scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होमएजुकेशनआईआईएमसी में 2013 में शुरू हुआ उर्दू डिप्लोमा, किसी भी साल नहीं भरी सभी सीटें

आईआईएमसी में 2013 में शुरू हुआ उर्दू डिप्लोमा, किसी भी साल नहीं भरी सभी सीटें

आईआईएमसी में उर्दू पत्रकारिता की 15 सीटें हैं. इस साल बस तीन सीटें ही भर पाई. जब से कोर्स शुरू हुआ तब से कभी सभी सीटें नहीं भरीं. जानिए, ऐसा क्यों होता है

Text Size:

नई दिल्ली: सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत आने वाले भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) को भारत का सबसे उम्दा पत्रकारिता संस्थान माना जाता है. 1965 में शुरू हुए इस संस्थान के बाकी भाषाओं के डिप्लोमा की सफलता को देखते हुए यहां उर्दू के अलावा एक और संस्थान की सहायता से संस्कृत डिप्लोमा भी शुरू किया गया. लेकिन ये दोनों ही बुरी तरह से असफल रहे.

उर्दू और संस्कृत डिप्लोमा की असफलता के पीछे के कारणों से पता चलता है कि देश में रोज़गार में मामले में भाषा कैसे अपना खेल खेलती है और लोग क्या पढ़ेंगे ये भी तय करती है.

उर्दू में कभी नहीं भरी सभी सीटें

इस साल 12 सीटें खाली रहने पर प्रोफेसर प्रधान ने 18 जुलाई को एक ट्वीट में लिखा, ‘उर्दू के चाहने वालों मदद कीजिए! आप या आपके कोई जानकार नौजवान दोस्त उर्दू पत्रकारिता में डिप्लोमा करना चाहते हैं तो आईआईएमसी ने एक मौक़ा मुहैया कराया है. दाख़िले के लिए फ़ार्म जमा करने की आख़िरी तारीख़ 29 जुलाई है.’

 

उर्दू के विभागाध्यक्ष आनंद प्रधान ने कहा, ‘उर्दू डिप्लोमा 2013 में शुरू हुआ था. इसके शुरू होने से इस साल तक कभी भी इसकी सभी सीटें नहीं भरीं, जबकि कुल सीटों की संख्या महज़ 15 है.’ संस्थान के किरानी रघुविंदर चावला से जब आंकड़ा मांगा गया तो उन्होंने कहा कि किसी साल तीन बच्चे आए तो किसी साल 13. उन्होंने भी इसकी तस्दीक की कि कभी सभी सीटें नहीं भरीं.

देश भर के बच्चे आईआईएमसी में हिंदी, अंग्रेज़ी, रेडियो-टीवी और एड-पीआर का डिप्लोमा करने आते हैं. इसके पीछे पत्रकारिता की अच्छी शिक्षा के अलावा नौकरी के अच्छे मौके पाने से जुड़ी उम्मीद भी होती है. इस संस्थान में सिर्फ हिंदी और अंग्रेज़ी जैसे देश भर में प्रमुखता से बोली जाने वाली भाषाओं को ही नहीं, बल्कि ओडिया, मराठी और मलयालम जैसी भाषओं का भी डिप्लोमा कराया जाता है.

ये सारे कोर्स नौ महीने के होते हैं जिनमें बच्चों को पत्रकारिता का सिद्धांत और व्यवहारिकता दोनों सिखाया जाता है. दिप्रिंट ने ये पता लगाने की कोशिश की कि आईआईएमसी बाकी भाषाएं आख़िर क्यों बहुत अच्छा कर रही हैं, वहीं उर्दू और संस्कृत को क्यों बेमौत मरना पड़ रहा है.


यह भी पढ़ें: आईआईएमसी में संस्कृत पत्रकारिता का कोर्स करने के लिए क्यों नहीं आ रहे छात्र?


एड-पीआर में सबसे ज़्यादा, हिंदी में सबसे कम छात्र करते हैं आवेदन

आईआईएमसी के लोगों से बात करने पर एक ट्रेंड निकलकर सामने आया. एक फैकल्टी ने नाम नहीं लिखने की शर्त पर बताया, ‘सबसे ज़्यादा बच्चे एड-पीआर के डिप्लोमा के लिए आवेदन करते हैं. अंग्रेज़ी दूसरे, रेडियो-टीवी तीसरे और हिंदी आख़िरी नंबर पर रहता है.’

