नई दिल्ली: उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़कने से 53 ज़िंदगियां खत्म हो गईं, उनमें मेहताब, ज़ाकिर, अशफाक और जमील शामिल थे — चार मुस्लिम व्यक्ति जो 25 फरवरी, 2020 को भीड़ की हिंसा के अलग-अलग मामलों में मारे गए थे. कोई दूध लाने के लिए बाहर गया था, कोई काम से घर लौट रहा था, तो कोई नमाज़ पढ़ने गया हुआ था.
दिल्ली पुलिस ने चार लोगों के क्षत-विक्षत और आधे जले हुए शव बरामद किए, जिसने शुरू में चार अलग-अलग मामले दर्ज करने से पहले इस संबंध में एक ही एफआईआर दर्ज की थी. इनमें से तीन मामलों में पुलिस ने चार हिंदू पुरुषों और एक मुस्लिम व्यक्ति को आरोपी बनाया.
पिछले हफ्ते, दिल्ली की एक अदालत ने सभी पांचों — अशोक कुमार, अजय उर्फ मोनू, सुभम सिंह और जितेंद्र कुमार को हत्या और दंगे के आरोपों से और आरिफ खान उर्फ मोटा को दंगों के आरोपों से बरी कर दिया.
आरिफ — जिस पर पुलिस ने अपने पड़ोसी मेहताब की हत्या का आरोप लगाया था, जिसे वे चाचा कहते थे — को अदालत ने अभियोजन पक्ष द्वारा उनके खिलाफ हत्या का आरोप तय करने के लिए पर्याप्त सबूत पेश करने में विफलता की वजह से बरी कर दिया.
इसके अलावा, सूत्रों के अनुसार, जमील का मामला अभी अनसुलझा है, जिससे सवाल उठता है: उसे किसने मारा, मेहताब, जाकिर और अशफाक ने?
यह 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों पर दिप्रिंट की सीरीज़ की चौथी रिपोर्ट है, जिसमें पता लगाया गया है कि कैसे इन मामलों में आरोपी पांच लोगों ने अपने कमाने के साधन खो दिए, सलाखों के पीछे से परिवार को कर्ज़ में डूबते देखा और उन लोगों की पीड़ा देखी जिन्होंने दंगों में अपनों को खो दिया.
दिप्रिंट द्वारा विशेष रूप से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, दंगों के संबंध में दर्ज किए गए 53 हत्या के मामलों में से 14 अनसुलझे हैं. बाकी 39 हत्या के मामलों में आरोपपत्र दायर किए जा चुके हैं.
हालांकि, जमील की मौत अनसुलझे 14 मामलों में से एक है.
जैसा कि दिप्रिंट ने सीरीज़ की पहली रिपोर्ट में बताया था, दंगों के संबंध में कुल 757 मामले दर्ज किए गए थे. इनमें से कुल 63 मामले — जिनमें सभी हत्या के मामले हैं — दिल्ली पुलिस अपराध शाखा को स्थानांतरित कर दिए गए. इनमें से एक मामले में चार हत्याओं में दर्ज पहली एफआईआर रद्द कर दी गई.
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शत्रुतापूर्ण गवाह और खून से सने कपड़े
पिछले हफ्ते पांच आरोपियों को बरी करते हुए दिल्ली की एक अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष का “मुख्य गवाह” अपने बयान से पलट गया. अदालत के समक्ष उसका बयान पुलिस को पहले दिए गए बयानों से अलग था.
अदालत ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि कोई भी आरोपी मेहताब, ज़ाकिर और अशफाक की हत्या में शामिल था. अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यहां तक कि ररिस्थितिजन्य प्रकृति का सबूत भी नहीं दे पाया, जिससे यह साबित हो सके कि आरोपी उस भीड़ का हिस्सा थे, जिसने हत्याएं कब और कहां की थीं.
चार अलग-अलग आदेशों में अदालत ने यह भी कहा कि फोरेंसिक जांच भी यह साबित नहीं कर सकी कि पुलिस द्वारा बरामद किए गए खून से सने कपड़े — कथित तौर पर आरोपी के मुताबिक — मृतक के थे.
अदालत ने यह भी कहा कि अभियोजन पक्ष ने न तो कोर्ट के सामने सीसीटीवी फुटेज पेश किया, जिस पर उसे भरोसा था, न ही वो यह स्थापित करने में सक्षम रहे कि विचाराधीन फुटेज का चार हत्याओं से कोई संबंध भी था.
16 नवंबर, 2021 को अदालत ने मामले में आरोपी चार हिंदू पुरुषों पर हत्या और दंगों का आरोप लगाया था, जबकि आरिफ खान उर्फ मोटा को केवल दंगों और संबंधित आरोपों में आरोपी बनाया गया था, जबकि मेहताब, ज़ाकिर और अशफाक की हत्याओं के लिए उसे बरी कर दिया गया.
