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Tuesday, 5 November, 2024
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कौन थे बालमुकुंद बिस्सा और क्यों उनकी विरासत पर एक दाग है जोधपुर की सांप्रदायिक हिंसा

महात्मा गांधी से प्रभावित होकर बालमुकुंद बिस्सा ने जागीरदार-विरोधी और लोक परिषद आंदोलनों में एक केंद्रीय भूमिका निभाई थी.

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जोधपुर: वो सांप्रदायिक हिंसा जिसने 2 मई की रात राजस्थान के जोधपुर को हिला दिया, जालोरी गेट पर भड़की थी- वो गोलचक्कर जहां बालमुकुंद बिस्सा की प्रतिमा स्थापित है- एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी जिनके बारे में कम ही लोग जानते हैं, जिनका अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता के गांधीवादी सिद्धांतों में पक्का विश्वास था.

जोधपुर हिंसा की शुरुआत हिंदू-मुस्लिम समूहों के बीच एक झगड़े से हुई थी, जो ईद के मौके पर जालोरी गेट पर धार्मिक झंडे और बैनर्स लगा रहे थे, जो संयोगवश परशुराम जयंती के ही दिन पड़ रही थी. ये झगड़ा अंत में सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया, जिसमें कम से कम 33 लोग घायल हुए.

अनायास ही विचार आता है कि अचानक भड़की इस हिंसा को रोका जा सकता था, अगर दोनों पक्षों ने जालोरी गेट गोलचक्कर को सजाने में एक दूसरे से लड़ने की बजाय, बालमुकुंद के विचारों को आत्मसात किया होता जहां 1957 में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई थी.

बिस्सा के बिताए हुए जीवन और स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को बेहतर ढंग से समझने के लिए दिप्रिंट ने बिस्सा के एक जीवित वंशज से बात की जो एक इतिहासकार हैं और जोधपुर के स्थानीय निवासी हैं और जिन्होंने स्वाधीनता सेनानी के अंतिम संस्कार को लेकर एक रोमांचक किस्सा सुनाया.


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आरंभिक जीवन

बालमुकुंद का जन्म 1908 में जोधपुर शहर से कोई 200 किलोमीटर दूर राजस्थान के नागौर के पीलवा गांव में पुष्कर्णा ब्राह्मणों के एक परिवार में हुआ था. उनके पिता सुखदेव बिस्सा एक बड़े कपास व्यवसायी थे, जो बिस्सा के जन्म के कुछ वर्षों बाद कोलकाता चले गए और स्वाधीनता सेनानी ने अपने शुरुआती जीवन के वर्ष वहीं पर बिताए.

उनके भाई के पोते गोल्डी बिस्सा ने दिप्रिंट को बताया कि 1934 में बिस्सा (जब वो 26 वर्ष के थे) जोधपुर वापस आ गए, जहां उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का अपना व्यवसाय स्थापित किया.

उदयपुर के भूपाल नोबल्स विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रमुख भानु कपिल ने कहा, ‘ये स्पष्ट नहीं है कि कोलकाता में वो (बिस्सा) किन दूसरे स्वाधीनता सेनानियों के संपर्क में आए होंगे. ऐसा लगता है कि वो राजनीतिक रूप से ज्यादा सक्रिय नहीं थे. लेकिन जोधपुर में उनका आगमन ऐसे समय हुआ जब मारवाड़ क्षेत्र में गहन किसान आंदोलन चल रहे थे’.

राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में जोधपुर, नागौर, बाड़मेर, पाली और जालोर ज़िले आते हैं.

कपिल ने आगे कहा कि 1920 और 1930 के दशकों में मारवाड़ इलाके में स्थानीय जागीरदार बहुत प्रभावशाली हुआ करते थे. वो भारी कर लगाते थे जिससे बड़ी संख्या में स्थानीय लोग- जिनमें अधिकतर ब्राह्मण, जैन और बनिए थे- व्यापार के लिए देश के दूसरे हिस्सों में पलायन करने को मजबूर हो गए.


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राजनीति में प्रवेश

एक सफल कवि, लेखक और कांग्रेसी नेता जय नारायण व्यास, जो आगे चलकर राजस्थान के तीसरे मुख्यमंत्री बने, जागीरदार-विरोधी आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से एक थे. इतिहास से पता चलता है कि 1934 में जोधपुर आने के कुछ समय बाद ही बिस्सा व्यास के संपर्क में आ गए.

इतिहासकार भानु कपिल आगे कहते हैं कि आंदोलन को बल तब मिला जब सुभाष चंद्र बोस ने स्थानीय नेताओं से मिलने के लिए 1938 में जोधपुर का दौरा किया. यही वो समय था जब एक बड़े आंदोलन ने, जिसे जोधपुर लोक परिषद जन आंदोलन कहा गया- ने आकार लेना शुरू किया.

इस आंदोलन का उद्देश्य जोधपुर के महाराजा उमेद सिंह के राजतंत्र को चुनौती देना था, जो उस समय अंग्रेज़ों के साथ मिले हुए थे.

लोक परिषद आंदोलन के नेताओं की मांग थी कि महाराजा की परिषदों में ज्यादा सार्वजनिक प्रतिनिधित्व हो, शासन के मामलात पर ज्यादा तवज्जो दी जाए और लोक प्रशासन के मामलों में ब्रिटिश दखलअंदाज़ी कम हो.

