जब 21 फरवरी 1972 को अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन बीजिंग में उतरे और उनकी आगवानी चीन के प्रधानमंत्री झाऊ एन लाई ने की तो दुनिया भर में भू-राजनैतिक परिदृश्य में बदलाव का एहसास घर करने लगा. मैं तब हांगकांग में मन्दारिन पढ़ने गया था और मुझे याद है कि उसका लाइव कवरेज देखने के लिए मैं टीवी से चिपका बैठा था. मेरे स्थानीय चीनी दोस्तों में रोमांच और आशंका दोनों समान रूप से उभर रही थी. रोमांच और गर्व इसलिए कि पश्चिम का अगुआ सनातन चीन के साधु राजा के आगे मत्था टेक रहा है; और आशंका यह कि निर्मम राजनीति का यह मेल उनके भविष्य पर न जाने क्या असर डालेगा. चीन उस वक्त भारी उथल-पुथल वाली सांस्कृतिक क्रांति की चोट से कराह रहा था, जिससे उसके नेताओं और लोगों दोनों के जीवन में उथल-पुथल मची थी. दुनिया अभी-अभी चीन के नेता माओ जे दोंग के नामजद उत्तराधिकारी लिन बियाओ की मौत से वाकिफ हुई थी, जो तख्तापलट की नाकाम कोशिश के बाद मंगोलिया में विमान दुर्घटना में मारे गए थे.
क्रांतिकारी सादगी के पक्ष में वैचारिक अभियान और जन गोलबंदी अभी पूरे शबाब पर थी. तब ऐसे कोई संकेत नहीं थे कि यह ऐसी शुरुआत है, जिससे महज चार दशक में ही चीन आर्थिक सफलता और अप्रत्याशित सैन्य ताकत के अनोखे सफर पर चल पड़ेगा.यह याद करना जरूरी है. अमेरिका शुद्ध भू-राजनैतिक खेल खेल रहा था और चीन को पूंजीवादी नीतियां अपना कर ‘हमारे बीच का एक’ बनाने पर दांव नहीं लगा रहा था. यही बात चीन के लिए भी सच थी. माओ यह सोचकर ही थर्रा उठते कि चीन सोशलिस्ट रास्ते और सरकारी नियंत्रण वाली अर्थव्यवस्था से हटने जा रहा है. चीन का खुलना और आर्थिक सुधारों तथा उदारीकरण को अपनाने की राह माओ की मौत के बाद देंग शियाओ पिंग के नेतृत्व में 1978 में शुरू हुई.
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अमेरिका और चीन के भू-राजनैतिक फायदे काफी अहम थे. त्रिकोणीय सत्ता के संघर्ष में हर खिलाड़ी के दो विरोधी थे, अब दो एकजुट बनाम एक हो गया था. अमेरिका ने 1972 में रूस के आगे चीन को किया था. आज, शायद चीन अमेरिका के आगे रूस को कर रहा है. 1972 में निक्सन के दौरे के आखिर में अमेरिका और चीन ने शंघाई संवाद जारी किया था, जिससे नई भू-राजनैतिक जमीन तैयार होने की राह खुली. तो, क्या रूस के राष्ट्रपति पुतिन के 4 फरवरी 2022 को चीन के दौरे के दौरान रूसी संघ और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चीन के साझा बयान से वैसा ही मोड़ आने वाला है?
दुनिया का सबसे ताकतवर देश मगर अपनी सापेक्ष ताकत मेंं गिरावट के प्रति सचेत अमेरिका एक कमजोर ताकत चीन के साथ गलबहियां कर रहा था, ताकि उसकी बराबरी की ताकत सोवियत संघ को बचाव की मुद्रा में लाया जा सके. आज, दुनिया की उभरती ताकत चीन अपेक्षाकृत कम ताकत वाले रूस के साथ जुड़ रहा है, ताकि उसके बराबरी के प्रतिद्वंद्वी अमेरिका को झुकाया जा सके. दोनों ही मामलों में दो विरोधी देशों के बीच गठजोड़ इसलिए संभव हो सका क्योंकि विचारधारा संबंधी मतभेदों के बावजूद नए साथी से कोई अहम सुरक्षा खतरा नहीं है. गठजोड़ की वह गुगली तब कमजोर पड़ गई, जब शीत युद्ध खत्म हुआ और अमेरिका 2007-08 के वैश्विक आर्थिक संकट तक 25 वर्षों तक एकछत्र आधिपत्य का मजा उठाता रहा. आर्थिक संकट ने उसकी सापेक्ष ताकत में टूटन पैदा कर दी और चीन तथा दूसरी बड़ी ताकतों के बरअक्स उसका असर कमजोर हो गया.
