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Saturday, 21 December, 2024
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हरियाणा में मिले 1 लाख साल पुराने सभ्यता के अवशेष, भारतीय संगीत के इतिहास पर भी फिर से विचार की जरूरत

वेदों में वर्णित संगीत और वर्तमान संगीत में हुए विकास को अपनाया जा रहा है तो प्रस्तर युगीन मानव के संगीत के लुप्त हो जाने और उसके परिवर्तित एवं विकसित रूप को ग्रहण करने में आपत्ति क्यों?

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भारत की प्राचीनता हमें सभ्यता एवं संस्कृति के मूल, जिसमें संगीत का जन्म होना संभव है, की खोज के निहितार्थ सुदूर अतीत की गहराइयों में जाने के लिए प्रेरित करती आई है.

अभी हाल ही में मानव-विज्ञान के क्षेत्र में इज़रायल और उत्तर पूर्व चीन में हुई अहम खोजें मानव-विकास को नया आकार देने में समर्थ हुई हैं और जिनका अस्तित्व लाखों साल पुराना है. हरियाणा के राखीगढ़ी से प्राप्त पुरावशेष वैज्ञानिक आधार पर सिंधु घाटी सभ्यता को 4500 वर्ष पीछे ले जाते हैं. जुलाई 2021 हरियाणा में मंगर बानी के पास अरावली पहाड़ियों की गुफाओं में उकेरे गए चित्र मिले हैं जो एक लाख साल पुराने हो सकते हैं और हरियाणा के अब तक के ज्ञात इतिहास को हज़ारों साल पीछे पहुंचा देते हैं. जो वैज्ञानिक आधार पर सही अर्थों में मानव-विकास के प्रयासों का प्रमाण हैं.

लेकिन भारतीय संगीत का इतिहास वर्तमान में प्रचलित पुस्तकों में आज भी इस केंद्र से विमुख उस धुरी पर ही चक्कर काट रहा है जिसका आधार प्राकृतिक, मनोवैज्ञानिक एवं धार्मिक परम्पराएं हैं. मानव सभ्यता की इन तमाम खोजों का आधार 100 वर्षों से भी अधिक पुराना होने के बाद भी आज के संगीत या उसके इतिहास के विषय में इनका ज़िक्र भी दुरूह है. विश्वख्याति प्राप्त शैल चित्रों में सांगीतिक साक्ष्यों की असीमित उपलब्धता, पाषाण युगीन हड्डी के निर्मित वाद्य यंत्रों का हज़ारों साल पुराना होना भी संगीत इतिहास में कोई मायने नहीं रखता. वह आज भी संगीत को ईश्वर निर्मित मान कर वेद परंपरा को आंखें मूंद कर स्वीकार करते हैं. उनकी दृष्टि में वेद अनंत हैं और यही उनकी संतुष्टि का आधार है और यही ज्ञान आज भी विश्वविद्यालीन स्तर पर प्रदान किया जा रहा है.

वर्ष 2019 में वेदवीर आर्य ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन क्रोनोलॉजी’ में वैज्ञानिक आधार पर चारों युगों (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग) के काल- निर्धारण में यह स्वीकार किया है कि हमारा इतिहास जो भी लिखा गया है उसका आदि पुरुष स्वयंभू मनु है, जिनके पिता ब्रह्मा थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उनसे पहले मनुष्य थे ही नहीं, बस उनका लिखित इतिहास प्राप्त नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि मानव सभ्यता के जिन चरणों/ युगों में वैदिक परंपराओं का निर्वहन हुआ उन सभ्यताओं की मौजूदगी के साक्ष्यों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता. संभवतः इसी कारण से विश्वभर में मानव-विकास एवं उससे जुड़ी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति पर शोधकार्य हो रहे हैं.

ऐसे में संगीत इतिहास की पुस्तकों में इस अलिखित काल के युग को तथ्यों के अभाव में ‘अंधकार युग’ कह के पीछे हट जाना वास्तव में पुरातात्विक खोजों का उपहास उड़ाना और अपनी ज्ञान शून्यता का परिचय देना है.


