दुनियाभर में बीते एक दशक में जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव आए और इन बदलावों के सूत्रधार के तौर पर जिन नेताओं का उभार हुआ- वो अब लगातार कई तरह की समस्याओं और संकट के तौर पर नज़र आने लगे हैं. कई अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स इस ओर इशारा करती हैं कि मजबूत और लोकलुभावन वायदे कर सत्ता में आए नेता, लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित हुए हैं. वी-डेम की रिपोर्ट में इसे विस्तार से समझाया गया है.
मजबूत नेता जिस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा तले उभरते हैं और एक सीमित भूभाग पर शासन करते हैं. इसके पीछे जो सबसे अहम तत्व काम करता है- वो है राष्ट्रवाद.
फ्रांसीसी क्रांति के बाद जब राष्ट्र-राज्य की अवधारणा पहली बार पश्चिम में विकसित हो रही थी और एक सामूहिक पहचान तले लोगों को संगठित किया जा रहा था- तब इसी के सहारे राष्ट्रवाद जैसे शब्द का भी उदय हुआ. पहले तो राष्ट्रवाद के सहारे लोगों को जोड़ने की कोशिश की गई और फिर विस्तारवादी रवैया अपनाते हुए इसे यूरोप के कई हिस्सों में पहुंचाया गया. 19वीं और 20वीं शताब्दी में राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद के मेल ने जो तबाही मचाई, वो किसी से छुपी बात नहीं है.
भारत भी राष्ट्रवाद के खतरों से अछूता नहीं रहा है. आजादी के बाद इसके कई क्रूर रूप सामने आते रहे हैं. लेकिन भारत में राष्ट्रवाद के उदय होने से पहले ही पश्चिमी देशों और जापान के अनुभवों को समझते हुए रवींद्रनाथ टैगोर ने इसके खतरों से दुनिया को आगाह किया था और 1916-17 के बीच जापान और अमेरिका जाकर ‘राष्ट्रवाद ‘ पर कई अहम व्याख्यान दिए थे.
टैगोर की किताब ‘राष्ट्रवाद ‘ की भूमिका में ईपी थॉम्पसन ने लिखा है, ‘राष्ट्रवाद न केवल दूरदर्शितापूर्ण बल्कि भविष्यसूचक रचना भी है और इसकी दूरदर्शितापूर्ण के पर्याप्त सबूत उपलब्ध है- दो-दो विश्वयुद्ध, आण्विक शस्त्रों की होड़, पर्यावरण का विनाश, नियंत्रण से मुक्त प्रौद्योगिकी.’
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‘सामूहिक पहचान का संघर्ष’
बीते साल जब टोक्यो ओलंपिक चल रहे थे उसमें भारत के भी 100 से ज्यादा खिलाड़ी शिरकत कर रहे थे. ये सभी खिलाड़ी अलग-अलग राज्यों से थे लेकिन जब अंतर्राष्ट्रीय तौर पर उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया तब सभी भारतीयों के जेहन में जो महसूस हुआ, जो कनेक्शन पैदा हुआ- वो एक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का ही प्रतिफल है, जो हमें उन खिलाड़ियों से और राष्ट्र के गौरव से जोड़ता है.
टैगोर ने अपनी किताब ‘राष्ट्रवाद’ में लिखा है, ‘लोगों के राजनीतिक और आर्थिक संघ में राष्ट्र एक ऐसा दृष्टिकोण है, जो सारे देशवासी किसी उद्देश्य से संगठित होकर अपनाते हैं.’
टैगोर राष्ट्रवाद की आलोचना करने वाले 20वीं शताब्दी के सबसे प्रमुख व्यक्ति हैं. 1916-17 में जब वो जापान और अमेरिका में व्याख्यान दे रहे थे तो उन्होंने राष्ट्रवाद से उभरते खतरों को साफ तौर पर व्यक्त किया था और उनके दिए संकेत आने वाले कुछ दशकों में सही साबित हुए.
भारत में सामूहिक पहचान को 1905 में बंगाल के बंटवारे (बंग-भंग) ने मजबूती दी. उस समय टैगोर सहित बंगाल के कई विचारकों ने स्वदेशी आंदोलन में शिरकत की. बंटवारे के विरोध में टैगोर के गीतों को आम लोगों ने गाना शुरू किया लेकिन बढ़ती हिंसा के बाद टैगोर ने खुद को इससे अलग कर लिया.