पुलिस के अनुसार, अभियोजन पक्ष के “मुख्य गवाह” शशिकांत कश्यप ने 25 फरवरी 2020 को शाम 6 बजे के आसपास पुलिस नियंत्रण कक्ष को तीन हत्याओं के बारे में सचेत किया. जांचकर्ताओं ने प्रस्तुत किया था कि कश्यप मेहताब, ज़ाकिर और अशफाक की हत्याओं का “चश्मदीद गवाह” था. भीड़ के हिस्से के रूप में उनकी पहचान करने के बाद आरोपियों को हिरासत में ले लिया गया.
हालांकि, कश्यप ने अदालत में किसी भी आरोपी की पहचान नहीं की और पुलिस को ऐसा कोई बयान देने से इनकार कर दिया. हालांकि, उसने पीसीआर कॉल करने की पुष्टि की.
दिप्रिंट द्वारा प्राप्त किए गए अदालती दस्तावेज़ से पता चलता है कि सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी) विदेश सिंघल — जिन्होंने पहली चार्जशीट का मसौदा तैयार किया था — ने आरिफ के वकील द्वारा जिरह के दौरान कहा था कि कश्यप ने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 161 के तहत दर्ज किए गए अपने बयान में 10 दंगाइयों की पहचान की थी.
हालांकि, अधिकारी “उनकी पूरी जानकारी नहीं निकाल सके” और इसलिए “उपरोक्त 5 व्यक्तियों के संबंध में की गई पूछताछ के संबंध में किसी के बयान दर्ज नहीं किए”.
आरिफ के वकील, वकील अब्दुल गफ्फार ने दिप्रिंट को बताया: “जांच टीम ने स्पष्ट रूप से यहां पिक-एंड-चूज़ गेम खेला है. सबसे पहले, एक मुस्लिम व्यक्ति पर सांप्रदायिक दंगों के दौरान अन्य मुसलमानों की हत्या का आरोप लगाया और फिर उनके मुख्य गवाह द्वारा दिए गए पांच अन्य नामों को नजरअंदाज़ कर दिया, जिन्हें बाद में शत्रुतापूर्ण घोषित कर दिया. यह जांच में गंभीर चूक की ओर इशारा करता है.”
अभियोजन पक्ष के दूसरे गवाह सुरेंद्र शर्मा को भी शत्रुतापूर्ण घोषित किया गया, उन्होंने भी पुलिस को ऐसा कोई बयान देने से इनकार कर दिया जिसमें उन्होंने आरिफ को दंगाइयों में से एक के रूप में पहचाना हो. शर्मा ने अदालत में कहा कि उन्होंने आरिफ को केवल उस क्षेत्र के पास खड़ा देखा था जहां भीड़ ने हिंसा की थी, लेकिन उसे कभी भी किसी गैरकानूनी काम में शामिल होते नहीं देखा था.
मामलों से परिचित एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया, “विभिन्न कारणों से गवाह मुकर गए. उन पर पुलिस का कोई नियंत्रण नहीं है. इसमें कोविड-19 महामारी की बहुत बड़ी भूमिका थी. लोग वायरस से संक्रमित होने के डर से पुलिस से बात नहीं करना चाहते थे.”
‘हमारे लिए मामला कभी बंद नहीं होगा’
जहां तक मृतकों के परिवारों की बात है तो इस मामले के खत्म होने की उम्मीद कम ही है.
अपने बेटे को खोने के चार साल बाद से मेहताब की मां खुशनुजी की तबीयत ठीक नहीं है. वे हाल ही में लोनी में रहने चली गईं और तब से वहीं रह रही हैं.
25 फरवरी 2020 को 24-वर्षीय मेहताब शाम करीब 6 बजे दूध खरीदने के लिए बाहर निकले थे.
मेहताब की भाभी यास्मीन ने दिप्रिंट को बताया, “मेहताब की हत्या हुए बहुत समय बीत गया है. हम कानूनी प्रक्रिया को नहीं समझते. कुछ दिनों तक हमने इस पर नज़र रखने की कोशिश की कि क्या हो रहा है, लेकिन कब तक? परिवार ने एक जवान बेटा खो दिया. हममें से कोई भी उस खून-खराबे को नहीं भूलेगा. परिवार में अब हर किसी का सिस्टम से भरोसा उठ गया है.”
22 साल का अशफाक हुसैन पेशे से इलेक्ट्रीशियन थे. काम से घर लौटते समय उनकी हत्या से 11 दिन पहले ही उनकी शादी हुई थी.
24 साल के ज़ाकिर अहमद वेल्डिंग के काम में अपने भाइयों की मदद करके जीविकोपार्जन करते थे. मुस्तफाबाद में फारूकिया मस्जिद में नमाज अदा करने के लिए बाहर निकलने के बाद उन पर हमला किया गया, जिसे दंगों के दौरान जला दिया गया था.
