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Thursday, 25 April, 2024
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‘आधिकारिक दर्जा और सम्मान’, दिल्ली में बसे म्यांमार से आए शरणार्थी भारत सरकार से क्या चाहते हैं

संघर्ष प्रभावित मातृभूमि म्यांमार से भागकर राजधानी दिल्ली पहुंचे पुराने और नए शरणार्थियों को न केवल अपने गुजारे के लिए संघर्ष करना पड़ता है बल्कि नस्लीय दुर्व्यवहार भी झेलना पड़ता है.

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गुवाहाटी: म्यांमार से भारत आकर शरणार्थी जीवन बिताना तीन बच्चों की 37 वर्षीय मां के लिए उम्मीद से कहीं ज्यादा कठिन साबित हो रहा है. अपनी जन्मभूमि से बेघर होना और नई दिल्ली में एक अनजाने माहौल में आकर बसना उसके लिए कई तरह की चुनौतियां खड़ी करने वाला है.

उसके तीन बेटों—दो 10 साल के जुड़वां और तीसरा 7 वर्ष की उम्र का है—के लिए अपने नए स्कूल में एडजस्ट करना एक मुश्किल काम है. उसका कहना है कि स्कूल के अन्य छात्र बच्चों को परेशान करते हैं, वे पढ़ाई में पिछड़ रहे हैं और टीचर्स भी किसी तरह का समर्थन नहीं कर रहे हैं.

2021 के सैन्य तख्तापलट के दौरान म्यांमार में विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय भूमिका निभाने वाली उक्त महिला अब अपने घर तो नहीं लौट सकती, लेकिन भारत में भी रहने की इच्छुक नहीं है. वह अपने बच्चों को लेकर नीदरलैंड जाना चाहती हैं, जहां उसके पति रहते हैं. लेकिन दिल्ली में रह रहे अपने देश के कई लोगों की तरह, उसका भी कहना है कि आवश्यक दस्तावेज हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही हैं, जो उसे यहां से तीसरे देश जाने की अनुमति देगा. उसे निकास परमिट मिलने का इंतजार है.

शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायोग (यूएनएचसीआर) की वेबसाइट के मुताबिक, 31 जनवरी 2022 तक 46,000 से अधिक शरणार्थी और शरण चाहने वाले यूएनएचसीआर, भारत में पंजीकृत हैं. इसमें अधिकांश म्यांमार और अफगानिस्तान के नागरिक हैं.

म्यामांर से आई उक्त शरणार्थी का कहना है, ‘मैं चाहती हूं कि मेरा परिवार फिर एक साथ हो लेकिन यह मुश्किल लगता है. यद्यपि सोमालिया और अफगानिस्तान के शरणार्थियों को निकास परमिट दिया जाता है लेकिन म्यांमार के नागरिकों को इससे वंचित कर दिया जाता है.’

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और फिलहाल जब वह जरूरी दस्तावेजों का इंतजार कर रही है, उसे ‘ट्रॉमा’ से गुजरते अपने बच्चों की चिंता सता रही है.

उसने नवंबर 2021 में दिल्ली आने के बाद से अपने अनुभवों को बताते हुए उसने कहा, ‘सामुदायिक पार्क में कुछ बच्चों ने मेरे बच्चों पर पत्थर फेंके और उसके फुटबॉल की हवा निकाल दी. मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं, लेकिन फिर भी मैंने उन्हें यह खरीदकर दिया था. मैंने स्थानीय लोगों से बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कहा कि बच्चे शरारती किस्म के हैं और उन्होंने पार्क में न जाने की सलाह दी. एक दिन बड़ी उम्र के दो लड़कों ने मेरे छोटे बेटे को थप्पड़ मार दिया. मेरे बच्चे रोते हुए घर आए. जब मैं उनके साथ खेल के मैदान में पहुंची तो वे बदमाश बच्चे भाग चुके थे.’

यूएनएचसीआर इंडिया के अस्थायी शरणार्थी प्रमाणपत्र के तहत, उसके बच्चों को देश में पढ़ने की अनुमति है और उन्हें पिछले साल जून में एक सरकारी स्कूल में भर्ती कराया गया है.