कपिल ने दिप्रिंट को बताया, ‘ये सामूहिक आंदोलन भारत के कहीं बड़े स्वाधीनता आंदोलन की एक कड़ी के तौर पर जुड़ा हुआ था’.


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गांधी से प्रभावित

महात्मा गांधी की पूर्ण स्वराज की मांग से प्रभावित होकर 1938 तक आते-आते बिस्सा जोधपुर के व्यास तथा रनछोरदास गट्टानी जैसे कुछ अन्य प्रभावशाली नेताओं के साथ ग्राम स्वराज आंदोलन के एक सक्रिय नेता के तौर पर उभरकर सामने आए.

बिस्सा के खादी भंडारों के नेटवर्क में वो जासूस तथा नेता आते जाते रहते थे, जो राजा के खिलाफ चल रहे आंदोलन का हिस्सा था. उन्होंने जोधपुर लोक परिषद जन आंदोलन की सार्वजनिक सभाएं आयोजित करने में भी एक केंद्रीय भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया.

कपिल ने कहा, ‘वो (बिस्सा) बहुत सेक्युलर थे और उनके सभी धर्मों और जातियों के नेताओं के साथ करीबी रिश्ते थे. उन्होंने हमेशा अहिंसा का पाठ पढ़ाया’.

हालांकि बिस्सा के गांधी से कभी निजी तौर पर मिलने का कोई रिकॉर्ड नहीं है लेकिन कपिल ने दिप्रिंट से कहा, ‘एक अवसर था जब गांधी जी ने द्वारकानाथ कचरू को (जो जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक सहायक भी थे) हालात का जायजा लेने के लिए जोधपुर भेजा था. बिस्सा तथा आंदोलन के दूसरे नेताओं ने कचरू से मुलाकात की थी’.


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हिरासत में मौत

उनके भाई के पोते गोल्डी बिस्सा ने बताया कि ऐसा माना जाता है कि हिरासत में यातना के नतीजे में 19 जून 1942 को बालमुकुंद बिस्सा की मौत हो गई.

गोल्डी ने आगे कहा कि बिस्सा की मौत के समय उनके समर्थकों ने जोधपुर विंडम अस्पताल (आज के महात्मा गांधी अस्पताल) से चांदपोल गांव तक एक शवयात्रा मार्च का आयोजन किया.

80 वर्षीय गोविंद कल्ला ने बताया, ‘जब वो शवयात्रा की भीड़ जालोरी गेट पहुंची, तो सैकड़ों की संख्या में पुलिसकर्मियों ने उनके ऊपर बंदूकें तान दी. उन दिनों स्वाधीनता सेनानियों की शवयात्रा रैलियों के शहर के अंदरूनी हिस्से में घुसने की मनाही थी. इसके नतीजे में तकरार हुई जिसके बाद लाठीचार्ज और हवाई फायरिंग हुई, जिसमें भारी संख्या में लोग घायल हुए’. कल्ला बिस्सा की मौत के कुछ महीने बाद पैदा हुए थे लेकिन उनका दावा है कि उनके बुज़ुर्गों ने उन्हें उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन की घटना के बारे में बताया था.

कल्ला आगे कहते हैं, ‘आखिर में एक मुठ्ठी भर लोग ही बिस्सा के शव को चांदपोल तक ले जा पाए, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया’.

भानु कपिल ने कहा कि यही घटना वो कारण थी जिसकी वजह से जालोरी गेट गोलचक्कर पर बालमुकुंद बिस्सा की प्रतिमा स्थापित की गई थी.


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जातीय पहचान

आगे बढ़कर 2022 पर आईए तो जोधपुर में बहुत अधिक लोग- कुछ मुठ्ठीभर पुष्कर्णा ब्राह्मणों को छोड़कर- बिस्सा की विरासत के बारे में नहीं जानते. जालोरी गेट गोलचक्कर पर लगी प्रतिमा के बारे में किसी भी स्थानीय व्यक्ति से पूछिए, तो सबसे आम जवाब यही मिलता है: ‘कोई स्वाधीनता सेनानी’.

ये इसके बावजूद है कि हज़ारों की संख्या में पुष्कर्णा ब्राह्मण- जिस समुदाय से बालमुकुंद बिस्सा का संबंध था- जालोरी गेट और मेहरानगढ़ किले के बीच के 4 किलोमीटर के हिस्से में रहते हैं, जिसे ‘अंदरूनी शहर’ भी कहा जाता है.

गोविंद कल्ला इस बात से दुखी हैं कि पुष्कर्णा ब्राह्मणों में भी युवा पीढ़ी को बिस्सा की जातीय पहचान के अलावा उनके जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी है.

इतिहासकार भानु कपिल कहते हैं कि उनके गांधीवादी विचारों की बजाय बालमुकुंद की जातीय पहचान पर ज़ोर दिए जाने का एक बहुत बड़ा कारण है.

‘बिस्सी और इस क्षेत्र के कई दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों की विरासत को स्कूली पाठ्यपुस्तकों में जगह नहीं मिल पाई. ये एक कारण है जिसकी वजह से युवा पीढ़ी की जानकारी में एक अंतराल है और ये अंतराल केवल बढ़ता ही जा रहा है. ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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