 2019 को आयोजित राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (एनसीएसटी) की 119वीं बैठक ने सिफारिश की कि केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख को छठी अनुसूची के दायरे में लाया जाए. एनसीएसटी ने इसके लिए चार कारण बताए- शक्तियों का लोकतांत्रिक हस्तांतरण, क्षेत्र की विशिष्ट संस्कृति का संरक्षण व प्रचार, भूमि सहित कृषि अधिकारों की सुरक्षा, और अंत में, लद्दाख के त्वरित विकास के लिए धन के हस्तांतरण को बढ़ाना.
हालांकि, ऐसा नहीं होने पर, वांगचुक के साथ-साथ लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) ने पिछले साल से एक साथ इसके लिए मुहिम चलाई है. उन्होंने अपना पहला बड़ा विरोध जनवरी और फरवरी 2023 में किया, जिसके बाद वांगचुक ने पिछले जून में एक और “जलवायु उपवास या क्लाइमेट फास्ट” शुरू किया. 3 फरवरी 2024 को, एलएबी और केडीए ने पूर्ण बंद का आह्वान किया, जिसमें हजारों लोग लेह में इसकी सांस्कृतिक पहचान, पर्यावरण, स्थानीय लोगों के लिए नौकरी में आरक्षण और लेह व कारगिल के लिए एक-एक संसदीय सीट की मांगों के साथ एकत्र हुए.
हालांकि, दिसंबर के अंत और मार्च की शुरुआत के बीच विरोध प्रदर्शन करने वाले इन नेताओं और गृह मंत्रालय (एमएचए) के बीच कई दौर की बैठकें हुईं, लेकिन इसके बाद भी गतिरोध खत्म नहीं हुआ. गृह मंत्रालय का तर्क है कि छठी अनुसूची विशेष रूप से पूर्वोत्तर के लिए है, इसके प्रावधानों के तहत केवल असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम शामिल हैं.
क्या है छठी अनुसूची?
छठी अनुसूची, जो संविधान के अनुच्छेद 244 के अंतर्गत आती है; निर्वाचित, स्वायत्त प्रशासनिक डिवीज़न के गठन का प्रावधान करती है जिन्हें स्वायत्त जिला परिषद (एडीसी) के रूप में जाना जाता है. इन परिषदों के कुछ कार्य राज्यों-जैसे होते हैं क्योंकि उनके पास टैक्स लगाने, वनों का प्रबंधन करने और राजस्व को नियंत्रित करने का अधिकार है. अनिवार्य रूप से, वे किसी राज्य के भीतर कुछ हद तक विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक स्वायत्तता का प्रयोग करते हैं. गौरतलब है कि केंद्र और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानून इन क्षेत्रों पर खुद से लागू नहीं होते हैं, बल्कि उन्हें राज्यपाल द्वारा अधिसूचित किया जाना होता है.
गौरतलब है कि, कथित तौर पर पहले भी गैर सरकारी संगठन विकल्प संगम द्वारा लद्दाख को पांचवीं अनुसूची के तहत शामिल करने की मांग की गई है ताकि इसे ज्यादा स्वयत्ता प्रदान करके इसकी भूमि, पर्यावरण और संस्कृति को सुरक्षित किया जा सके.
अनुच्छेद 244 के तहत पांचवी अनुसूची भी राज्यों के भीतर ऐसे जिलों में लागू होती है जहां अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी कुल जनसंख्या के 50 प्रतिशत से अधिक है. यह वर्तमान में दस राज्यों – आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना और झारखंड पर लागू होती है. छठी अनुसूची के विपरीत, इसमें निर्वाचित निकाय शामिल नहीं हैं. इसके बजाय, राज्यपाल एक जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी) को नामित करते हैं जो कि अनुसूचित जाति के ऐसे निर्वाचित सदस्यों से बनी होती है जिनके पास किसी तरह की न्यायिक या राजस्व संबंधी शक्तियां नहीं होती हैं. इसके अतिरिक्त, छठी अनुसूची के विपरीत, संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित कानून इन क्षेत्रों पर सीधे लागू होते हैं. हालांकि, राज्यपाल के पास उन्हें स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार संशोधित करने की शक्ति है.
