जम्मू: संदीप भट की सरकारी नौकरी की तलाश आखिरकार साल 2018 में रंग लाई और उन्हें कश्मीर के अनंतनाग जिले के मणिगाम गांव में एक स्कूल शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया. इसके बाद भट जहां अपने कार्यस्थल (स्कूल) से लगभग 10 किमी दूर स्थित मट्टन में एक किराए के घर में रहने चले गए, वहीं उनकी पत्नी और दो बच्चे जम्मू शहर के बाहरी इलाके में स्थित उनके स्थायी निवास पर ही रह गए.
चार साल बाद, 3 जून 2022 को भट ने अपना साजो-सामान समेट अनंतनाग छोड़ दिया और पूरी रात सफर करके जम्मू में अपने परिवार के पास लौट गये – उनकी यह असामयिक रवानगी उनकी जिंदगी को लेकर पैदा हुए डर के कारण हुई थी.
पिछले कुछ हफ्तों में कश्मीरी हिंदू सरकारी कर्मचारियों की कथित तौर पर निशाना बनाकर की जा रही हत्याओं के बाद कई प्रवासियों ने कश्मीर घाटी छोड़ दी है.
शनिवार को दिप्रिंट से बात करते हुए भट ने कहा, ‘हमारी जान खतरे में है. यह शर्मनाक बात है कि ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की वजह से इतना विरोध करने वाले ज्यादातर लोग ऐसे कठिन वक्त में हमारे साथ उसी तरह की एकजुटता नहीं दिखा रहे हैं.’
कश्मीर के बिजली विभाग में काम करने वाले 34 वर्षीय विकास हंगलू भी कुछ इसी तरह के हालात में 3 जून को जम्मू लौट गये थे.
साल 2010 से ही कश्मीर के श्रीनगर जिले में काम करने वाले हंगलू घाटी के बाहर के लोगों के उस पहले जत्थे में थे, जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा उन कश्मीरी पंडितों के लिए जिन्हें 1990 के दशक की शुरुआत में घाटी से खदेड़ दिया गया था, घोषित एक विशेष रोजगार पैकेज के तहत शुरू की गयी एक दीर्घकालिक पुनर्वास योजना के हिस्से के रूप में कश्मीर में सरकारी नौकरी मिली थी.
अनंतनाग में कार्यरत एक अन्य स्कूल शिक्षक विक्की पंडिता 12 साल वहां काम करने के बाद 2 जून को जम्मू लौट आए.
भट, हंगलू और पंडिता उन सैकड़ों कश्मीरी हिंदू सरकारी कर्मचारियों में शामिल हैं, जो निशाना बनाकर की जा रही हत्याओं के मद्देनजर पिछले 10 दिनों में कश्मीर घाटी छोड़कर जम्मू क्षेत्र में लौट आए हैं.
सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि जम्मू क्षेत्र के 5,928 सरकारी कर्मचारी इस वक्त कश्मीर में तैनात हैं.
अपना नाम न जाहिर करने की शर्त पर एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने बताया कि इनमें से करीब 2,500 से 3,000 कर्मचारी पिछले 10 दिनों में जम्मू लौट आए हैं.
हालांकि, ऑल पीएम पैकेज इंप्लाइज कोर्डिनेशन कमिटी, जो घाटी में सरकारी नौकरियों के लिए तैनात जम्मू संभाग के निवासियों का एक संघ है, के एक सह-संस्थापक हंगलू का कहना है कि यह संख्या 5,000 से ज्यादा है.
हंगलू ने दिप्रिंट को बताया कि घाटी में उनके पहले 10 साल ‘ज्यादातर ठीक-ठाक’ ही थे. आतंकवादियों द्वारा आम नागरिकों पर हमला किए जाने, आतंकवादी बुरहान वानी की हत्या के बाद शुरू हुए हिंसक विरोध प्रदर्शन और केंद्र सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने के कारण हुए उथल-पुथल के बीच कुछ छिटपुट घटनाएं हुईं थीं. लेकिन, उन्होंने कहा, ‘जिस तरह का डर हम अभी अनुभव कर रहे हैं वह अभूतपूर्व है.’
इसके साथ ही जहां वे सब जम्मू के अपने-अपने घरों में इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि सरकार सुरक्षित पदों पर तबादला किए जाने और उनके अधिकारों के लिए लड़ने की उनकी मांग को मान ले, वहीं वे सिर्फ एक बात जानते हैं- वे अपनी सरकारी नौकरी नहीं छोड़ रहे हैं. भट ने कहा, ‘हम केवल सुरक्षा और हिफाजत की ही मांग कर रहे हैं.’
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भय की घाटी
भट और हंगलू ने बताया कि घाटी में कश्मीरी हिंदू पिछले साल अक्टूबर से ही चिंतित रहे हैं, जब आतंकवादियों ने श्रीनगर में दो स्कूल कर्मचारियों- एक हिंदू और दूसरे सिख- की गोली मारकर हत्या कर दी थी.
