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Tuesday, 12 November, 2024
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मुश्किलों को पार करते हुए राष्ट्रमंडल खेलों में अचिंता शूली ने कैसे जीता गोल्ड मेडल

शूली की मां पूर्णिमा कहती हैं कि जब से उनका बेटा भारत के लिए सोना लेकर आया है, उनके पास बैठने और सांस लेने के लिए एक पल भी नहीं है.

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देउलपुर, हावड़ा: एक टूटी-फूटी सी बालकनी, जो अभी तक पूरी तरह से नहीं बनी थी, बारिश से बचने के लिए काली तिरपाल, ईंट की दीवार पर रखी हनुमान और सरस्वती की मूर्तियां और भारी वजन वाली आयरन रॉड- यह हावड़ा के एक छोटे से गांव का जिम है जहां अचिंता शूली ने सबसे पहले वज़न उठाया था. उस समय उनकी उम्र महज आठ साल थी. अचिंता शूली ने 1 अगस्त 2022 को बर्मिंघम में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में 73 किलोग्राम वर्ग में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता है.

जैसे ही घड़ी में तीन बजे, देउलपुर के इस जिम में लड़कियों और लड़कों ने आना शुरू कर दिया. इनमें से सबसे छोटे खिलाड़ी की उम्र आठ साल है. बाहर बारिश हो रही है. इससे पहले कि उनके कोच आए, उन्होंने अपने वेटलिफ्टिंग गेयर पहने, जूतों के फीतों को जोर से बांधा और वजन उठाने के लिए तैयार हो गए. एक तालाब के पीछे बने इस साधारण से जिम में अचिंता की तरह वेटलिफ्टिंग चैंपियन बनने की चाह रखने वाले समान संख्या में लड़कियों और लड़कों को ट्रेनिंग लेते हुए देखना एक सुखद अनुभव था.

पश्चिम बंगाल के हावड़ा के देउलपुर गांव में कोच अस्टम दास का जिम | फोटो: श्रेयसी डे | दिप्रिंट

जिम में 60 बच्चों को ट्रेनिंग देने वाले कोच अस्टम दास गर्व के साथ बताते हैं कि हावड़ा के देउलपुर गांव में उनके कोचिंग सेंटर से पांच अंतरराष्ट्रीय भारोत्तोलक चैंपियन निकले हैं. इनमें चार महिलाएं और एक अचिंता शूली है. एक को छोड़कर सभी ने अंतरराष्ट्रीय चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीते हैं.

दास ने कहा, ‘जब मैं रविवार को कोलकाता हवाईअड्डे पर अचिंता की अगवानी करने के लिए गया तो उसने मुझसे पूछा- क्या आप खुश हैं? मुझे उसकी उपलब्धि पर गर्व है.’

41 साल के दास उस समय से अचिंता को ट्रेनिंग देते आ रहे हैं, जब वह अपने बड़े भाई आलोक के साथ बचपन में कोचिंग सेंटर में आए था. दास ने कहा, ‘अचिंता से जैसा कहा जाता बस वो वही करते थे. उनके अंदर कोई आग नहीं थी. लेकिन जल्द ही उनके दोस्त भी ट्रेनिंग में शामिल हो गए और उनसे भारी वजन उठाना शुरू कर दिया. इससे प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा हुई. ट्रेनिंग के लिए अचिंता यहां सुबह 7 बजे से पहले, फिर 10 बजे और लंच के बाद फिर से तीन बजे आ जाते. वह सप्ताह के हर दिन तीन बार प्रशिक्षण लेते.’ दास खुद राष्ट्रीय स्तर के वेटलिफ्टर बनना चाहते थे.

पश्चिम बंगाल के देउलपुर गांव में प्रैक्टिस से पहले अभ्यास करते खिलाड़ी | फोटो: श्रेयसी डे | दिप्रिंट

वह अपनी यादों को साझा करते हुए बताते हैं, ‘मैं एक जिला स्वर्ण पदक विजेता था और 1993 में बीएसएफ में शामिल हो गया. मेरी ड्यूटी दार्जिलिंग में थी लेकिन मुझे बिल्कुल मजा नहीं आ रहा था. मेरा दिल अभी भी वेटलिफ्टिंग में अटका हुआ था. एक दिन बिना बताए मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और भारोत्तोलक बनने के लिए घर लौट आया’ लेकिन 2001 में कूल्हे की चोट के बाद वह अपनी उम्मीदों को पूरा नहीं कर सके. और फिर उन्होंने बच्चों को प्रशिक्षित करने और खेल से जुड़े रहने का फैसला किया.

दास बताते हैं, ‘मुझे याद है कि अचिंता को पांच अन्य लड़कों के साथ आर्मी ट्रायल के लिए पुणे ले जाया गया था. मैं जानता था कि ये सभी सफल हो जाएंगे. अचिंता ने मुझे आर्मी स्पोर्ट्स इंस्टीट्यूट से फोन किया और कहा कि उसने 120 किलो वजन उठाया है. उसे अपनी ताकत बनाए रखने के लिए सबसे अच्छी कोचिंग और खाना मिल रहा था. एक हफ्ते के भीतर अचिंता ने वापस फोन किया और कहा कि उसने 140 किलो वजन उठाया है.’