अमेरिका अगर स्वाभाविक तौर पर या अपने फैसलों से कमजोर होता गया और रणनीतिक जमीन खोता गया तो क्या चीन के लिए एकछत्र आधिपत्य की सुबह खिल सकती है? ऐसा नजारा भारत जैसे देश के लिए सबसे ज्यादा चिंता का सबब होना चाहिए. नकारात्मक पहलू यह है कि अमेरिका, चीन और रूस के त्रिकोणीय समीकरण में चीन के हाथ ही बागडोर है. यह समझ से परे नहीं है कि अमेरिका मौजूदा तनावपूर्ण स्थितियों से निकलने के लिए यूरोप पर रूस से कोई सौदा कर ले और अधिक गंभीर चीनी चुनौती पर अपना ध्यान लगाए. हालांकि अमेरिका अपनी रणनीति को ऐसे रंग में रंगने दे रहा है, जिससे वह रूस का मौलिक विरोधी जैसा लगे. 1972 में निक्सन और किसिंगर के लिए यह बात खास मायने नहीं रखती थी कि वे एक सर्वसत्तावादी देश के साथ पींगे बढ़ा रहे हैं. पुतिन उस खांचे में कहीं नहीं हैं.
निक्सन के उस दौरे के दौरान अमेरिका में अपेक्षाकृत राजनैतिक स्थिरता थी, जबकि चीन में हालात अराजक थे. रूस का नेतृत्व स्थिर मगर अटका हुआ था. आज, अमेरिका की घरेलू राजनीति गहरे ध्रुवीकरण की शिकार है. इससे आज अमेरिका के साथ किसी तरह की साझेदारी समस्या वाली और अनिश्चित-सी है. पुतिन और शी जिनपिंग तानाशाह हो सकते हैं लेकिन फिलहाल उनकी पकड़ मजबूत लगती है.
अमेरिका के हाथ आज चीन के साथ गहरे आर्थिक और वाणिज्यिक जुड़ाव से बंधे हुए हैं, जो शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ से होड़ के दौरान नहीं था. अमेरिका आर्थिक प्रतिबंधों को भू-राजनैतिक औजार की तरह इस्तेमाल करता है और उसने रूस को यूक्रेन में घुसपैठ के खतरनाक नतीजों की धमकी दी है. लेकिन इससे तो चीन-रूस साझेदारी मजबुत ही होगी. फ्रांस और जर्मनी जैसे अमेरिका के अहम साझेदार रूस के खिलाफ प्रतिबंधों के मामले में उसका साथ देने से हिचक रहे हैं. ये देश चीन के खिलाफ ऐसा करने से तो और विदकेंगे क्योंकि वहां उनके बड़े आर्थिक दांव जो लगे हैं.
अगर अमेरिका इस नतीजे पर पहुंचता है कि रूस ज्यादा बड़ा खतरा है और चीन का साथ सही है तो वह नजारा भारत के लिए बुरे सपने जैसा होगा. इसका दो-टूक मतलब यह है कि यूरोप के अपने हलके की रक्षा के लिए एशिया में चीन का दबदबा मंजूर है. इससे चीन के एकछत्र आधिपत्य की राह आसान हो सकती है लेकिन अमेरिका का रूस को लेकर जुनून उसे फीका भी कर सकता है.
निक्सन के दौरे में ‘झटका और रोमांच’ दोनों का एहसास था. आज जो हो रहा है, वह उसी प्रक्रिया का हिस्सा है, जो मोटे तौर पर 2007-08 के आर्थिक संकट से शुरू हुई. इसका असर पहले जैसा नाटकीय नहीं हो सकता, मगर इसके गंभीर और स्थायी परिणाम हो सकते हैं. रणनीतिक व्यावहारिकता तो यही मांग करती है कि अचानक किसी प्रतिक्रया के बदले इन विभिन्न परिदृश्यों की बारीक पड़ताल की जाए, भारत पर असर को समझा जाए और देश के हितों की रक्षा के लिए संभावित विकल्पों की पहले ही तलाश की जाए.
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(श्याम सरन पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर में सिनियर फेलो हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)
(यह लेख पहले दि ट्रिब्यून में छप चुका है और अनुमति के साथ फिर छापा जा रहा है.
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