उसने बताया कि कैसे महामारी और म्यांमार में तख्तापलट के कारण उसके बच्चों को दो साल पढ़ाई से वंचित रहना पड़ा. साथ ही उसके कहा, ‘यहां स्कूल में बच्चे उन्हें धमकाते हैं और क्लास में मारपीट भी करते हैं. शिक्षकों का कहना है कि अगर उन्होंने हिंदी नहीं सीखी तो उनका नाम काट दिया जाएगा. उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है कि मेरे बच्चे हिंदी या अंग्रेजी नहीं बोल सकते.’

वह सैन्य तख्तापलट के बाद म्यांमार के विभिन्न हिस्सों से भारत आने वाले शरणार्थियों में शामिल थी. वह म्यांमार के सागैंग डिवीजन स्थित कलाय क्षेत्र से हैं, जबकि उनके आसपास के अन्य लोग चिन स्टेट और मैग्वे डिवीजन से हैं.

म्यांमार की एक सामाजिक अधिकार कार्यकर्ता, जो अपना नाम नहीं बताना चाहती थी, का अनुमान है कि नई दिल्ली में 500 से अधिक पुराने और 1,000 से अधिक नए शरणार्थी हैं, जिनमें से अधिकांश सैन्य तख्तापलट के बाद भारत आए थे. इनमें चिन, बामर, काचिन, कुकी और जोमी जैसे विभिन्न जातीय समुदायों से संबंधित लोग शामिल हैं.

उनके मुताबिक, इन लोगों के बीच बातचीत बहुत ‘सीमित’ क्योंकि वे सभी अलग-अलग बोलियां बोलते हैं.

टियाउ नदी के दोनों किनारों पर रहने वाले समुदायों के बीच मौजूद मजबूत जातीय और पारिवारिक संबंधों के कारण अधिकांश चिन शरणार्थियों को मिजोरम में आश्रय मिला है, जो भारत और म्यांमार के बीच सीमा पर स्थित है. मिजोरम सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, इस पूर्वोत्तर राज्य में अभी म्यांमार के 35,000 से अधिक शरणार्थी बसे हुए हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए इंडिया फॉर म्यांमार के संस्थापक सलाई दोखर ने कहा कि दिल्ली में शरणार्थियों को ‘यूएनएचसीआर से पर्याप्त मानवीय समर्थन’ नहीं मिल रहा.

उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में म्यांमार के शरणार्थियों को बहुत कठिनाई झेलनी पड़ रही है, जिसमें नौकरी का अभाव, बच्चों के लिए पढ़ाई और बेहतर अवसर न होना, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य सेवाओं के लाभ पाने में चुनौतियां आदि शामिल हैं. नए शरणार्थियों पर विचार किया जा रहा है, लेकिन जो लोग काफी समय से यहां रह रहे हैं, उन्हें अभी भी किसी तीसरे देश में शरण लेने के लिए अपने निकास परमिट का इंतजार है.’

उन्होंने कहा, ‘शरणार्थियों ने यूएनएचसीआर को भी भेदभाव होने की सूचना दी है, लेकिन उनकी दलीलों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. भारत सरकार और यूएनएचसीआर को उनकी दुर्दशा समझने की कोशिश करनी चाहिए और शरण के इच्छुक नए लोगों के लिए केस इंटरव्यू जल्द से जल्द शुरू करने चाहिए.’

मार्च 2021 में गृह मंत्रालय ने स्पष्ट किया था कि भारत शरणार्थियों की स्थिति और इसके 1967 के प्रोटोकॉल से संबंधित 1951 के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है. ऐसे में राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन के पास किसी विदेशी को ‘शरणार्थी’ का दर्जा देने का अधिकार नहीं है.

हालांकि, इसने केंद्र सरकार की तरफ से 2011 में जारी और संशोधित एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का उल्लेख किया, जिसका कानून प्रवर्तन एजेंसियों को शरणार्थी होने का दावा करने वाले विदेशी नागरिकों के मामले में इस्तेमाल करना चाहिए और कहा कि उपयुक्त मामलों में, केंद्र सरकार की तरफ से लंबे समय का सावधि वीजा (एलटीवी) प्रदान किया जा सकता है.

म्यांमार शरणार्थियों के निकास परमिट पर अपडेट के संबंध में दिप्रिंट ने गृह मंत्रालय के प्रवक्ता राज कुमार से संपर्क साधा, लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें इस मामले में कोई जानकारी नहीं है.