भट कहते हैं, ‘हम सुरक्षित क्षेत्रों में तबादला किए जाने की भीख मांग रहे थे और सरकार से लगातार कह रहे थे कि हमें अपनी जान का डर है. लेकिन हमारी सारी दलीलें अनसुनी कर दी गईं. अब हाल ही में हुई हत्याओं की वजह से हालात काबू से बाहर हो गये हैं. हमारे पास वहां से बाहर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.’
पिछली 31 मई को, कुलगाम जिले के गोपालपोरा इलाके में एक डोगरा स्कूल की शिक्षिका, जिनकी पहचान रजनी बाला के रूप में हुई थी, की कथित तौर पर उसके कार्यस्थल पर आतंकवादियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. वह जम्मू संभाग के सांबा जिले की रहने वाली थी.
बाला की हत्या कश्मीर के बडगाम जिले में तहसीलदार कार्यालय में काम करने वाले एक कश्मीरी पंडित राहुल भट की हत्या, जिन्हें भी कथित तौर पर आतंकवादियों द्वारा गोली मार दी गई थी, के 19 दिन बाद हुई थी. वह जम्मू के दुर्गा नगर इलाके के रहने वाले थे.
एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस का मानना है कि ये निशाना बनाकर की जा रही हत्याओं के मामले हो सकते हैं जहां आतंकवादी विशेष रूप से एक हिट लिस्ट में शामिल लोगों की तलाश कर रहे हैं.
भट और बाला की हत्याओं के बाद घाटी में हिंदुओं द्वारा व्यापक विरोध प्रदर्शन किए गये और उन्होंने अपनी सुरक्षा पर चिंता जताई.
घाटी में काम करते हुए भट, हंगलू और पंडिता जैसे सभी लोग अपने परिवार से दूर रह रहे थे. पंडिता ने कहा, ‘कश्मीर घाटी हमेशा एक ऐसी जगह रही है जहां जिंदगी को सबसे ज्यादा खतरा रहा है. इसलिए, जम्मू के ज्यादातर लोग जिन्हें वहां सरकारी नौकरी मिलती है, अपने परिवारों को पीछे छोड़ देते हैं. लेकिन, लंबे समय के दौरान उनमें से कई अपने- अपने परिवारों के साथ रहने की योजना बना रहे हैं. अब भले ही कर्मचारियों को अपनी पोस्टिंग की जगह पर वापस लौटने के लिए मजबूर किया जाए, फिर भी उनके द्वारा अपने परिवार को साथ लाने का काम अब कई साल तक मुमकिन नहीं होगा.’
जहां भट और हंगलू कश्मीर में किराए के मकान में रहते थे, वहीं पंडिता सरकार द्वारा स्थापित एक ट्रांजिट कैंप में रहते थे और सात अन्य लोगों के साथ तीन कमरों के एक घर में साझा तौर पर रहते थे.
भट ने कहा, ‘ज्यादातर मुस्लिम मकान मलिक अपने किरायेदारों की सुरक्षा करते हैं. लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या आज के दिन कश्मीर घाटी में मुसलमान भी सुरक्षित हैं? ऐसा लगता तो नहीं.’
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अनिश्चित भविष्य
वापस लौटे कर्मचारियों में से बड़ी संख्या में लोगों के आवास 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों के लिए स्थापित शिविरों और उसके आस-पास के इलाके में हैं, जो इतने सालों के दौरान जम्मू शहर के बाहरी इलाके में स्थित निम्न-आय वर्ग आवासीय कॉलोनियों में बदल गए हैं जैसे कि बूटा नगर कॉलोनी, मुठी कैंप, जगती टाउनशिप और नगरोटा कॉलोनी आदि. दिप्रिंट ने शनिवार को इन क्षेत्रों का दौरा किया.
यहां के लोगों में साफ-साफ दिखने वाला दहशत और भय का माहौल है. जगती टाउनशिप के निवासी सुनील पंडिता ने कहा,’ हमारी पहचान करके हमें मारा जा रहा है. ऐसी स्थिति से कौन नहीं डरेगा? और यह दुख की बात इसलिए भी है क्योंकि ये घटनाएं हमें 1990 के दशक में हुए पलायन की याद दिलाती हैं.’
कई लोग जो पिछले कुछ दिनों में घाटी से लौटे हैं, अब वे जम्मू में विरोध प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं- ठीक उसी तरह जैसा घाटी में बने हुए कुछ सौ लोग वहां आयोजित कर रहे हैं- उनकी कुछ मांगें हैं जिसमें कश्मीर में हालात के काबू में आने तक तक अस्थायी रूप से जम्मू में स्थानांतरित किया जाना शामिल है.
इस मोड़ पर, घाटी से वापस आने वाले लोग अपने भविष्य में ज्यादा दूर तक नहीं देख पा रहे हैं लेकिन यह स्पष्ट है कि वे किसी भी कीमत पर अपनी सरकारी नौकरी नहीं छोड़ने वाले.
वे नहीं जानते कि अगर सरकार उनकी रिलोकेशन (नये जगह पर तैनाती) की मांग को लेकर सहमत नहीं होती है तो वे क्या करेंगे, लेकिन वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने को तैयार हैं. भट कहते हैं, ‘हम हार मानने के लिए इस संघर्ष में शामिल नहीं हुए…. जीने का अधिकार एक मौलिक मानवीय अधिकार है.’
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