दास कहते हैं कि एक खिलाड़ी के बनने में कोच की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. वह फ्री कोचिंग क्लास देते हैं. उन्होंने बताया, ‘अचिंता के परिवार की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं रही है. पुणे में खर्चों के लिए मैं अचिंता को समय-समय पर दो से तीन हजार रुपये भेजता रहता था.’


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मुश्किलों को पार करते हुए

आलोक और अचिंता में सात साल का अंतर हैं. बड़े भाई के रूप में आलोक ने हमेशा अचिंता का मार्गदर्शन किया है. वह बताते हैं, ‘मैं बचपन में अचिंता को अपने साथ वेटलिफ्टिंग के लिए ले जाता और हम दोनों एक साथ ट्रेनिंग लेते थे. हमारे पिता जगत शूली एक ट्रॉली-चालक थे. हमने उन्हें 2013 में खो दिया था. उन्हें सड़क पर एक अटैक आया और उनकी मृत्यु हो गई. उस समय हम दोनों स्कूल में थे. हमारे पास उनके अंतिम संस्कार करने के लिए भी पैसे नहीं थे. रिश्तेदारों और गांव वालों ने हमारी मदद की थी.’

बड़े भाई ने आगे कहा, ‘अचिंता और मैं खेतों में काम करते. अंडे या चिकन के बदले में चावल के बोरे उठाते ताकि हमें खाने में प्रोटीन मिल सके. यह हमारे जीवन का सबसे मुश्किल समय था.’

आलोक ने परिवार की जिम्मेदारियां उठाने के लिए कॉलेज छोड़ दिया. वह पैसों के लिए अलग-अलग जगहों पर काम करने लगे. उन्होंने बताया, ‘अचिंता आर्मी स्पोर्ट्स इंस्टीट्यूट (पुणे में) में थे. उन्हें अपने खर्चों के लिए पैसे की जरूरत थी. वेटलिफ्टर की ट्रेनिंग के लिए हर महीने तकरीबन 45,000 रुपये खर्च होते हैं. अकेले सप्लीमेंट्स की कीमत 25,000 रुपये प्रति माह है. अचिंता ने मुझे फोन किया और बताया कि उसके साथी सभी सप्लीमेंट ले रहे हैं लेकिन वह उन्हें खरीद नहीं सकता था.’

भाई दमकल विभाग में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करते हैं. उनकी रोजाना की कमाई 500 रूपए है और जब वह काम पर नहीं जाते तो उन्हें उस दिन की दिहाड़ी नहीं मिलती. वह बताते हैं, ‘हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे राज्य राष्ट्रमंडल खेलों के स्वर्ण पदक विजेताओं को 20 लाख रुपये दे रहे हैं लेकिन पश्चिम बंगाल में एक खिलाड़ी को सिर्फ 5 लाख रुपये दिए जाते हैं. हमने एक सरकारी नौकरी का अनुरोध किया है ताकि अचिंता पैसों की चिंता किए बिना प्रतिस्पर्धा कर सके.’

आलोक ने कहा, ‘मैं चाहता हूं कि वह अगले ओलंपिक में स्वर्ण जीते.’

दीवार पर लटके अचिंता शूली के मेडल | फोटो: श्रेयसी डे | दिप्रिंट

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मां की उम्मीद

स्वर्ण पदक विजेता की मां पूर्णिमा शूली कमरे से गुजरते हुए बता रही थी कि उसने बर्मिंघम से लौटने के बाद अचिंता के सभी कपड़े धो दिए हैं. पूर्णिमा कहती हैं कि जब से उनका बेटा भारत के लिए सोना लेकर आया है, उनके पास बैठने और सांस लेने के लिए एक पल भी नहीं है.

उनकी मां ने याद करते हुए बताया, ‘अचिंता बचपन में बहुत शरारती था. एक दिन वह छतरी की सिर्फ छड़ी लेकर घर लौटा. मैंने उससे पूछा कि बाकी छाता कहां है, उसने कहा कि वो तो पड़ोस के गांव के तालाब में गिर गया. फिर वह उसे तालाब से बाहर निकालने के लिए मुझे साथ लेकर गया और अपने भाई को भी घसीट लिया.’

पूर्णिमा ने अपने बेटे की घर वापसी पर चिकन, दाल, चावल, कचौरी और आलू दम पकाया था. वह बताती हैं, ‘जब अचिंता बच्चा था और ट्रेनिंग ले रहा था, तो वह रोता था क्योंकि मैं उसके लिए चिकन नहीं खरीद सकती थी. वह कहता था कि उसके दोस्त हर रविवार को चिकन खाते हैं लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे’. बताते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए.

पूर्णिमा को इस बात की खुशी है कि अब इतने लोग आ रहे हैं और उसके बेटे के बारे में पूछ रहे हैं, ‘अचिंता ने पहले भी पदक जीते थे लेकिन सोना जीतने के बाद हमारे घर बहुत सारे शुभचिंतक आ रहे हैं.’

उन्हें उम्मीद है कि अब उनके बेटे को उसकी प्रतिभा और कड़ी मेहनत के लिए पहचाना जाएगा. वह कहती हैं, ‘इससे पहले किसी ने हमारे बारे में इस तरह नहीं पूछा था. हमें लगता है कि अब अचिंता को वह सब मिलेगा जिसका वह हकदार है. केंद्र ने उसकी काफी मदद की है. खेलो इंडिया ने बड़ी उपलब्धियों के लिए अचिंता को लॉन्च करने में मदद की.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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