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371 के अंतर्गत विशेष प्रावधान
संविधान का अनुच्छेद 371 विभिन्न राज्यों के लिए विशेष प्रावधानों की रूपरेखा पेश करता है. इसकी शुरुआत विदर्भ और मराठवाड़ा (अब महाराष्ट्र में) और सौराष्ट्र व कच्छ (अब गुजरात में) के लिए विशेष प्रावधानों के साथ हुई, जिसमें राज्यपाल को क्षेत्र-विशिष्ट को ध्यान में रखते हुए उसके विकास, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा और रोजगार के अवसरों को सुनिश्चित करने की विशेष जिम्मेदारी सौंपी गई. अन्य राज्यों से संबंधित खंडों को अनुच्छेद 371 के अंतर्गत बाद में संशोधनों के माध्यम से शामिल किया गया था.
अनुच्छेद 371ए को 1960 में केंद्र सरकार और नागा पीपुल्स कन्वेंशन (एनपीसी) के बीच 16-सूत्री समझौते के बाद पेश किया गया था. राजनयिक मेजर बॉब खाथिंग का अगुवाई में इस समझौते के कारण 1963 में नागालैंड राज्य का निर्माण हुआ. इस खंड के अनुसार, संसद राज्य विधानसभा की सहमति के बिना नागालैंड में धार्मिक या सामाजिक प्रथाओं, नागा प्रथागत कानून और भूमि स्वामित्व के मामलों पर कानून नहीं बना सकती है. इसी तरह, मिजोरम के लिए अनुच्छेद 371G के तहत, संसद ऐसे मामलों पर तब तक कानून नहीं बना सकती जब तक कि विधानसभा इस बात का निर्णय न ले.
फिर, असम पर लागू अनुच्छेद 371बी, और मणिपुर के लिए अनुच्छेद 371सी राष्ट्रपति को राज्य विधान सभाओं के भीतर एक समिति गठित करने का अधिकार देता है, जिसमें आदिवासी प्रतिनिधि और उनके द्वारा निर्दिष्ट कोई अन्य सदस्य शामिल होंगे. इसमें राज्यपाल को राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों के प्रशासन पर राष्ट्रपति को वार्षिक या “अनुरोध करने पर” रिपोर्ट देने का भी प्रावधान है. सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को भी क्रमशः अनुच्छेद 371F और 371H के माध्यम से विशेष दर्जा प्राप्त है. आंध्र प्रदेश में, अनुच्छेद 371 के तहत खंड D और E राष्ट्रपति को सार्वजनिक रोजगार और शिक्षा के मामलों में राज्य के विभिन्न हिस्सों के लोगों के लिए समान अवसर और सुविधाएं प्रदान करने का अधिकार देते हैं. 2014 में तेलंगाना के निर्माण के बाद, अनुच्छेद 371D को आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम द्वारा नए राज्य तक विस्तृत कर दिया गया था. अनुच्छेद 371J में कर्नाटक के लिए विशेष प्रावधान हैं, जबकि अनुच्छेद 371I गोवा विधानसभा में न्यूनतम 30 सदस्यों की अनिवार्यता का प्रावधान करता है.
क्या है आगे का रास्ता
संकीर्ण, पारंपरिक अर्थ में, न तो पांचवीं और न ही छठी अनुसूची को केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में लागू किया जा सकता है, भले ही इसकी 97 प्रतिशत आबादी आदिवासी है.
इसके बजाय, लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद अधिनियम 1997 में संशोधन करके इसे और अधिक शक्तियां प्रदान की जा सकती हैं. अभी, परिषदों के पास 73वें संशोधन अधिनियम के तहत जिला पंचायत के समान शक्तियां हैं. भूमि अधिकारों की सुरक्षा के संबंध में अनुच्छेद 371 के समान प्रावधान के साथ-साथ पर्यटन, बुनियादी ढांचे और खनन से संबंधित पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील परियोजनाओं की जांच करने के लिए एक संस्थागत व्यवस्था संभावित रूप से समाधान हो सकती है.
हालांकि, बातचीत की पहल गृह मंत्रालय की ओर से होनी चाहिए. सोनम वांगचुक और अन्य प्रदर्शनकारी अपनी बात रखने के लिए गांधीवादी तरीका अपना रहे हैं. 1947 से अब तक, एक राष्ट्र के रूप में हम अपने मानचित्रों, सीमाओं, नामकरणों और विशेष प्रावधानों में आवश्यक समायोजन करके लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को समायोजित करने में सक्षम रहे हैं. आइए भारत के शिखर लद्दाख – शाब्दिक और रूपक दोनों ही दृष्टि से – के लिए भी ऐसा ही करें.
(संजीव चोपड़ा एक पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के महोत्सव निदेशक हैं. हाल तक, वह लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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