scorecardresearch
Thursday, 26 December, 2024
होमदेशखत्म होने के बावजूद आज भी कैसे शाहीन बाग की महिलाओं ने जिंदा रखा है आंदोलन

खत्म होने के बावजूद आज भी कैसे शाहीन बाग की महिलाओं ने जिंदा रखा है आंदोलन

शाहीन बाग आंदोलन ने महिलाओं को सीएए के खिलाफ आवाज दी लेकिन वे इतने पर ही नहीं रुकी, वो अब हर चीज पर सवाल खड़े कर रही हैं.

Text Size:

इस साल की शुरूआत में जब दिल्ली के शाहीन बाग की लगभग 25 महिलाओं ने कर्नाटक में हिजाब पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया तो उन पर कड़ी नजरें बनाए रखने के लिए तीन गुना पुलिस को तैनात किया गया था.

सीएए-एनआरसी के खिलाफ शाहीन बाग आंदोलन को खत्म हुए तीन साल हो चुके हैं. लेकिन इस आंदोलन ने कैसे मुस्लिम महिलाओं में नई ऊर्जा डाल दी है इस बात से ज्यादातर लोग अनजान हैं. आंदोलन से सीख लेते हुए यहां की महिलाएं आस-पड़ोस की लड़कियों को सशक्त करने का काम कर ही रही हैं. साथ ही वो हिजाब, हाथरस, बुलडोजर और महावारी से जुड़े टैबू को तोड़ने के लिए रोजाना विद्रोह कर रही हैं. ये मिनी-रेवोल्यूशन यूएपीए के आरोपों में गिरफ्तार किए गए शाहीन बाग से संबंधी नेताओं पर केंद्रित सुर्खियों के शोर-शराबें में दब जाती हैं.

लंबी सर्द रातों में चले इस आंदोलन ने कई युवा लड़कियों के लिए रास्ते खोल दिए हैं. एक सुर में ‘काग़ज नहीं दिखाएगें’ का नारे लगाने वाली महिलाओं को अपनी आवाज बुलंद करने का तरीका मिल गया है.

पेशे से डॉक्टर, 30 साल की तैय्याबा राजिक शाहीन बाग स्थित अपने क्लीनिक में बैठे हुए कहती हैं, ‘शाहीन बाग आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है वो अभी भी जारी है. यह हम में जिंदा है. गलत के खिलाफ आवाज उठाना ही शाहीन बाग है.’

तैय्याबा उन दस शाहीन बाग की आंदोलनकारी महिलाओं में शामिल हैं जो इस इलाके में बुनियादी सुविधाओं, महावारी संबंधी जागरूकता और लड़कियों में स्किल डेवेलपमेंट करने का काम कर रही हैं. यह महिलाएं आंदोलन के बाद से सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं से अवगत रहती हैं और हिजाब बैन जैसे मामलों पर अपनी आवाज बुलंद करने के लिए एकजुट हो जाती हैं.

हालांकि, इन महिलाओं और उनके परिवारों को अलगाव और स्टिग्मा का सामना करना पड़ रहा है. ज्यादातर नौकरी के अवसरों से वंचित हो गया हैं और कुछ आर्थिक तंगी का सामना कर रहे हैं. विडंबना यह है कि इस क्षेत्र पर पुलिस की कड़ी नजर रहने लगी है.

47 साल की पूर्व सरकारी टीचर शगुफ्ता, अपनी तेज हंसी के पीछे अपने गुस्से को छुपाती हुई कहती हैं, ‘प्रशासन को लगता है कि हम जहां बैठ जाएंगे, वहां से नहीं उठेंगे .’

तैय्यबा के घर के करीब, 50 वर्षीय हिना अहमद अपने ब्यूटी सालून में अपने क्लाइंट के चेहरे पर ध्यान से फाउंडेशन लगाते हुए आंदोलन से जुड़ी कई भूली बिसरी यादें ताजा करती हैं. वो याद करती हैं कि कैसे हाड जमा देने वाली ठंड में वो और उनकी अन्य साथी खाना शेयर किया करते थे और किन चुनौतियों के साथ उन्होंने इस आंदोलन को एक दिशा दी थी.

लेकिन कुछ ही मिनटों में हिना के चेहरे के हाव भाव बदल जाते हैं और वो निराशा से भर जाती हैं. शाहीन बाग आंदोलन ने उन्हें जो प्रतिनिधित्व करने की क्षमता दी, उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है. वो कहती हैं, ‘जब भी हम किसी प्रदर्शन में शामिल होने या एक जगह जमा हो कर बात करने की कोशिश करते हैं तो पुलिस हमारे इलाके को छावनी बना देती है.’

