पटना: नीतीश कुमार सरकार 7 नवंबर को विधानसभा में पेश किए गए बिहार सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण से पता चला है कि 9.98 प्रतिशत हिंदू ‘उच्च जाति’ की आबादी राज्य से बाहर चली गई है. यह इस धारणा के बिल्कुल विपरीत है कि बड़े पैमाने पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) ही राज्य से बाहर जाते हैं.
इसकी तुलना में, राज्य से ओबीसी का प्रवासन 5.39 प्रतिशत और ईबीसी का 3.9 प्रतिशत आंका गया है.
बिहार जाति सर्वेक्षण के लिए, घर-घर सर्वेक्षण किया गया और अगर लोगों ने राज्य के भीतर या बाहर प्रवास किया है, तो इस आकड़े को एक संरचित रूप में दर्ज किया गया था.
‘उच्च’ जातियों द्वारा प्रवासन कोई नई घटना नहीं है और इसके लिए कई कारक जिम्मेदार हो सकते हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि 1990 के दशक की शुरुआत में, उन्होंने माओवादी हिंसा से बचने के लिए राज्य छोड़ दिया था, उद्यमशीलता की कमी और सामाजिक भेद के कारण भी माइग्रेशन हुआ.
हालांकि, इस तरह के प्रवासन के पाछे राजनीतिक कारण भी होते हैं. ऊंची जातियां पिछले तीन दशकों से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की वोटर रही हैं. जाति सर्वेक्षण से पता चलता है कि उच्च जातियां – ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और भूमिहार – लगभग 10 प्रतिशत आबादी हैं.
भूमिहार एक उच्च जाति का हिंदू समुदाय है जो मुख्य रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश में रहते हैं.
एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा, “उच्च जातियों के पलायन और उनमें से अधिकांश लोगों का वोट देने के लिए वापस न लौटना, मतदान शक्ति को कम करती है. अधिकांश पार्टियों के लिए ‘उच्च’ जातियों के बाहर वोट तलाशना स्वाभाविक है.”
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शिक्षा, नौकरी का अभाव
विशेषज्ञों का कहना है कि शिक्षा और रोजगार के अवसरों ने शुरू में ‘उच्च’ जातियों को राज्य से बाहर कर दिया. पटना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर डॉ. अशेष दासगुप्ता ने कहा, “उच्च जातियां परंपरागत रूप से बेहतर शिक्षित वर्ग हैं. जब 1970 के दशक में उच्च शिक्षा का पतन शुरू हुआ, तो अधिकांश ‘उच्च’ जातियां बाहर चली गईं. वे पहले उच्च शिक्षा के लिए और फिर नौकरियों के लिए बाहर गए क्योंकि बिहार के पास उन्हें देने के लिए कुछ भी नहीं था.”
1970 के दशक में, राज्य में कांग्रेस सरकार के खिलाफ छात्रों के नेतृत्व वाले बिहार आंदोलन, जिसे जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन के रूप में भी जाना जाता है, के परिणामस्वरूप विश्वविद्यालय और कॉलेज राजनीतिक गतिविधियों के लिए गर्म स्थान बन गए थे.
दासगुप्ता ने कहा कि उच्च शिक्षा की आवश्यकता के कारण ओबीसी और ईबीसी के बीच भी प्रवासन में वृद्धि देखी गई है.
जहानाबाद के पूर्व सांसद अरुण कुमार ने “अशांत 1990 के दशक” को याद किया, जिसमें जातिगत तनाव और माओवादी हिंसा अपने चरम पर थी, जब ‘उच्च’ जातियां बड़ी संख्या में पलायन करती थीं.
उन्होंने कहा, इस अशांति का केंद्र जहानाबाद था. वहां की प्रमुख जाति भूमिहारों ने बहुत नरसंहार के बाद जहानाबाद छोड़ दिया.
जहानाबाद के भूमिहार बहुल गांवों का दौरा करने से यह स्पष्ट हो जाता है. इन गांवों के कई घरों में लगे ताले भी पलायन का ही एक उदाहरण है.
कुमार ने कहा, “लगभग 30 प्रतिशत घर अभी भी बंद हैं.” उन्होंने कहा कि हालांकि हिंसा समाप्त हो गई है, लेकिन कई निवासी वापस नहीं लौटे हैं. “जो लोग छोटी-मोटी नौकरियां कर रहे थे, जैसे कि कोलकाता में एक होटल में काम करना या किसी अपार्टमेंट बिल्डिंग में गार्ड बनना, वे वापस आ गए. लेकिन जिन लोगों ने पुणे, मुंबई और देश के अन्य हिस्सों में दुकानें खोलकर और उद्यम शुरू करके आर्थिक रूप से बेहतर काम किया, वे वापस नहीं लौटे. और यह कहानी बिहार के सभी माओवाद प्रभावित इलाकों पर लागू होती है.”
उन्होंने उच्च जातियों के खिलाफ प्रशासन और माओवादियों के बीच मिलीभगत का आरोप लगाया और कहा कि लालू प्रसाद यादव के केंद्र में आने के बाद बिहार से माओवादियों का पलायन बढ़ गया.
हालांकि, सभी उनसे सहमत नहीं हैं. पटना विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की प्रोफेसर डॉ शेफाली रॉय ने कहा, ‘उच्च’ जाति के प्रवास के लिए अकेले राजनेता दोषी नहीं हैं. उन्होंने कहा, “उद्यमशीलता की भावना की कमी ने भी पलायन में योगदान दिया है. शिक्षा और प्रशासन में जातियों के बीच इतनी कड़वाहट है कि युवा बाहर जाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने राज्य छोड़ दिया. यह ‘उच्च’ जाति के युवाओं में अधिक प्रचलित है क्योंकि उनमें असुरक्षा की भावना है (कि आरक्षण के कारण उन्हें नौकरी खोजने में भेदभाव का सामना करना पड़ेगा).”
इसके अलावा, सामाजिक दबाव एक ‘उच्च जाति’ के व्यक्ति को अपने क्षेत्र में गैर-पारंपरिक व्यवसायों में शामिल होने से रोकता है. इसलिए, यदि किसी को मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है, तो वे इसे दूसरे राज्य में करना पसंद करेंगे जहां उन्हें कोई जानता न हो.
पटना विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर एन.के चौधरी ने कहा, “ब्राह्मण या कोई (अन्य) उच्च जाति सामाजिक दबाव के कारण खेतों में काम नहीं करेगा, ट्रैक्टर नहीं चलाएगा या गार्ड के रूप में काम नहीं करेगा. लेकिन राज्य के बाहर वे ऐसा करेंगे. एक सामाजिक छवि है जो अभी भी मजबूत है.”
(संपादन: अलमिना खातून)
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