मुंबई और दिल्ली में बीबीसी के कार्यालयों में आयकर ‘सर्वेक्षण’ ने कुछ गरमागरम बहस को जन्म दिया है. जो होना है उसका मोटे तौर पर अनुमान लगाया जा सकता है. विपक्ष इसे गुजरात दंगों पर डॉक्यूमेंट्री, इंडिया: द मोदी क्वेश्चन प्रसारित करने के लिए बीबीसी को दंडित करने के प्रयास के रूप में देखता है. कांग्रेस के जयराम रमेश ने कहा कि सरकार “बीबीसी को परेशान कर रही है”. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने सरकार पर डर और दमन के लिए खड़े होने का आरोप लगाया और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया व प्रेस क्लब ऑफ इंडिया जैसे प्रेस निकायों ने भी कार्रवाई की निंदा करते हुए बयान जारी किए.
नरेंद्र मोदी सरकार ने दोतरफा जवाब दिया है. पत्रकारों को बीबीसी के खिलाफ आरोपों की एक लंबी सूची के साथ एक प्रेस नोट भेजा गया था और मीडिया को इन गंभीर आरोपों को ‘सूत्रों’ के हवाले से करने के लिए कहा गया था. कोई भी सरकारी विभाग या अधिकारी नाम बताने को तैयार नहीं था.
भाजपा के प्रवक्ता और समर्थक अधिक मुखर थे. पार्टी के एक आधिकारिक प्रवक्ता गौरव भाटिया ने बीबीसी को “दुनिया का सबसे भ्रष्ट निगम” कहा. और सोशल मीडिया पर, भाजपा-समर्थक बीबीसी पर एक औपनिवेशिक मानसिकता का आरोप लगाते हुए, सच्चाई के लिए कोई सम्मान नहीं होने इत्यादि का आरोप लगाते हुए अपशब्द कहे.
इस बहस में आप कहां खड़े हैं, इसका संभवत: आपके राजनीतिक विचारों से अधिक लेना-देना है न कि मामले के तथ्यों से. इसलिए मैं बीबीसी के खिलाफ आरोपों की पड़ताल करने में समय बर्बाद नहीं करना चाहता, ख़ासकर इसलिए कि आज तक किसी भी ज़िम्मेदार संस्था ने कोई ख़ास आरोप नहीं लगाया है.
अब तक हम जानते हैं कि मोदी सरकार रिपोर्टिंग की सामग्री पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय उन मीडिया संगठनों के खिलाफ वित्तीय अनियमितता के आरोप लगाना पसंद करती है, जिन्हें वह शत्रुतापूर्ण मानती है. हम नहीं जानते कि ये आरोप कितने वैध हैं क्योंकि पूछताछ जारी है और जहां तक मैं बता सकता हूं, अभी तक किसी भी आरोप में किसी को दोषी नहीं ठहराया गया है.
यह सनक भरा लग सकता है लेकिन सच्चाई यह है कि यह दृष्टिकोण काफी हद तक प्रभावी रहा है. यह सरकार के कट्टर आलोचकों को चुप नहीं करा सकता है, लेकिन घरेलू मीडिया का अधिकांश हिस्सा अब बहुत सावधानी से चलना पसंद करता है.
लेकिन, यहां यह ऐसी चीज है जिसके बारे में मैं नहीं बता सकता: जब विदेशी मीडिया और बीबीसी की बात आती है, तो अंत क्या होता है?
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तीन कारण
सरकार में किसी ने बीबीसी कर्मचारियों के ‘सर्वे’ और लैपटॉप और फोन जब्त करने का आदेश दिया होगा. जिसने भी ऐसा किया वह तीन कारणों में से एक के लिए कार्य कर सकता था.
एक: वास्तव में ऐसा कोई मामला था जिसकी वजह से बीबीसी के ऊपर कार्रवाई की जाए और उससे जवाब मांगा जाए.
दो: गुजरात दंगों पर बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री को लेकर बीजेपी में इतना गुस्सा है कि कार्रवाई शुद्ध और सीधे तौर पर प्रतिशोध की वजह से की गई.
और तीन: चूंकि सरकार को घरेलू प्रेस को दबाने में कुछ सफलता मिली है, इसलिए उसका मानना है कि यही दृष्टिकोण विदेशी मीडिया के साथ भी काम करेगा.
आइए पहले विकल्प पर विचार करते हैं. अगर सरकार के पास बीबीसी द्वारा टैक्स चोरी के पुख्ता सबूत हैं, तो उसे ऐसा कहना चाहिए. ‘स्रोतों’ के हवाले से और मीडिया में प्लांट की गई रिपोर्ट्स इसके लिए पर्याप्त नहीं हैं. और “दुनिया में सबसे भ्रष्ट निगम” बीबीसी के खिलाफ जानबूझकर आग उगलने को देखते हुए यह केवल एक साधारण जांच नहीं है.
अगर कोई गुमराह है तो दूसरा विकल्प समझ में आता है. शायद मोदी सरकार में कई लोगों के पास बीबीसी से नाराज़ होने की वजह है. लेकिन क्या वे वास्तव में टैक्स ‘सर्वे’ का आदेश देकर इसे दंडित कर रहे हैं?
पूरी बीबीसी एक ही नहीं है. उदाहरण के लिए, जो लोग मुंबई कार्यालय में बैठते हैं, उनका गुजरात डॉक्युमेंट्री से कोई लेना-देना नहीं है. अगर आप उन्हें परेशान करते हैं तो हो सकता है कि एक-दो दिनों के लिए आपको अच्छा महसूस हो, लेकिन डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. या लंदन में अन्य लोगों को भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा और वे भारत में हो रही गतिविधियों के में प्रतिकूल रूप से रिपोर्ट करना जारी रखेंगे.