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ट्रॉमा के साथ रहना—कल और आज

1 फरवरी 2021 को सत्ता कब्जाने के म्यांमार सेना के फैसले—जब 2020 के संसदीय चुनाव के बाद लोकतांत्रिक रूप से चुने गए सदस्यों के शपथ लेने में एक दिन बाकी था—के बाद देशभर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे.

37 वर्षीय तीन बच्चों की मां उन्हीं सैकड़ों नागरिकों में एक थी, जो तातमादा (म्यांमार सेना) के खिलाफ हड़ताल पर चले गए. वह कलाय में एक नागरिक समाज संगठन का हिस्सा थीं, जिसने शहर में हर तरफ प्रदर्शनों की अगुआई की.

उसने बच्चों को अपने माता-पिता की निगरानी में छोड़ दिया और अपनी सुरक्षा के लिए बैरक निर्माण में जुटे म्यांमार सेना विरोधी प्रदर्शनकारियों के साथ शामिल हो गई. सेना की नजर में आने से बचने के लिए हमले की योजना बनाते समय वह घर के कपड़े और स्लिपर पहनकर निकलती थी.

उन्होंने बताया, ‘हमने हर दिन कलाय की सड़कों पर मार्च निकाला. मैं 2 फरवरी 2021 को घर से निकली थी, क्योंकि सेना एक्टिविस्ट के नाम जानती थी और हमें ढूंढ रही थी. 1 मार्च को कलाय में एक कॉलेज छात्र पहला शहीद बना. फिर (सैन्य शासन) जुंटा ने तुरंत ही मार्शल लॉ की घोषणा कर दी.’

उस समय सेना हर दिन करीब आती जा रही थी, विभिन्न जिलों में घर-घर तलाशी ले रही थी और गिरफ्तारियां हो रही थीं. मांडले और यांगून दोनों में लोगों के मारे जाने की खबरें सामने आई थीं. सारी अफरा-तफरी के बीच कलाय के एक्टिविस्ट अपने बनाए बैरकों में से एक में शरण ले चुके थे. इस तरह वे करीब एक महीने तक गिरफ्तारी और फायरिंग से बचे रहे.

उन्होंने बताया, ‘प्रदर्शन बंद नहीं हुए. मुझे याद है कि मैं एक दिन तौंगफिला गांव में कई घंटों तक छिपी रही थी, लेकिन 28 मार्च को सेना ने हमें ढूंढ लिया. यह हमारे जुंटा विरोधी हमलों में से एक के ठीक बाद हुआ था. उन्होंने बैरक में आग लगा दी. मेरे दोस्त को ठीक मेरे सामने एक स्नाइपर ने सीने में गोली मार दी. मैं उसे अस्पताल ले गई, लेकिन उसे बचाया नहीं जा सका. गोली लगने के पांच मिनट के भीतर उसकी मौत हो गई थी.’

जैसे ही यह खबर पूरे देश में फैली और उनके संगठन का नाम खुलकर सामने आ गया, तो उन्हें समझ आ गया था कि अब म्यांमार छोड़ने का समय आ गया है. अपने दोस्त के अंतिम संस्कार में शामिल होने के बाद उसने अपने बच्चों के साथ भारत भागने की योजना बनाई.

अप्रैल 2021 में उसने अपने बेटों के साथ तियाउ नदी पार की. दिल्ली आने का फैसला करने से पहले 7 महीने ये लोग एजल में एक दोस्त की औद्योगिक इकाई में रहे.

मौजूदा समय में, वह छोटी-मोटी कमाई के लिए म्यांमार के नागरिक समाज संगठन को ऑनलाइन कंसल्टेशन प्रदान करती है.

पश्चिमी दिल्ली के असलपुर इलाके में मोबाइल चार्जर बनाने वाली एक फैक्ट्री में काम करने वाली कलाय की ही एक अन्य 25 वर्षीय शरणार्थी ने दिप्रिंट को बताया कि ‘भारतीय नहीं दिखने’ की वजह से उसे कैसे नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा.

वो अपने पति के साथ रहने के लिए 2013 में राजधानी के जनकपुरी इलाके में आ गई थी. उसका पति 2010 में सैन्य शासन के तहत ‘विकास के अभाव’ में ‘अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की तलाश’ में म्यांमार छोड़कर आ गया था.