इसके पीछ की वजह ये है कि पहले तीन कोर्स मुख्यत: अंग्रेज़ी में पढ़ाए जाते हैं. जब कैंपस में नौकरियां आती हैं तो अंग्रेज़ी में काम करने वाली एड-पीआर कंपनिया और अंग्रेज़ी मीडिया वाले हिंदी की तुलना में काफी अच्छे पैसे देते हैं. ये एक बड़ी वजह है कि हिंदी में सबसे कम आवेदन आते हैं.

मोटा-मोटी आंकड़ों पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि एड-पीआर में हर साल औसतन 2000 बच्चे और हिंदी में सबसे कम यानी औसतन 600 के करीब बच्चे आवेदन करते हैं. अंग्रेज़ी में 1500 के करीब और रेडियो-टीवी में 1000 के करीब आवेदन मिलते हैं.

संस्कृत-उर्दू पर भारी क्षेत्रीय भाषाओं के डिप्लोमा

रघुविंदर चावला ने बताया कि 2001-02 में शुरू हुए ओडिया डिप्लोमा के अलावा मराठी और मलयालम डिप्लोमा की भी लगभग सारी सीटें भर जाती हैं. आनंद प्रधान कहते हैं कि इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह ये है ये क्षेत्रिय भाषा उर्दू और संस्कृति की तरह ये भाषाएं मुलसलमानों की भाषा और शास्त्रीय भाषा होने के बंधन में नहीं बंधी. इन्हीं वजहों से इन भाषाओं का मीडिया भी बहुत मज़बूत है. इनके चैनल और अख़बार आपको इन राज्यों में अच्छी ख़ासी संख्या में मिलेंगे.

क्या कहते हैं उर्दू के पत्रकार

बीबीसी उर्दू के लिए काम कर चुके एबीपी न्यूज़ के कंटेट एडिटर अब्दुल वाहिद आजाद ने कहा, ‘आज की मौजूदा स्थिति में उर्दू जबान में मीडिया में कोर्स करना घाटे का सौदा है. इसकी वजह साफ है. भाषा को लेकर जनगणना-2011 की रिपोर्ट कहती है कि देश में सबसे ज्यादा (62 फीसद) दो भाषा के जानकार उर्दू पढ़ने वाले हैं. यानि जो उर्दू जानता है वो हिंदी या कोई दूसरी जबान भी जानता है.’

वो आगे कहते हैं कि ऐसे में वो उर्दू में मीडिया कोर्स क्यों करेगा, जहां रोज़गार के मौके बहुत कम हैं, बल्कि वो हिंदी या दूसरी भाषा को अहमियत देगा. दूसरी सच्चाई ये है कि आठवीं अनुसूची में दर्ज 22 भाषाओं में कोंकणी के अलावा उर्दू अकेली जबान है जिसकी आबादी में 2001 से 2011 के बीच 1.48 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.

उन्होंने कहा, ‘साफ है कि उर्दू में भविष्य नहीं है, इसलिए आईआईएमसी के उर्दू मीडिया कोर्स में अर्जियां नहीं आईं. एक सच्चाई ये भी है कि जो सिर्फ उर्दू जानता है उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि 47 हज़ार फीस देकर कोई कोर्स कर पाए.’ हालांकि, पटना से चलने वाले उर्दू के अख़बार इंक़लाब के संपादक अहमद जावेद इंक़लाब कहते हैं,

‘आईआईएमसी के उर्दू डिप्लोमा के असफल होने का सबसे बड़ा कारण जानकारी का आभाव है.’

इंक़लाब के मुताबिक ज़्यादातर लोगों को पता ही नहीं कि आईआईएमसी में ऐसा कोई डिप्लोमा है. अगर उन्हें पता होगा तो वो इतने पैसे ख़र्च करके भी ये डिप्लोमा करना चाहेंगे क्योंकि आईआईएमसी के मामले में मीडिया वाले छात्रों को हाथों हाथ ले सकते हैं.

आईआईएमसी के एक और फैकल्टी ने नाम नहीं लिखने की शर्त पर सुझाव देते हुए कहा कि अगर फीस कम करके उसे जेएनयू या डीयू के कॉलेजों के स्तर पर ले आया जाए और रहने खाने की व्यवस्था दी जाए तो ये सीटें खाली नहीं रहेंगी. उन्होंने ये भी कहा, ‘हिंदी को सरकार ने पालने-पोसने का काम किया. हर सरकारी महकमे में एक हिंदी विभाग है. अगर उर्दू और संस्कृत जैसी भाषाओं के मामले में भी ऐसा हो तो रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे और लोगों इन भाषाओं को अवसर के तौर पर देखेंगे.’

share & View comments