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Wednesday, 20 November, 2024
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बिहार: ‘समाज सुधारक’ नीतीश कुमार से सहयोगी भाजपा क्यों चिंतित है ?

बिहार के मुख्यमंत्री ने राज्य को दहेज और बाल-विवाह प्रथा से मुक्त करने का संकल्प लिया है, लेकिन भाजपा चाहती है कि वह जातीय गणित पर ही ध्यान दें क्योंकि इन सामाजिक आंदोलनों का चुनावी फायदा नहीं मिल रहा है.

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पटना : बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनावों से पहले खुद को एक सामाजिक सुधारक के रूप में स्थापित करने की ठान ली है. उन्होंने राज्य को दहेज और बाल-विवाह प्रथा से मुक्त करने का संकल्प लिया है , साथ ही वे शराबबंदी के अपने फैसले को भी प्रचारित कर रहे हैं.

मुख्यमंत्री का सामाजिक मुद्दों पर ज़ोर, विशेषकर राज्य की महिला मतदाताओं को लक्षित है.

नीतीश ने गत सप्ताह एक टीवी चैनल से कहा, ‘सामाजिक सुधारों के बगैर विकास बेमानी है. गरीब लोग अपनी मेहनत की कमाई को शराब पर लुटाया करते थे, जिससे घरों में झगड़े होते थे. अब घरों में शांति और सदभाव का माहौल है.’

लेकिन मुख्यमंत्री का सामाजिक मुद्दों पर फोकस भाजपा को रास नहीं आ रहा है. भाजपा का मानना है कि इस रणनीति का चुनावी लाभ नहीं मिला है.

शराबबंदी लागू करने के 2016 के फैसले के बाद से नीतीश की पार्टी जनता दल (युनाइटेड) के उम्मीदवारों को राज्य में हुए सभी तीन-दो विधानसभा और एक लोकसभा के- उपचुनावों में पराजय का सामना करना पड़ा है.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार में भाजपा का दलित चेहरा माने जाने वाले संजय पासवान ने दिप्रिंट को बताया, ‘सामाजिक सुधारों का प्रभाव अस्थायी होता है. दुर्भाग्य से, जाति का ज़्यादा दीर्घकालिक असर होता है. पर मुझे यकीन है कि समाज के कई वर्ग मुख्यमंत्री के सामाजिक सुधारों का समर्थन करते हैं.’

भाजपा की चिंता इसलिए और ज़्यादा है कि इस बार नीतीश को साथ रखने के लिए उसने बहुत लचीला रुख अपनाया है.

भाजपा ने नीतीश का विरोध करने वाले अपने पूर्व सहयोगी दलों जीतनराम मांझी के हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा और उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी से किनारा कर लिया.

साथ ही भाजपा ने जद(यू) के बराबर सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ना स्वीकार किया. इस बार दोनों पार्टियां राज्य की 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी, हालांकि 2014 के चुनावों में भाजपा ने कुल 40 में से 22 सीटें जीती थीं, जबकि जद(यू) को मात्र दो सीटें मिली थीं.

बिहार के एक भाजपा नेता ने कहा, ‘इस बार के नीतीश कुमार उससे अलग हैं जैसा वे 2013 के गठबंधन के दौरान थे.

तब नीतीश ने सामाजिक विकास पर ध्यान देने के साथ-साथ अत्यंत पिछड़ी जातियों और महादलितों का एक प्रभावी जातीय समीकरण तैयार कर रखा था.’

भाजपा नेता ने कहा, ‘इस बार नीतीश सामाजिक सुधारों की बात ज़्यादा करते हैं, हालांकि इस बीच कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार और मुज़फ्फरपुर शेल्टर यौन उत्पीड़न मामले जैसे कांडों से उनकी छवि धूमिल हुई है.’

‘नीतीश को सिर्फ सामाजिक सुधारों की बात करने की बजाय अपने पुराने रूप में आना चाहिए क्योंकि इन सुधारों से वोटों का फायदा नहीं मिला है.’

धूमिल हुई है महिला-समर्थक छवि

मुख्यमंत्री के तमाम सामाजिक सुधार विगत चुनावों में साथ देने वाली महिला मतदाताओं के समर्थन को मज़बूत करने पर लक्षित हैं. पर सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस दफे शायद ऐसा ना हो.