कहा जा सकता है कि भारत में राष्ट्रवाद को लेकर पनप रहे खतरों को टैगोर ने उसी समय भांप लिया था.
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मानवीय मूल्यों पर टिका है टैगोर का संसार
टैगोर ने मानवीय, प्राकृतिक और सामाजिक सभ्यता के मूल्यों पर हमेशा जोर दिया और आधुनिकता को बुद्धि की स्वतंत्रता से जोड़ा.
जापान ने 20वीं शताब्दी में जिस तरह सामाजिक और आर्थिक विकास किया, टैगोर उससे काफी प्रभावित थे. उन्होंने जापान की तारीफ करते हुए कहा था, ‘जापान एक ही समय में पुराना और नया दोनों है. उसके पास पौर्वात्य की पुरातन संस्कृति की विरासत है.’ लेकिन जब जापान में राष्ट्रवाद के खतरों पर उन्होंने बात की तो वहां के लोगों ने उनकी बात को पसंद नहीं किया. अमेरिका में भी उनकी बातों का विरोध हुआ.
टैगोर दुनिया के पहले कवि और साहित्य कर्मी हैं जिनकी कल्पना में एक विश्वविद्यालय का सपना था. जहां मानवीय और प्राकृतिक मूल्यों के तहत शिक्षा का एक मॉडल तैयार करने की सोच थी. 1901 में टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की. टैगोर बंगाल के जिस परिवार से आते थे वो साहित्य, कला, संस्कृति से गहराई से जुड़ा हुआ था, इसी का प्रभाव टैगोर पर भी पड़ा.
1912 में टैगोर ने ब्रिटेन की यात्रा की और बांग्ला में लिखी अपनी कविताओं के संग्रह गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद को साथ लेकर गए. वहां आइरिश कवि डब्ल्यू बी यीट्स उनकी कविताओं से काफी प्रभावित हुए और उनकी मदद से गीतांजलि का अंग्रेजी में प्रकाशन हुआ. इसके अगले ही साल टैगोर को साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया. टैगोर एशिया के पहले व्यक्ति थे जिन्हें ये सम्मान मिला था. टैगोर खुद कहते थे कि इस सम्मान के बाद वो जीवन में काफी व्यस्त रहने लगे थे.
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‘मानवता के ऊपर देशप्रेम की जीत नहीं होने दूंगा’
टैगोर की लेखनी में राष्ट्रवाद का पुरजोर तरीके से विरोध नज़र आता है. 1908 में भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस की पत्नी अबाला बोस को लिखी चिट्ठी में टैगोर ने कहा था, ‘देशप्रेम हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता. मेरा आश्रय मानवता है. मैं हीरे के दाम में ग्लास नहीं खरीदूंगा और जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा.’ टैगोर के उपन्यास ‘घरे बाइरे’ में भी यही अभिव्यक्ति नज़र आती है.
टैगोर के जन-गण-मन (राष्ट्रगान) और बंगाल से ही आने वाले बंकिम चंद्र चटर्जी के वंदे मातरम के बिना राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति बेमानी है. टैगोर भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं लेकिन क्या राष्ट्रवाद को लेकर उनकी सोच भारतीय लोकमानस में स्वीकार की गई?
टैगोर ने कहा है, ‘राष्ट्रवाद एक क्रूर महामारी है, जो न केवल वर्तमान समय के मानवीय विश्व को प्रभावित कर रही है बल्कि इसकी नैतिक ऊर्जा को भी लील रही है.’
उन्होंने कहा था, ‘राष्ट्र का विचार, मानव द्वारा आविष्कृत, बेहोशी की सबसे शक्तिशाली दवा है. इसके धुएं के असर से पूरा देश, नैतिक विकृति के प्रति बिना सचेत हुए, स्वार्थ-सिद्धि के सांघातिक कार्यक्रम को व्यवस्थित ढंग से लागू कर सकता है. वस्तुत: वह खतरनाक तरीके से बदला लेने के बारे में भी सोच सकता है, यदि उसे इसका भान करा दिया जाए.’
