मायावती एक नायक नहीं बल्कि एक सूत्रधार के रूप में सबसे उचित जगह पर हैं। अगर वह घोषणा करती हैं कि वह प्रधान मंत्री पद के लिए दौड़ में नहीं हैं तो सबसे बड़ी दलित नेता के रूप में उनकी स्थिति उन्हें विपक्षी एकता के लिए सत्ता का असली सूत्रधार बना देगी।
बुधवार को कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में एच.डी. कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में कुमारस्वामी उस ख़ास पल के असली सितारे नहीं थे।
हालिया स्मृति में बेंगलुरु का यह कार्यक्रम विपक्षी एकता का सबसे बड़ा शो बन गया, जिसमें बहुत सारे लोगों को एक साथ लाया गया जैसे तृणमूल कांग्रेस और सीपीएम, जो एक दूसरे से कभी सहमत नहीं होते। ममता बनर्जी या राहुल गाँधी या यहाँ तक कि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गाँधी भी इस शो की स्टार नहीं थीं। यह मायावती थीं जिनके पास वर्तमान में लोकसभा की एक भी सीट नहीं है।
कैमरों के लिए सावधानी से तराश के तैयार किए गये अनुराग के सार्वजनिक प्रदर्शन में सोनिया गाँधी ने मायावती को किनारे से गले लगाया। मायावती, जो भावनाओं को धोखा देने के लिए नहीं जानी जातीं, को ठहाके लगा कर हंसने के लिए मजबूर होना पड़ा यानि कि राष्ट्रीय मंच पर अपेक्षित महत्व मिलने पर वह स्पष्ट रूप से प्रसन्नचित्त दिखाई दीं। सोनिया गाँधी ने मायावती का हाथ पकड़ा और फिर सभी विपक्षी नेताओं के एक साथ आने पर उनका हाथ ऊपर उठा दिया।
प्रतीकवाद को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कांग्रेस पार्टी क्षेत्रीय नेताओं के साथ अपने अहंकार को कम कर रही है और यहाँ एच.डी. कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाकर जूनियर पार्टनर की भूमिका अदा करते हुए मायावती के हाथ को ऊंचा उठाकर खुश है।
विपक्षी एकता के आशय को एक बड़ा प्रोत्साहन मिला है। उदार और मिलनसार शारीरिक भाषा के साथ घर की बड़ी महिला की भांति सोनिया गाँधी की उपस्थिति इस एकता के आशय में एक लम्बी दूरी तय कर सकती है। उनकी उपस्थिति ने के.चंद्रशेखर राव के एक ‘संघीय मोर्चा’ बनाने के प्रयासों पर भी प्रहार किया, जो भाजपा से निपटने के लिए कांग्रेस को इसमें शामिल नहीं करता। उड़ीसा के नवीन पटनायक भी दूर रहे।
माना जा सकता है कि विपक्षी एकता ने भाजपा को कर्नाटक की बागडोर हाथ में लेने से रोक दिया है लेकिन चुनौतियाँ अभी बाकी हैं। इस एकता में अनिच्छुक सहयोगी और आंतरिक विरोधाभास होंगे। केसीआर और नवीन पटनायक अपने संबंधित राज्यों में कांग्रेस से लड़ते हुए कांग्रेस के साथ भव्य गठबंधन में शामिल कैसे हो सकते हैं? क्या कांग्रेस वास्तव में इस तरह के गठबंधन के साथ चुनाव-पूर्व यह समझ विकसित कर सकती है, उदाहरण के लिए: पश्चिम बंगाल में तृणमूल के साथ जहाँ उनके आपसी मतभेद हैं।
यहाँ तक कि वो नेता भी जिन्हें ऐसी कोई समस्या नहीं है, उन्हें भी एक बड़ी समस्या है कि वो प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। एच.डी. देवगौड़ा, ममता बनर्जी, मायावती, केसीआर कुछ ऐसे नाम हैं जो प्रधान मंत्री बनने की इच्छा रखते हैं।
यदि विपक्ष को मोदी की प्रबल शक्ति को हराना है, इसके पास कोई चारा नहीं है सिवाए यह सुनिश्चित करने के कि 2019 में प्रत्येक लोकसभा सीट पर भाजपा के विरुद्ध केवल एक ही प्रतिद्वंदी होना चाहिए। मतों में किसी भी प्रकार का विभाजन स्वतः भाजपा को जीत दिलाता है। हालाँकि यह मात्र अंकगणित नहीं है। यदि यह विभाजित घरौंदे के रूप में नजर आता है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसे एक निम्नस्तरीय अस्थिर गुटबंदी बताकर विपक्ष पर हमला करेंगे।
सूत्रधार
चुनाव से पहले और चुनाव के बाद के दोनों परिदृश्यों में विपक्ष को एक सूत्रधार की आवश्यकता है जो इन भिन्न-भिन्न दलों को एक धागे में जोड़ सके।