ज़ाकिर के भाई गुलफाम ने आरोप लगाया, “मेरे भाई को सिर्फ गुस्साई भीड़ ने नहीं मारा था. वर्दीधारी लोग भी थे. उन्होंने मेरे भाई को मार डाला.” उन्होंने कहा कि परिवार तब से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है.
उन्होंने कहा, “उनकी पत्नी ने दूसरी शादी कर ली और अपनी दो लड़कियों को अपने साथ ले गई. यह बेहतर है कि वे चले गए, यहां पीछे मुड़कर देखने के लिए कुछ भी नहीं है. मेरे भाई की केवल एक गलती थी कि वो उस दिन नमाज के लिए बाहर गया था. जब हमने कहा कि हत्यारे वर्दीधारी लोग हैं और कभी नहीं सुनेंगे तो किसी ने हमारी बात नहीं सुनी.”
उन्होंने आगे कहा, “हमने बरी होने वालों के बारे में सुना है; वो तो होना ही था, लेकिन हमारे लिए कभी मामला खत्म नहीं होगा.”
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सामान्य दुनिया में लौटने के रास्ते की तलाश
मामले में आरोपी और बाद में बरी किए गए पांच लोगों में से एक, 39-वर्षीय अशोक कुमार ने कहा कि सलाखों के पीछे रहते हुए वे कईं रातों तक सो नहीं पाए.
कुमार ने दिप्रिंट से कहा, “मैं पहले से ही मामले को लेकर चिंतित था और फिर मेरी 15 और सात साल की दोनों बेटियों में तपेदिक (टीबी) का पता चला. बड़ी बेटी की सर्जरी करानी पड़ी. मेरी मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान भी बंद हो गई और मेरी पत्नी को खर्च चलाने के लिए कर्ज़ लेना पड़ा.”
कोविड-19 महामारी के दौरान अपनी मोबाइल मरम्मत की दुकान बंद होने के बाद, कुमार ने बृजपुरी में अपने घर के सामने सब्जियां बेचना शुरू कर दिया. जब दिल्ली पुलिस ने उन्हें उठाया तो वह बिल्कुल यही कर रहे थे.
उन्होंने दावा किया, “उन्होंने (पुलिस ने) कपड़ों से लेकर अन्य हथियारों तक सब कुछ ठिकाने लगा दिया और कहा कि उन्होंने यह सब मुझसे बरामद किया है.”
सुभम सिंह के पास बताने के लिए ऐसी ही कहानी है. आपराधिक न्याय प्रणाली में उलझने के बाद अपना टी-शर्ट निर्माण व्यवसाय खोने वाले 26-वर्षीय व्यक्ति ने कहा, “मेरी ज़िंदगी अब कई साल पीछे चली गई है और मुझे शून्य से शुरुआत करनी होगी. मेरी बहन की शादी के लिए पिता को हमारी ज़मीनें बेचनी पड़ीं.”
आरिफ खान के माता-पिता बाबू खान और परबीन खान को अभी भी यह भरोसा नहीं हो रहा कि पुलिस ने उनके 35-वर्षीय बेटे, एक दिहाड़ी मजदूर, को उनके पड़ोसी मेहताब सहित साथी मुसलमानों की हत्या के लिए गिरफ्तार किया था.
परबीन ने दिप्रिंट से कहा, “हम हमेशा पास-पास रहते थे और वो मेहताब की मां को अम्मी (मां) कहता था. कोई कैसे सोच सकता है कि आरिफ दंगों के दौरान अपने ही चाचा को मार डालेगा.”
पिता बाबू खान ने कहा, “उसके (आरिफ) खिलाफ चोरी आदि के कुछ अन्य पुलिस मामले हैं. हमें लगता है कि पुलिस ने दंगों के कारण उसे गिरफ्तार किया और फंसाया.”
अन्य दो आरोपी और बाद में बरी कर दिए गए — जितेंद्र कुमार (32) और अजय सिंह (26) — काम कर रहे हैं, लेकिन एक बार फिर सामान्य दुनिया में लौटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जितेंद्र ने कहा, “मैं ज़िंदगी में चार साल पीछे चला गया हूं. कोई इसकी भरपाई कैसे कर सकता है.” वे अब एक शराब की दुकान में बतौर सहायक काम करते हैं.
अशोक कुमार के मुताबिक, “एक बार जब आप जेल से बाहर आते हैं तो दुनिया आपको अलग नज़र से देखती है. आप जाकर सबको कैसे बताएंगे कि आप बरी हो गए हैं? आम लोगों के लिए आप अभी भी हत्यारे और दंगाई हैं.”
दिल्ली दंगों में गिरफ्तारियों, बरी होने और आरोपमुक्त होने पर दिप्रिंट की सीरीज़ में यह चौथी रिपोर्ट है.
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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