हिना इस इलाके में एक जाना-पहचाना चेहरा हैं और शाहीन बाग आंदोलन की सक्रिय सदस्य रही हैं. हिना का दावा है कि उनकी नेटवर्किंग इतनी मजबूत है कि उनके एक फोन कॉल पर कई लोग उनके साथ आ खड़े होंगे. उन्होंने 2015 में अपने मेकअप सैलून शुरूआत की थी.

अपनी क्लाइंट का मेकअप करती हुई हिना अहमद। फोटो | हिना फ़ातिमा | दिप्रिंट

15 दिसंबर 2019 को शाहीन बाग की महिलाओं ने सीएए-एनआरसी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में छात्रों पर पुलिस की बर्बर कार्रवाई के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था. यह आंदोलन ‘नेताविहीन’ था और अक्सर इसे आधुनिक सत्याग्रह के रूप में जाना जाता है. 24 मार्च 2020 को आंदोलनकारी महिलाएं धरना स्थल से उठ गईं थी.


यह भी पढ़ें: ‘कानूनी तौर पर फैसला गलत है’- ‘लव जिहाद’ के तहत भारत की पहली सजा में फंसे हैं कई दांव-पेंच


पिन कोड स्टिग्मा

आप किससे से बात कर रहे हैं, उसके आधार पर शाहीन बाग पर आप गर्व या नापसंद कर सकते हैं. इस जगह को इतना महिमामंडन या कलंकित किया गया कि इस के नागरिकों के लिए दोबारा सामान्य होना आसान नहीं होगा.

यहां की महिलाएं रोजाना स्टिग्मा झेल रही हैं. कुछ ने दावा किया कि जब ऑटो और कैब वालों को शाहीन बाग जाने के लिए कहा जाता है तो वो वहां जाने से मना कर देते हैं. अगर किसी का पता शाहीन बाग है या पिन कोड 110025 है तो यह उनके लिए चुनौती बन सकता है.

हिना की बेटी हिबा पेशे से एक शेफ हैं और उन्हें लगातार बुल्ली के कारण एक फाइव स्टार होटल से अपनी इंटर्नशिप को बीच में ही छोड़ना पड़ा. हिना बताती हैं, ‘वो महज 24 साल की है. वहां लोग अकसर उसे बुल्ली किया करते थे कि वो ‘मिनी पाकिस्तान’ में रहती है. ‘ हालांकि, हिबा ने अपने सीनियर मैनेजमेंट से इसकी शिकायत की लेकिन कोई कार्रवाई न होने पर उसे इंटर्नशिप छोड़नी पड़ी.

वहीं, आंदोलन के बाद से हिना के मेकअप स्टूडियो में आने वाले ग्राहकों की तादाद 50-60 से घटकर 10-15 रह हो गई है. अब इनके ग्राहक आस पड़ोस के लोग ही रह गए हैं. हिना कहती हैं, ‘जैसे ही मेरे ग्राहकों को पता चलता है कि मेरा मेकअप स्टूडियो शाहीन बाग में है और मैं यहां रहती हूं, वे एडवांस देने के बाद भी अपनी बुकिंग रद्द कर देते हैं.’ हिना अपना कारोबार बचाने के लिए अपने स्टूडियो के पते को छुपाने की कोशिश में लगी हैं.

उन्होंने गूगल पर अपने स्टूडियो के एड्रस से शाहीन बाग को हटा दिया है और उसकी जगह जसोला एक्सटेंशन कर दिया है क्योंकि इसके कारण उन्हें खराब रिव्यू आने लगे थे. हिना कहती हैं, ‘पहले मेरे पास काफी क्लाइंट की बुकिंग आती थी, मुझे गेस्ट के तौर पर न्यौता भी दिया जाता था. मेरे पास इतना काम हुआ करता था कि मुझे डायरी में लिखना पड़ता था. अब यह आलम है कि मुझे क्लाइंट आने का इंतिजार करना पड़ता है.’

जब भी शाहीन बाग का जिक्र होता है तो लोगों के जहन में सबसे पहले आंदोलन, यूएपीए, पुलिस और मुसलमानों की दकयानूसी तस्वीर उभर कर सामने आती है लेकिन कोई भी इस इलाके की तंग और भीड़भाड़ वाली गलियों में रह रहे लोगों की सेहत, बेरोजगारी और कूड़े की समस्याओं के बारे में बात नहीं करता है.