गौरतलब है कि म्यांमार पर 1962 से 2011 तक सशस्त्र बलों का शासन रहा था. 2011 में सैन्य जुंटा को आधिकारिक तौर पर भंग कर दिया गया और राष्ट्रपति के रूप में पूर्व सेना नौकरशाह थीन सीन के तहत एक नई नागरिक सरकार स्थापित हुई. और संक्रमण काल के दौरान कई राजनीतिक और सामाजिक सुधार लागू किए गए.

निकास परमिट का इंतजार, सम्मान की अपेक्षा

दिल्ली में रह रहे म्यांमार के अधिकांश शरणार्थी किसी तीसरे देश में जाने के लिए अपने निकास परमिट की प्रतीक्षा कर रहे हैं, क्योंकि किसी भी शरणार्थी के लिए देश छोड़ने की अनुमति के लिए सरकार की तरफ से आवश्यक मंजूरी लेनी होती है. आवेदन जमा करने के बाद इसे विदेशियों के पंजीकरण कार्यालय (एफआरओ) से हासिल किया जा सकता है.

इस साल जनवरी में दिल्ली के जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन करने वाले म्यांमार के शरणार्थियों की एक मांग निकास परमिट दिए जाने से जुड़ी भी थी.

सितंबर 2022 में केंद्र सरकार ने म्यांमार की सेनोआरा बेगम और दिल्ली में रह रहे उनके तीन नाबालिग बच्चों को बाहर निकलने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था. सेनोआरा उन कुछ म्यांमार शरणार्थियों में से हैं, जिन्होंने पिछले साल दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और अदालत से केंद्र सरकार और विदेश मंत्रालय (एमईए) को निकास परमिट जारी करने का निर्देश देने की मांग की थी.

एएनआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार ने अपने एक हलफनामे में कहा था कि उसके पास सुरक्षा एजेंसियों का विश्वसनीय इनपुट है जो बताता है कि ‘इस समय भारत में रह रहे अवैध रोहिंग्या प्रवासियों के आतंकवादी संगठनों के साथ रिश्ते’ हैं और यदि कोई अवैध विदेशी है तो उसे राष्ट्रीयता की जांच और विदेश मंत्रालय के साथ उचित परामर्श के बाद उसके मूल देश में भेज दिया जाना चाहिए.’

यूएनएचसीआर के तहत शरणार्थी और शरण चाहने वाले ‘मानार्थ उपायों’ का लाभ उठा सकते हैं जो किसी तीसरे देश में प्रवेश और वैध प्रवास की सुविधा प्रदान करते हैं जहां उनकी अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके. इन उपायों में शरणार्थियों को समुदाय-आधारित और व्यक्तिगत प्रायोजन वीजा प्रदान करने के अलावा, उन्हें उनके परिवारों से मिलाना, मानवीय आधार पर वीजा देना, तीसरे देश के रोजगार और शैक्षिक कार्यक्रम और विशेष मानवीय योजनाएं शामिल हैं.

हालांकि, आधिकारिक तौर पर किसी आवेदक की ‘शरणार्थी स्थिति’ स्पष्ट होने को लेकर अनिश्चितता से प्रक्रिया जटिल हो जाती है.

मणिपुर के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि पूर्वोत्तर राज्यों में शरण लेने वाले म्यांमार की विभिन्न जातियों के शरणार्थियों को दिल्ली की यात्रा करनी होती है, अगर वे यूएनएचसीआर के तहत शरणार्थी सुरक्षा के लिए अर्हता प्राप्त करना चाहते हैं.

उक्त एक्टिविस्ट ने कहा, ‘दूरी और खर्चों को देखते हुए कई लोग राष्ट्रीय राजधानी आने का जोखिम नहीं उठा सकते और उनमें से ज्यादातर के पास यात्रा दस्तावेज नहीं हैं. इसलिए, वे मिजोरम या मणिपुर में अपने रिश्तेदारों के साथ किराए के घरों या अस्थायी आश्रयस्थलों में रहते हैं. जो लोग दिल्ली पहुंच गए हैं वे आज ज्यादा कठिनाइयों से जूझ रहे हैं. नौकरी पाना कोई आसान काम नहीं है, और अगर नौकरी मिल भी जाती है तो काम के घंटे लंबे और वेतन कम है. वे हिंदी नहीं जानते हैं, और इससे समस्या और बढ़ जाती है.’