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सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है, जिसकी खोज को अभी हाल ही में 100 वर्ष पूरे हुए हैं. उसके संबंध में भारतीय संगीत Dancing Girl पर यह प्रश्न चिन्ह लगाने की बजाय कि एक उच्चकोटि की सभ्यता में पूर्णतया नग्न स्त्री का नर्तकी होना कितना संभव है, क्या इस मूर्ति की भूमिका को नर्तकी की संज्ञा से पृथक करके नहीं देखा जा सकता (?), सिंधु घाटी सभ्यता संगीत के नाम पर केवल इसी के इर्द-गिर्द ही घूम रही है और अन्य सांगीतिक सामग्री से तो उनका कोई सरोकार ही नहीं. यहां अनभिज्ञता तब और भी प्रखर हो जाती है जब संगीत इतिहास की पुस्तकों में सिंधु घाटी सभ्यता को आद्यैतिहासिक (Proto-Historic) के स्थान पर प्रागैतिहासिक (Prehistoric) कहा जाता है. हमें यह समझना होगा कि भारतीय संगीत के इतिहास एवं अन्य अधिकतर पहलुओं का वास्तविक अर्थ ठीक वैसा ही नहीं है जैसा कि शिक्षण पद्धति में पढ़ाया जा रहा है. शास्त्र की परंपरा के सीमित दायरे के इतर उसकी मूल स्थिति इस संदर्भ में विलक्षण ही साबित होगी.

लेकिन वर्तमान संगीत इतिहासकारों ने इस पक्ष पर यथासंभव कार्य नहीं किया अन्यथा भारतीय संगीत के इतिहास के मूल में जिस कल्पना का सहारा सदियों से लिया जाता रहा है वह अवश्य ही इन तमाम खोजों के पश्चात तो नवीन दृष्टिकोण का पक्षधर हो चुका होता.

संगीत कला को मानव-निर्मित ना मानने का कारण विद्वानों द्वारा यह दिया जाता है कि प्रस्तर युग मानव के गीत लुप्त हो चुके हैं और वाद्य इत्यादि नष्ट हो चुके हैं, इसलिए संगीत की उत्पत्ति जानने के लिए उपलब्ध सांगीतिक पुरावशेष प्रमाण पुरातन नहीं है. लेकिन कुछेक विद्वानों ने भारतीय परंपरा की वैदिक पृष्ठभूमि को संगीत का आदि रूप मानने में असहमति दिखाई है और उसके प्रस्तर युगीन होने के पक्ष में समर्थन किया है. जिनमें संगीत विद्वान लालमणि मिश्र (भारतीय संगीत वाद्य पुस्तक के लेखक) का नाम लिया जा सकता है. वर्तमान प्रसिद्ध संगीत शास्त्री एवं समीक्षक प्रो. मुकेश गर्ग जी भी इसका समर्थन करते हैं कि संगीत मानव द्वारा निर्मित कला है और उसके प्रयासों का ही विकसित रूप है.

वेदों में वर्णित संगीत और वर्तमान संगीत, चाहे वह पुराणों का हो या विश्वविद्यालीन, क्या हम उनके अन्तर से परिचित नहीं हैं और यदि हां तो जब इस संगीत में हुए विकास को अपनाया जा रहा है तो प्रस्तर युगीन मानव के संगीत के लुप्त हो जाने और उसके परिवर्तित एवं विकसित रूप को ग्रहण करने में आपत्ति क्यों? वर्तमान विश्वविद्यालयी संगीत शिक्षण में क्यों ये तथ्य चर्चा एवं शोध का विषय नहीं है? भारतीय संगीत का इतिहास प्रस्तर युगीन संगीत एवं सिंधु घाटी जैसी प्राचीनतम सभ्यता के संगीत जैसे विषयों से परिचित न करा के क्यों अब तक मुख्य धारा से दूरी बनाये हुए है? क्यों विश्वविद्यालयी संगीत में ‘संगीत’ कह देने से उसके शास्त्र पक्ष के इतर उसके सम्यक अर्थ को ग्रहण करना उचित नहीं समझा गया? इस प्रकार के तमाम प्रश्न प्रचलित भारतीय संगीत के इतिहास पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करते हैं.

वर्तमान इतिहास सुधार के दौर में जब विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालीन स्तर पर भारत के इतिहास के विषयों को संशोधित करने का कार्य प्रगति पर है. ऐसे में भारतीय संगीत के इस अनछुए अध्याय को अतीत की गहराइयों से निकाल कर वर्तमान संगीत के इतिहास के समक्ष इस विषय के धुंधलेपन को अनावरण करना समय की मांग है और कला संरक्षण की दृष्टि से ‘संगीत इतिहास पर पुनर्विचार’ इसकी वृद्धि का एक अतुलनीय सोपान भी है.

(डॉ. चित्रा शंकर प्राचीन भारतीय संगीत, पुरातत्व एवं संगीत, ब्राह्मी लिपि की शोधकर्ता हैं)

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