टैगोर ने हमेशा राष्ट्रवाद और देश से ऊपर मानवता के आदर्शों को जगह दी. लेकिन वर्तमान भारत की स्थिति पर नज़र डालें तो साफ दिखाई देता है कि राष्ट्रवाद ने किस हद तक देश को अपनी जद में ले लिया है और सकारात्मक राष्ट्रवाद हाशिए पर चला गया है.
नेटफ्लिक्स पर 2021 में में एक डॉक्यूमेंट्री सीरीज़ आई है जिसका नाम है- हाउ टू बिकम ए टिरेंट. इस सीरीज में विस्तार से बताया गया है कि तानाशाह बनने की क्या प्रक्रिया होती है और कैसे इसके मूल में राष्ट्रवादी भावना होती है जिसके सहारे लोगों को एकजुट किया जाता है.
टैगोर जिस राष्ट्रवाद का हमेशा विरोध करते रहे, उसी को आज दुनिया के कई मुल्कों के नेताओं ने अपने शासन का मुख्य अस्त्र बना लिया है. ये पूरी दुनिया और मानवता के लिए खतरा है.
सिडनी विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर जोन कीन ने कुछ दिनों पहले इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में बताया था कि दुनियाभर में कैसे लोकतंत्र मर रहा है और उन्होंने इसके लिए कई संकेतों को लेख में व्यक्त किया है.
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गांधी और टैगोर
महात्मा गांधी का रवींद्रनाथ टैगोर काफी सम्मान करते थे लेकिन इसी के साथ दोनों के बीच राष्ट्रवाद, तार्किकता, विज्ञान, आर्थिक-सामाजिक विकास के तौर-तरीकों को लेकर गहरा मतभेद था. 1938 में ‘गांधी- द मैन’ लेख में टैगोर ने गांधी को देश के लिए अहम बताया था लेकिन गांधी पर अतार्किक होने और लोगों के बीच इसे विस्तार देने पर उन्होंने गांधी की जमकर आलोचना भी की थी.
1934 में जब बिहार में जबर्दस्त भूकंप आया और भारी तबाही मची तो गांधी ने उसे लोगों के पापों का फल बताया. उस समय देश में गांधी छुआछूत के खिलाफ मुहीम चला रहे थे. लेकिन टैगोर ने उस समय गांधी द्वारा दी गई व्याख्या का विरोध किया. टैगोर अवैज्ञानिक सोच के खिलाफ थे और लोगों के बीच इस तरह बनते धारणाओं के खतरों को लेकर काफी सजग थे.
इसके बावजूद गांधी और नेहरू के मन में भी टैगोर के प्रति काफी सम्मान था. इसी का नतीजा है कि आजादी के बाद जन-गण-मन को राष्ट्र गान के तौर पर शामिल किया गया. यहां तक कि बांग्लादेश ने भी अमार सोनार बांग्ला को राष्ट्र गान बनाया, जिसे टैगोर ने ही लिखा था.
टैगोर की ये कविता भारत को लेकर उनके विचार को प्रदर्शित करती है-
जहां मन है निर्भय और मस्तक है ऊंचा
जहां ज्ञान है मुक्त
जहां पृथ्वी विभाजित नहीं हुई है छोटे छोटे खंडों में
संकीर्ण स्वदेशी मानसिकता के दीवारों में
जहां शब्द सब निकलते हैं सत्य की गंभीरता से
जहां अविश्रांत प्रयास उसका हाथ बढ़ा रहा है परिपूर्णता की ओर
जहां स्पष्ट न्याय का झरना खोया नहीं है अपना रास्ता
निर्जन मरुभूमि के मृत्यु जैसा नकारात्मक रेत के अभ्यास में
जहां मनको नेतृत्व दे रहे हो तुम
ले जा रहे हो निरंतर विस्तारित विचार और गति के मार्ग को
ले जा रहे हो वही स्वतन्त्रता की स्वर्ग को, हे मेरे पिता, मेरे देश को जागृत होने दो
संदर्भ सूची : 1. राष्ट्रवाद- रवींद्रनाथ टैगोर | 2. द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन- अमर्त्य सेन | 3. रवींद्रनाथ टैगोर- सत्यजीत रे द्वारा बनाई गई डॉक्यूमेंट्री
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