लेकिन यह तीसरा विकल्प है जो सबसे ज्यादा चिंता का विषय है. दुनिया में कहीं भी कोई भी सरकार वैश्विक मीडिया को सफलतापूर्वक धमकाने, डराने या डराने में सक्षम नहीं हो पाई है. ईश्वर साक्षी है कि काफी सरकारें कोशिश कर चुकी हैं और विफल हो चुकी हैं. प्रतिशोधात्मक कार्रवाई केवल इस धारणा को और गहरा करती है कि कुछ बहुत गलत है और सरकार नहीं चाहती कि इसकी सूचना दी जाए. 12 फरवरी को, द न्यूयॉर्क टाइम्स के संपादकीय बोर्ड ने लिखा कि भारत सरकार की “प्रेस की स्वतंत्रता को दबाने की कार्रवाई दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत की गौरवपूर्ण स्थिति को कम कर रही है”.
क्या मोदी सरकार में कोई मानता है कि बीबीसी को परेशान करने से ऐसी आलोचना खत्म हो जाएगी? क्या जो घरेलू मीडिया पर काम करता है वह विदेशी मीडिया के साथ भी काम करेगा? या कि वैश्विक मीडिया भारत के बारे में नकारात्मक खबरें पोस्ट करने से पहले दो बार सोचेगा?
वास्तव में, यह अब और भी बदतर हो जाएगा.
यही कारण है कि यह पता लगाना इतना कठिन है कि सरकार का अंतिम कदम क्या होगा. हम पहले भी इस स्थिति में रहे हैं. 1971 में, इंदिरा गांधी ने उन डॉक्युमेंट्रीज को लेकर बीबीसी को बैन कर दिया था, जिनके बारे में उनका मानना था कि भारत को खराब तरीके से दिखाया गया है. बीबीसी को बाद में वापस काम करने की अनुमति दी गई जब इंदिरा गांधी ने महसूस किया कि उनके इस कदम से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.
आपातकाल के दौरान, कई विदेशी पत्रकारों को निष्कासित कर दिया गया था और सरकार व उनके नुमाइंदों द्वारा उस वक्त भी ग्लोबल मीडिया को काफी गालियां (जैसा कि अभी हो रहा है) दी गई थीं.
लेकिन जब 1980 के दशक में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं तो उन्होंने अपनी पहले की शत्रुता को त्याग दिया और विदेशी प्रेस को इंटरव्यू दिया. वास्तव में, ग्लोबल मीडिया ने शायद इंदिरा गांधी की हालत और खराब ही कर दी थी.
भारत एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में
1980 की तुलना में भारत आज बेहतर स्थिति में है. हम एक बहुत बड़ा बाजार हैं. हम एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी हैं जिसका (जैसा कि यूक्रेन संघर्ष में भी दिखता है) रूस और अमेरिका दोनों का समर्थन प्राप्त है लेकिन अपने हित में अपने फैसले खुद करता है. प्रधानमंत्री की दुनिया के प्रमुख नेताओं के साथ मित्रता है जो वैश्विक समारोहों में उनसे मुलाकात करते हैं.
इसलिए, भले ही वैश्विक मीडिया सरकार पर हमला करे, पर इससे विश्व मंच पर भारत के साथ किए जाने वाले व्यवहार पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. शायद यही चीज है जो कि सरकार को विदेशी प्रेस के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत देता है.
लेकिन आप इसे अलग तरीके से भी देख सकते हैं: अगर मोदी को दुनिया के नेताओं का विश्वास प्राप्त है, तो वह एक कम देखे जाने वाले डॉक्युमेंट्री की परवाह क्यों करते हैं जिस पर उनकी सरकार ने वैसे भी प्रतिबंध लगा दिया है? जब उनके फॉलोवर इस पर ज्यादा फोकस करते हैं, तो वे इसे अन्यथा मिलने वाले महत्त्व की तुलना में अधिक महत्व देते हैं.
बीबीसी के खिलाफ आयकर जांच ने उस डॉक्युमेंट्री को फिर से सुर्खियों में ला दिया है.
इससे सरकार को फायदा हुआ या नुकसान? अगर बीजेपी ने इतना बवाल न किया होता तो क्या अब तक डॉक्यूमेंट्री को भुला नहीं दिया गया होता?
बेशक, सरकार को बीबीसी की जांच करने का अधिकार है अगर उसे लगता है कि संस्था के पास ऐसा कुछ है जिसका जवाब देना जरूरी है. और इसे हाल के महीनों में प्राप्त सभी प्रेस से दुखी महसूस करने का अधिकार है.
लेकिन क्या यह आगे बढ़ने का सही तरीका है? ऐसा कोई कारण नहीं दिखता है जिसमें यह भाजपा या सरकार के लिए किसी भी प्रकार की जीत के साथ समाप्त हो. और ऐसे कई कारण प्रतीत होते हैं जहां यह अधिक आलोचना और अधिक समस्याओं की ओर ले जाता है.
तो, एक पल के लिए भूल जाइए, घरेलू राजनीतिक लड़ाई वर्तमान में ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ बनाम ‘फासीवादी शासन’ के बारे में अपनी बयानबाजी से भड़की हुई है और एक सरल और व्यावहारिक प्रश्न पूछिए: यह दृष्टिकोण सरकार के लाभ के लिए कैसे काम कर सकता है?
कम से कम मैं इसे नहीं समझ सकता.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsangvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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