तैय्याबा कहती हैं, ‘मैं पिछले तीन सालों से कई एनजीओ से शाहीन बाग में हेल्थ अवेयरनेस कैंप लगाने की बात कर चुकी हूं. क्योंकि इस इलाके में ज्यादातर लड़कियों को पीसीओडी और इंफर्टिलिटी जैसी समस्याएं हैं. लेकिन सभी इसका नाम सुनकर मना कर देते हैं.’


यह भी पढ़ें: ‘हम सब बेरोजगार हो जाएंगे,’ फ्लैग कोड में बदलाव का कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्ता संघ करता रहेगा विरोध


आत्मविश्वास को तराशना

शाहीन बाग आंदोलन ने यहां की महिलाओं को सिखाया कि अपने वजूद को हासिल करना है. इन्होंने संगठित हो कर काम करने की ताकत को पहचान लिया है. इसीलिए यह गरीब लड़कियों को वोकेशनल ट्रेनिंग देने में जुट गई हैं. कुछ आसपास के क्षेत्रों जैसे अबुल फज़ल एन्क्लेव, बटला हाउस और ओखला विहार से काम सीखने आती हैं. यह स्कूल और कॉलेज जाने वाली लड़कियों की ट्यूशन क्लास भी लेती हैं.

इस शांत क्रांति करने वाली महिलाओं में से एक, शगुफ्ता का कहना है, ‘हमारा मकसद सभी लड़कियों और महिलाओं को शिक्षित करना है और यह सुनिश्चित करना है कि वे कम से कम 10वीं कक्षा तक शिक्षा पूरी कर लें.’ 2020 में, उन्होंने वोकेशनल ट्रेनिंग देने के लिए एक सेंटर की शुरूआत की जो हर चार से छह महीने में लड़कियों के एक बैच को प्रशिक्षित करता है. वह लड़कियों को मेकअप और सिलाई समेत अन्य काम भी सिखाते हैं. यहीं पर डॉक्टर तैय्याबा पीरियड्स और हाइजीन से जुड़ी वर्कशॉप भी आयोजित करती हैं.

अपने घर में शगुफ्ता । फोटो | हिना फ़ातिमा | दिप्रिंट

हेल्थ अवेयरनेस उनके एजेंडे का प्रमुख हिस्सा है, और लड़कियों को महावारी जैसे मुद्दों के बारे में खुलकर बात करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. जिसे समाज में एक ‘टैबू’ माना जाता है. हुदा आलम (13) ने दिप्रिंट से फोन पर बातचीत में कहा, ‘पहले, मैं पीरियड्स के बारे में बहुत कुछ नहीं जानती थी, लेकिन अब मैंने इस वर्कशॉप से ​​इसके बारे में बहुत कुछ सीखा है.’ वो आगे कहती हैं, ‘पहले मैं पीरियड्स के दौरान नहाती नहीं थी, लेकिन अब मुझे पता है कि यह मेरे स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है. मुझे इस बात की भी जानकारी मिल गई है कि मुझे पैड कितने घंटों के बाद चेंज कर देना चाहिए.’

अब, पीसीओडी से उभर चुकी हुदा अब अपने पीरियड्स के बारे में कॉन्फिडेंस के साथ खुल कर बात करती हैं. वह अपने दोस्तों के बीच इस मामले को लेकर एक ज्ञानी हैं. वह सबको समझाती हैं जो कुछ भी उन्होंने तैय्याबा से सीखा है. हालांकि, गिरते कारोबार और सहयोग की कमी ने इन महिलाओं के लिए एक नई चुनौती खड़ी कर दी है. वे इस सेंटर को चलाने के लिए अपनी जेब से पैसा लगाकर इन लड़कियों को सशक्त बनाने का काम कर रही हैं.

इसे चलाने में करीब 30 हजार से 40 हजार रुपए का खर्च आता है. हिना ने कहा, ‘हम इस सेंटर को चलाने के लिए कोई फंड नहीं लेते हैं. हम में से जो भी जिस भी तरह का योगदान दे सकता है, वो देते हैं. कोई हमें अपनी सिलाई मशीन देकर तो कोई हमारी मशीनों को ठीक करके मदद करता है. हमने इस संस्था को एनजीओ के तौर पर रजिस्टर्ड भी नहीं कराया है. यह हमारे लिए एक सेवा है.’