यह भूमिका यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी या कांग्रेस पार्टी में उनके किसी भी सहयोगी द्वारा नहीं निभाई जा सकती क्योंकि कांग्रेस को प्रधान मंत्री की कुर्सी पर कब्जा करने की महत्वाकांक्षा है। सोनिया गांधी और कांग्रेस एक सहारा तो बन सकते हैं, लेकिन वे निष्पक्ष सूत्रधार नहीं हो सकते हैं।
हरकिशन सिंह सुरजीत गठबंधन की राजनीति के असली किंग मेकर, गठजोड़ करने में माहिर और एक अनुभवी सूत्रधार थे क्योंकि उन्हें और उनकी पार्टी को स्पष्ट रूप से उच्च पद की कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी। क्षेत्रीय नेता जो एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते हैं और शीर्ष पद को लेकर एक दूसरे पर नज़र रखते हैं इन सब के बीच सुरजीत एक गोंद के रूप में थे जो इन सभी को एक साथ जोड़े हुए थे।
1989 में वीपी सिंह की सरकार से लेकर 2004 की यूपीए-1 की सरकार तक सुरजीत ने हर गैर-बीजेपी गठबंधन वाली सरकार को एक साथ लाने में एक केन्द्रीय भूमिका निभाई थी। 2008 में उनका निधन हो गया। इसके बाद से उनकी पार्टी, सीपीएम, व्यक्तित्व और विचारों की लड़ाई में फंस कर रह गयी है। प्रकाश करात, जिन्होंने अपनी पार्टी को राष्ट्रीय सन्दर्भ में असंगत बना दिया, और सीताराम येचुरी, जो सोचते हैं कि उनकी पार्टी को राष्ट्रीय भूमिका निभानी चाहिए, अपनी मूर्खता पर कायम हैं। 2018-19 में सीपीएम पार्टी और उसके नेता उस दशा में नहीं है कि वे हरकिशन सिंह सुरजीत जैसी भूमिका निभा सकें।
गठबंधन की बहन जी
मायावती यह भूमिका निभाने के लिए सबसे अच्छी जगह पर हैं यदि वह केवल अपनी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाओं को दूर रख सकें। प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार के रूप में मायावती एक मुसीबत होंगी क्योंकि यह बीजेपी के पक्ष में ऊंची जातियों और ओबीसी के एकीकरण को बढ़ावा देगा। ताज़ा खबर: वे दलित प्रधानमंत्री नहीं चाहते, निश्चित रूप से मायावती की तरह अपने ही विचार रखने वाला कोई भी नहीं।
लोकसभा में शून्य सीटों और उत्तर प्रदेश विधान सभा में केवल 19 सीटों के बावजूद भी मायावती अन्य सभी क्षेत्रीय नेताओं से ऊपर स्थान रखती हैं। भारतीय राजनीति में सबसे बड़ी दलित नेता के रूप में उनकी स्थिति निर्विरोध है और यह निर्धारण इस बात से नहीं होता कि उनके पास कितनी सीटें हैं।
मायावती कभी-कभार ही बोलती हैं लेकिन जब वह बोलती हैं तो उनके शब्दों में वजन होता है। वह जेडी (एस), जिसे उन्होंने कर्नाटक में समर्थन दिया था, के साथ चुनाव से पहले गठबंधन न करने के लिए कांग्रेस को अनुशासित कर सकती हैं, और फिर भी सोनिया गांधी उनसे बहन की तरह गले लग सकती हैं। वह राजा भैया, एक डॉन, जिनसे वह सहमत नहीं होती हैं, से दोस्ती के लिए अखिलेश यादव को सार्वजनिक रूप से डांट सकती हैं और अखिलेश यादव को उन ट्वीट्स को डिलीट करना पड़ता है जिनमें में राजा भैया को धन्यवाद देते हैं।
पूरे भारत में, मायावती को दलित मतदाताओं द्वारा सम्मान दिया जाता है, भले ही वे उनकी पार्टी को वोट न दें। प्रायः मतदान का अर्थ जीतने की क्षमता से होता है और केवल दलित वोट बीएसपी को एक सीट भी नहीं जिता सकते। लेकिन स्वतंत्र, महत्वपूर्ण, और व्यापक रूप से सम्मानित दलित नेता के रूप में उनकी स्थिति के लिए धन्यवाद, वह अपनी क्षमता से भी अधिक प्रभाव डालती हैं।
यदि मायावती घोषित करती हैं कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं है और विपक्षी एकता के निहित अर्थ को समर्थन देती हैं तो सबसे बड़ी दलित नेता के रूप में उनकी स्थिति उन्हें विपक्षी एकता के लिए सत्ता के असली सूत्रधार के रूप में स्वीकार्य बनाएगी। वह प्रधान मंत्री की कुर्सी से बड़ी हो सकती हैं, लेकिन यह मुश्किल है कि वह कुर्सी की महत्वाकांक्षा से परे देख पाएंगी।
Read in English: Mayawati should give up her prime ministerial ambitions.