पटना स्थित सामाजिक कार्यकर्ता निवेदिता शकील कहती हैं, ‘नीतीश को महिलाओं का समर्थन मिला था अपने पहले कार्यकाल में उठाए गए कदमों के कारण- जैसे, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाली बालिकाओं के लिए साइकिल और ड्रेस, पंचायत और स्थानीय निकाय चुनावों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण और सरकारी नौकरियों में महिलाओं को आरक्षण.’

‘2010 में महिलाओं ने उन्हें बढ़-चढ़कर वोट दिया था. पर अब महिलाओं, ख़ास कर नाबालिक लड़कियों के खिलाफ़ अपराध में तेज़ी आ गई है. महिलाओं का सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण नहीं हो रहा है. यहां तक कि राज्य सरकार ने लैंगिक बजट लाना भी बंद कर दिया है.’

दहेज और बाल-विवाह के खिलाफ़ एक समन्वित अभियान चलाए जाने के बावजूद राज्य में इन कुरीतियों के विरुद्ध ज़्यादा सफलता नहीं मिल सकी है.

सरकार के सामाजिक कल्याण विभाग के एक अधिकारी ने कहा, ‘दहेज और बाल-विवाह के खिलाफ़ अभियान को अब भी एक सरकारी कार्यक्रम माना जाता है, जिसकी समाज में स्वीकार्यता बहुत कम है.’

क्या मुख्यमंत्री को शराबबंदी का नुकसान उठाना पड़ेगा?

राज्य में नीतीश के फैसलों में से सर्वाधिक विवादास्पद शराबबंदी रही है.

2016 में लागू शराबबंदी से ना सिर्फ राज्य को 4,000 करोड़ रुपये सालाना के राजस्व का नुकसान हुआ है, बल्कि इसके कारण शराब की दुकानों में नौकरी कर रहे 15 हज़ार से ज़्यादा लोग बेरोज़गार हो गए, साथ ही होटल उद्योग पर भी इसका विपरीत असर पड़ा.

और सबसे बुरा परिणाम बिहार मद्य निषेध एवं उत्पाद कानून 2016 के उल्लंघन के आरोपों में 1.61 लाख लोगों की गिरफ्तारी के रूप में सामने आया. सरकार खुद इस आंकड़े को स्वीकार कर चुकी है.

विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने इस बारे में कहा, ‘कुख्यात आपातकाल के दौरान भी बिहार में इतनी संख्या में लोग गिरफ्तार नहीं हुए थे. इस कानून के ज़रिए नीतीश ने पुलिस राज कायम कर दिया है.’

विगत में शराबबंदी का समर्थन करने वाली पार्टी राजद ने सत्ता में आने पर इस कानून को खत्म करने की घोषणा कर रखी है.

शराबबंदी कानून के तहत गिरफ़्तार लोगों में से अधिकांश लोग गरीब दलित या अत्यंत पिछड़े वर्ग से आते हैं – ये वर्ग एक समय नीतीश के साथ मज़बूती से खड़े थे. तिवारी कहते हैं, ‘गिरफ़्तार लोगों में से अधिकांश मज़दूर वर्ग के थे, उन्हें जेल में डालकर सरकार ने उनके परिवारों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया.’

विशेषज्ञों ने भी शराबबंदी कानून के कार्यान्वयन के लिए पुलिस पर भरोसा करने के फैसले पर सवाल उठाए हैं.

राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक डी. पी. ओझा ने कहा, ‘शराब के धंधे में पुलिस के लिए आमदनी का कोई ज़रिया नहीं हुआ करता था. जबकि अब ऐसा है. इससे राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति प्रभावित हुई है, जिसका असर महिलाओं पर पड़ता है.’

जद(यू) के एक मंत्री ने अपना नहीं नाम ज़ाहिर करने की शर्त पर कहा, ‘2005 से 2010 के बीच सत्ता में रहे नीतीश कुमार काम करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में जाने जाते थे – तब सड़कों, अस्पतालों, स्कूलों और कानून-व्यवस्था की स्थिति बेहतर थी.’

‘मौजूदा नीतीश भी काम कर रहे हैं – बिजली की स्थिति बेहतर है, गांवों में नल का पानी आया है और गरीब छात्रों के लिए शिक्षा ऋण उपलब्ध कराया गया है. बिहार की जनता इसी काम करने वाले मुख्यमंत्री को देखना चाहती है, ना कि सामाजिक सुधारक को.’

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