यह भी पढ़ें: SC से छत्तीसगढ़ के ‘फर्जी एनकाउंटर’ की जांच अपील खारिज होने पर हिमांशु कुमार ने कहा- जुर्माना नहीं, जेल भरेंगे


डर ने संगठित किया

पहले इन महिलाओं को ऑर्डर लेना आता था लेकिन इस आंदोलन ने इन्हें सिखाया है कि ऑर्डर दिए कैसे जाते हैं. इसके पीछे एक बड़ी वजह रही है ‘डर’ की बेड़ियों को तोड़ना. तैय्याबा कहती हैं, ‘शाहीन बाग आंदोलन के बाद, यूएपीए लगाकर लोगों को जेल में डाल दिया गया. उनके खिलाफ मामले दर्ज किए गए.’ वो आगे कहती हैं, ‘इससे मन में डर पैदा करने का काम किया गया है कि जो आगे आएगा वो सीधे जेल जाएंगे और आपके पीछे कोई खड़ा नहीं होगा. इस तरह लोगों के मन में यूएपीए और पुलिस का डर बैठ गया है.’

इस डर ने महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को भी प्रभावित किया है. हिना कहती हैं, ‘अब लोग इसमें हिस्सा लेने से थोड़ा हिचकिचा रहे हैं. अगर आज हममें से किसी को पुलिस उठा ले जाती है या किसी को कुछ हो जाता है, तो कम से कम हम एक-दूसरे का समर्थन कर सकते हैं.’

महिलाएं इस बात पर जोर देती हैं कि वे कोई राजनीतिक संगठन या राजनीतिक एजेंडा नहीं चला रही हैं. वो आगे कहती हैं, ‘अगर हम समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं, तो हम इसे राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हुए बिना कर सकते हैं. इसलिए, हम शाहीन बाग की महिलाएं समाज सेवा के जरिए एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं.’

हालांकि बुलडोजर चलने का खतरा बरकरार है. इस साल मई में, भारी पुलिस के साथ-साथ दक्षिण दिल्ली नगर निगम के अतिक्रमण विरोधी अभियान के तहत बुलडोजरों को भी तैनात किया गया था. विरोध में सैकड़ों निवासी और व्यापारी सड़कों पर उतर आए थे जिसमें कांग्रेस कार्यकर्ता भी शामिल हो गए थे. भारी विरोध के चलते विध्वंस अभियान को आखिरकार रोकना पड़ा था. शगुफ्ता कहती हैं, ‘हम सरकार के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन सरकार अगर गलत करेगी, हम उसके खिलाफ आवाज उठाएंगे.’

फिलहाल शाहीन बाग की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन नहीं हो रहा है. जो मुसलमान पहले अन्य क्षेत्रों में रहते थे, उन्हें जामिया नगर या मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जा कर रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है. शाहीन बाग या जामिया नगर के ज्यादातर लोग इस क्षेत्र में खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) की छात्रा निदा प्रवीन, जो फिलहाल मुंबई में हैं, बुल्ली बाई ऐप पर टारगेट की गई अन्य मुस्लिम महिलाओं में से एक हैं. बुल्ली बाई पर कथित तौर पर मुस्लिम महिलाओं की नीलामी की गई थी और उन्हें ऑनलाइन ट्रॉल किया गया था.

टीआईएसएस छात्र संघ की उपाध्यक्ष और शाहीन बाग आंदोलन में सक्रिय रहीं निदा कहती हैं, ‘हमें आसानी से निशाना बनाया जा रहा है. हमें सोशल मीडिया पर अमानवीय बना दिया गया है, जैसे कि मैं बुल्ली बाई का शिकार बनीं.’

हालांकि, निदा आज भी सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं लेकिन आंदोलन के बाद से उन्होंने और उनके जैसे अन्य लोगों ने अपने पोस्ट की खुद ही जांच पड़ताल शुरू कर दी है. वो कई चीजों को लेकर सावधान हो गए हैं. वो कहती हैं, ‘मैं डरी हुई नहीं हूं, मैं बस कभी-कभी थक जाती हूं. मैं हर वक्त बहादुर बने रहने से थक गई हूं. हमें क्यों सामान्य सी चीजों के लिए भी बहादुर बनने की जरूरत होती है.’

(इस फीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘मारना ही है तो मुझे, बच्चों और खालिद को एक ही बार में मार दो’- ‘राजनीतिक कैदियों’ के परिवारों को क्या झेलना पड़ता है


share & View comments