नई दिल्ली: भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सोमवार को एक बार फिर ‘सीलबंद लिफाफे’ में दस्तावेजों को जमा करने की प्रथा को समाप्त करने की वकालत करते हुए कहा कि ‘अदालत में गोपनीयता नहीं हो सकती है. अदालत को पारदर्शी होना चाहिए.’
सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जेबी परदीवाला की खंडपीठ वन रैंक-वन पेंशन (ओआरओपी) योजना के बकाए से संबंधित एक मामले की सुनवाई कर रहे थे.
योजना पर अपने विचारों के संबंध में केंद्र सरकार द्वारा एक सीलबंद कवर नोट प्रस्तुत करने पर, पीठ ने यह कहते हुए इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि, ‘सर्वोच्च न्यायालय में सील बंद कवर प्रथा को समाप्त करने की आवश्यकता है. यह निष्पक्ष न्याय की प्रक्रिया के मूल के विपरीत है.’
सीलबंद कवर भारतीय अदालतों द्वारा सरकारी एजेंसियों से गोपनीय जानकारी स्वीकार करने की एक प्रथा है जो केवल न्यायाधीशों के लिए सुलभ होती है. इसका उपयोग अक्सर तब किया जाता है जब जानकारी या तो चल रही जांच से संबंधित होती है या व्यक्तिगत होती है. इसका उपयोग अक्सर सेवाओं, प्रशासनिक मामलों और यौन उत्पीड़न के मामलों में किया जाता है.
पिछले साल अक्टूबर में, मीडिया रिपोर्टों में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ के हवाले से कहा गया था कि एक सीलबंद कवर रिपोर्ट ‘एक गलत मिसाल कायम करती है’ क्योंकि यह जजमेंट प्रक्रिया को ‘अस्पष्ट और अपारदर्शी’ बनाती है.
यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने सीलबंद कवर प्रथा पर नाराजगी जताई है. देश भर के कोर्ट द्वारा दिए गए आदेशों की एक श्रृंखला दर्शाती है कि अदालतें मामले-दर-मामले के आधार पर ऐसे सीलबंद कवरों में जानकारी स्वीकार करना जारी रखती हैं.
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सीलबंद कवर का खतरा
राफेल विमान सौदे मामले में, SC ने केंद्र सरकार की सीलबंद कवर रिपोर्ट को इस आधार पर स्वीकार कर लिया था कि यह आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम से संबंधित है.
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने मूल्य निर्धारण विवरण के रूप में सरकार द्वारा दिए गए बयान की गलत व्याख्या की. फैसले के बाद, द वायर को दिए एक साक्षात्कार में, जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण शौरी ने कहा कि फैसले ने सीलबंद लिफाफों के ‘खतरे’ को उजागर कर दिया है, क्योंकि खुली अदालत में प्रस्तुत किए गए साक्ष्य सार्वजनिक जांच के लिए खुले रहेंगे.
2018 में, असम में नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) में, SC ने अपने समन्वयक प्रतीक हलेजा से एक सीलबंद कवर में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का अनुरोध किया – जिस तक न तो सरकार और न ही प्रभावित पक्षों की पहुंच थी.
सुप्रीम कोर्ट ने भीमा कोरेगांव मामले में सीलबंद लिफाफों को भी स्वीकार किया, जहां उसने महाराष्ट्र पुलिस द्वारा इस तरह के प्रारूप में प्रस्तुत सबूतों पर भरोसा किया.
सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा से जुड़े मामले में भी, अदालत ने सीवीसी (केंद्रीय सतर्कता आयुक्त) को अपनी रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में जमा करने का निर्देश दिया. इसमें कहा गया था कि वर्मा कवर पर अपना जवाब दाखिल कर सकते हैं और अदालत फैसला ले सकती है.
पहली बार नहीं
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने पिछले साल कहा था कि सीलबंद कवर प्रथा पीड़ित पक्ष को किसी आदेश को प्रभावी ढंग से चुनौती देने के अधिकार से वंचित करती है क्योंकि उसके पास ‘अनशेयर्ड’ जानकारी तक पहुंच नहीं है. बेंच ने कहा था, ‘यह अपारदर्शिता और गोपनीयता की संस्कृति को भी कायम रखता है. लेकिन यह शक्ति संतुलन को प्रभावित करता है.’
इसी तरह, चंद्रचूड़ ने मलयालम टीवी चैनल MediaOne पर केंद्र सरकार के प्रतिबंध से जुड़े मामले में कहा था कि अदालत में ‘सीलबंद कवर’ न्यायशास्त्र के खिलाफ है. दिलचस्प बात यह है कि तत्कालीन सीजेआई एन.वी. रमना ने पिछले साल बिहार सरकार से जुड़े एक मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की चिंताओं को दोहराया था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, जस्टिस रमना ने कहा था, ‘कृपया हमें सीलबंद कवर न दें, हम ऐसा नहीं चाहते.’
यहां तक कि पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को जमानत देने के आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने ईडी द्वारा प्रस्तुत सीलबंद कवर रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय की ‘निंदा’ की थी.
अदालत ने इस प्रथा को निष्पक्ष सुनवाई का अपमान बताया था, जबकि यह स्वीकार करते हुए कि वह सूचना का ‘विश्लेषण’ कर सकती है, वह उसी के आधार पर अपने निर्णय को आधार नहीं बना सकती है.
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