2011 से अपने परिवार के साथ नई दिल्ली में रह रहे म्यांमार को एक 57 वर्षीय व्यक्ति को अपने रिश्तेदारों के पास ऑस्ट्रेलिया जाने के लिए जरूरी दस्तावेजों का इंतजार है. म्यांमार में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने वाला और दो बच्चों का पिता यह व्यक्ति अपने देश में मची उथल-पुथल से बचने और बेहतर अवसर खोजने के लिए भारत आया था.

म्यांमार स्थित चिन राज्य के टेडिम टाउनशिप से यहां आया यह व्यक्ति तबसे दिल्ली के एक मॉल में हाउसकीपिंग स्टाफ के तौर पर काम कर रहा है. हालांकि, उसे हिंदी बोलने में दिक्कत होती है, लेकिन वह कुछ बुनियादी बातों को समझकर अपना काम चला लेता है. उन्होंने कहा, ‘हम अलग दिखते हैं, हम अशिक्षित हैं, और हम यहां की भाषा भी नहीं जानते. कभी-कभी जब मेरे सहकर्मी मुझे धमकाते हैं तो मैं भी लड़ना चाहता हूं, लेकिन इसका नतीजा जानते हुए मैं शांत रहना ही बेहतर समझता हूं.’

उन्होंने बताया कि उनकी बेटियां अंग्रेजी और हिंदी दोनों बोल सकती हैं, और आगे की यात्रा की तैयारी के क्रम में ऑस्ट्रेलियाई वीजा हासिल करने के बाद उन्होंने 2021 में स्कूल छोड़ दिया था. वे उस वक्त 12वीं और 10वीं क्लास में पढ़ती थीं. बहरहाल, एफआरओ की तरफ से उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं दी गई.

उत्तम नगर में चार लोगों के इस परिवार के पास बस गुजारे लायक ही जगह है. उनकी बेटियां गुरुग्राम में एक गेस्ट हाउस में हाउसकीपर के रूप में काम करती हैं, उनकी पत्नी एक दर्जी हैं, और नई दिल्ली में शरणार्थियों के समुदाय के लिए खाना पकाने का काम भी करती हैं.

हालांकि, शरण चाहने के इच्छुक नए लोगों की तुलना में उसको एक फायदा जरूरत है कि उसे यूएनएचसीआर से ‘स्मार्ट आईडी कार्ड’ मिला कार्ड हुआ है. इस मल्टीपल वॉलेट का उपयोग स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में विभिन्न एजेंसियों की तरफ से शरणार्थी सहायता के लिए किया जा सकता है.

विकासपुरी में रहने वाली तीन बच्चों की मां ने कहा कि नए शरणार्थियों को भी ऐसे लाभ के लिए स्मार्ट कार्ड की जरूरत है, खासकर आजीविका प्रशिक्षण, वित्तीय मदद और संसाधन आदि के लिए.

उसने बताया कि जब भी संभव होता है, उसके पति की तरफ से पैसा भेजा जाता है लेकिन वह यहां रहने का खर्च वहन करने और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए पर्याप्त नहीं होता है. उसने कहा, ‘दिल्ली में चीजें महंगी हैं. हम किराए और पानी-बिजली के बिलों के लिए करीब 10,000 रुपये मासिक भुगतान कर रहे हैं. मुझे अपने बच्चों के लिए नोटबुक और दैनिक आवश्यक वस्तुओं की खरीद करनी है.’

फिर भाषा भी एक बड़ी बाधा है. वह कहती है, ‘यद्यपि कुछ दुकानदार अच्छे होते हैं, अन्य अंग्रेजी बोलने से मना करते हैं. गलियों में, कुछ लोग अजीब तरह से टिप्पणी करते हैं जिसे मैं समझ नहीं पाती. कुछ अश्लील इशारे करते हैं.’ साथ ही कहा कि उनके जैसे शरणार्थियों को मानवीय आधार पर कुछ सुरक्षा दी जानी चाहिए.

वह कहती है, ‘मैं डिप्रेशन झेल रही हूं, अपने बच्चों को लेकर चिंतित हूं. बस इतना चाहती हूं कि मेरे साथ गरिमा और सम्मान के साथ व्यवहार किया जाए.’

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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