प्रादेशिक पार्टियों का फिर से एक हो जाना, पहले से शुरू हो चुका है तथा वे अपना साजो-सामान लेकर परिवर्तन का मौका तलाश रहे हैं.
उत्तर प्रदेश उपचुनाव नतीजों ने एक बार फिर दिखा दिया है सूबेदारों की ताकत कम नहीं हुई हैं, जैसा कि कईयों को विश्वास था. वे एकजुट होकर काम करें, तो अभी भी बहुत-सी वोटें आकर्षित करने की ताकत रखते हैं. यह सिलसिला 2019 तक जा सकता है.
क्रॉस-पार्टी गठबन्धन की बातचीत को काफी प्रचलन व राजनीतिक बल मिल रहा है.
क्या फेडरल फ्रंट के लिए समय सही है? प्रादेशिक नेताओं, जैसे कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी या तेलन्गना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव (केसीआर) से पूछिए. वे कह सकते हैं कि ‘कोशिश करने में बुराई नहीं है.’
बीजेपी के नेतृत्व में 22 राज्यों में एनडीए के ‘ड्रीम-रन’ ने, प्रादेशिक सूबेदारों को काफी सतर्क कर दिया है. 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले उमड़ती हुई बीजेपी को संभालने के लिए उन्हें एकजुट होना पडेगा ताकि उनका अस्तित्व बना रहे.
दरअसल, अब इन नेताओं में यह होड़ लगी है कि विपक्ष का नेतृत्व कौन करे. पिछले हफ़्ते, केसीआर ने सबको हैरत में डाल दिया, यह कहते हुए कि वह ‘तीसरे फ्रंट’ का नेतृत्व करने के लिए तैयार हैं. इसके कुछ ही दिनों बाद, अपने फेडरल फ्रंट को प्रारंभ करने ममता भी आगे आईं. टीएमसी प्रमुख ने कहा, ‘मैं सबकी सहायता करूंगी. मैं सभी बीजेपी विरोधी पार्टियों के साथ समन्वय बनाऊंगी, ताकि वे सब इकट्ठे मिलकर काम कर सकें. यह एक बड़ी लड़ाई है.’ ममता ने इसका पालन करते हुए डीएमके कार्यकारी अध्यक्ष एम के स्टालिन, एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार व अन्यों से बातचीत की. दिलचस्प बात यह है कि,पवार ने बजट सैशन शुरू होने से पहले ही विपक्ष को इकट्ठा करने की पहल कर दी थी. वह 27 मार्च को इस पहल को आगे ले जाने के लिए एक मीटिंग करने वाले हैं.
मंगलवार को 20 बीजेपी विरोधी पार्टियों को एक करने के लिए ‘कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी’ की नेता सोनिया गांधी भी एक भव्य रात्रीभोज रख कर पीछे नहीं रहीं. रात्रीभोज में दो नए लोग शामिल हुए थे – झारखण्ड से बाबूलाल मरांडी व बिहार से जीतन राम मांझी. राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते, कांग्रेस बीजेपी विरोधी पार्टियों का नेतृत्व करना चाहती है. इसने ‘सयुंक्त मोर्चे’ की योजना खारिज कर दी है.
वित्तमंत्री अरूण जेटली ने भी कहा, ‘आपकी तथाकथित फेडरल फ्रंट की आकांक्षा है, जो कि पहले से आजमाया, परखा व असफल विचार है. जितनी बार भी यह सामने आया, हर बार ही यह असफल हुआ और पूर्व में परखा जा चुका है.’ जब भी कांग्रेस कमजोर पड़ जाती है, पहला, तीसरा, चैथा या फेडरल फ्रंट या जो भी आप इसे नाम दें, सामने आता है. तो, क्या अब यह फेडरल फ्रंट कामयाब होगा?
इतिहास के अनुसार, छोटी, बड़ी विपक्षी पार्टियों का इकट्ठे हो जाना कभी सफल नहीं हुआ. 1997 में, जब हर राजनीतिक पार्टी जो कांग्रेस के विरुद्ध थी, इकट्ठी हुई व जनता पार्टी सरकार सत्ता में आई. यह कुछ महीने ही टिक पाई. फिर 1989 में नेशनल फ्रंट का प्रयोग इुआ, जिसे राईट व लेफ्ट दोनों का समर्थन हासिल था. पर यह 18 महीनों में लुढ़क गई.
1996 में युनाइटेड फ्रंट भी दो साल से ज्यादा टिक नहीं पाई. 1989 से जबसे गठबन्धन युग शुरू हुआ है, क्षेत्रीय पार्टियां मजबूत राज्य की जरूरत पर जोर दे रही हैं. कई जाति आधारित व पहचान आधारित पार्टियां अस्सी व नब्बे के दशक में आई, जिसमें एसपी, बीएसपी, टीडीपी, एनसीपी, टीएमसी, पीडीपी आदि हैं. युनाइटिड नेशनल प्रोगरेसिव एलायंस (यूएनपीए), 2007 में बना एक ‘प्रेशर ग्रुप’, उस समय यूपी मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और तमिलनाडु मुख्यमंत्री जे जयललिता के बीच अहं के टकराव की वजह से टूट गया.
प्रधानमंत्री पद के इतने चाहने वालों के साथ, यह विचार, इस प्रश्न पर भी टूट जाता है कि इसका नेतृत्व कौन करे. ममता इस बारे में स्पष्ट हैं कि फ्रंट के नेतृत्व के बारे में बाद में विचार किया जाएगा.
दूसरे, जब तब इसकी सारी इकाइयों को स्वीकार्य, एक ‘कामन मिनिमम प्रोग्राम’ नहीं बनता, इसका कोई भविष्य नहीं है. यह नेता नीतियों पर अपनी छाप छोड़ना चाहते हैं, क्योंकि इन्होनें राजनीति में अपनी अपनी जागीरें कायम कर ली हैं.
बिहार व आंध्र प्रदेश ‘स्पेशल स्टेटस’, और पश्चिमी बंगाल ज्यादा धन, और इसी तरह सभी कुछ न कुछ की मांग कर रहे हैं. तीसरे, ऐसा फ्रंट केवल सत्ता के लोभ के सिवा किसी और चीज का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता.
भविष्य में, न तो कांग्रेस और न ही बीजेपी, ऐसे जोड़ को बनने से रोक पाएंगी जो नॉन-कांग्रेस व नॉन-बीजेपी है. परन्तु ऐसे फ्रंट का जीवन, कांग्रेस व बीजेपी की दया पर निर्भर होगा.
चैथे, फेडरल फ्रंट की परिकल्पना क्या होगी? चाहे कुछ नेताओं , जैसे शरद पवार, ममता बैनर्जी, केसीआर, व उड़ीसा के सीएम, बीजु जनता दल के नवीन पटनायक आदि ने केन्द्रीय मन्त्रियों के रूप में काम किया है, उन्होनें अपना वैश्वनिक नजरिया पूरी तरह से समझाया नहीं है.
आखिर में, क्षेत्रीय पार्टीयां चुनाव के बाद के गठबन्धन की बात कर रही हैं. इस भानुमती के पिटारे से क्या निकलेगा, कोई नहीं जानता.
कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इस वर्ष हो रहे विधानसभा चुनावों से भविष्य के लिए माहौल बन जाएगा. परन्तु पार्टियों का फिर से इकट्ठा होना शुरू हो चुका है तथा पार्टियां अदला बदली की तैयारी में हैं. यह पहले हो चुका है और फिर से ऐसा होना अटल है.