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Sunday, 23 June, 2024
होमदेशक्या है राजद्रोह कानून जिस पर SC ने लगाई रोक, 2016-19 में बढ़ीं गिरफ्तारियां पर कम हुए दोषसिद्धि के मामले

क्या है राजद्रोह कानून जिस पर SC ने लगाई रोक, 2016-19 में बढ़ीं गिरफ्तारियां पर कम हुए दोषसिद्धि के मामले

2016 से 2019 के बीच आईपीसी की धारा 124-ए के तहत दर्ज किए गए मामलों में करीब 160 फीसदी का इजाफा हुआ है. हालांकि, इन मामलों में दोषिसिद्धि की दर 2019 में गिरकर 3.3 फीसदी रह गई है जो कि 2016 में 33.3 फीसदी थी.

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नई दिल्लीः पिछले कुछ दिनों से काफी विवादित रहे राजद्रोह कानून पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है. चीफ जस्टिस एन वी रमना की अगुवाई वाली बेंच ने बुधवार को आईपीसी की धारा- 124ए के तहत आरोपों संबंधी सभी लंबित ट्रायल, अपील और कार्रवाई पर तब तक रोक लगा दी जब तक केंद्र सरकार इसे री-एग्जामिन करने की प्रक्रिया को पूरी नहीं कर लेती. खास बात है कि इस धारा में बंद आरोपी भी जमानत के लिए अपील कर सकते हैं.

2019 में दर्ज हुए सबसे ज्यादा मामले

केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2019 में राजद्रोह के सबसे ज्यादा 93 मामले दर्ज हुए हैं. वहीं अगर 2014 से 2019 के बीच के पांच सालों की करें यानी की बीजेपी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान देशद्रोह के कुल 326 मामले दर्ज हुए. वहीं साल 2018 में 70, 2017 में 51, 2016 में 35, 2015 में 30 और 2014 में 47 मामले दर्ज किए गए.

अगर राज्यों की बात करें तो राजद्रोह के सबसे ज्यादा मामले असम (54) में उसके बाद झारखंड में राजद्रोह से सबसे ज्यादा मामले दर्ज किए गए. साल 2019 में केंद्रशासित प्रदेश बने जम्मू कश्मीर में भी इस दौरान 25 केस दर्ज हुए. लेकिन पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों और अंडमान निकोबार, लक्षद्वीप, चंडीगढ़, दमन दीव इत्यादि में एक भी केस दर्ज नहीं किया गया. इन पांच सालों में 141 लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया गया लेकिन कुल 6 लोगों को अपराध के लिए दोषी पाया गया.


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गिरफ्तारियां बढ़ीं लेकिन दोषसिद्धि के मामले कम हुए

पिछले कुछ सालों से राजद्रोह को लेकर दर्ज होने वाले मामलों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है. ऐसा आरोप सरकार पर लगता रहा है कि उसके खिलाफ बयान देने पर राजद्रोह की धाराओं के तहत केस दर्ज कर लिया जाता है. एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक साल 2016 से 2019 के बीच आईपीसी की धारा 124-ए के तहत दर्ज किए गए मामलों में करीब 160 फीसदी का इजाफा हुआ है. हालांकि, इन मामलों में दोषिसिद्धि की दर 2019 में गिरकर 3.3 फीसदी रह गई है जो कि 2016 में 33.3 फीसदी थी.

इसके मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट पहल भी कई मौकों पर कहती रही है कि आईपीसी की धारा 124ए का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए और राज्यों को निर्देश दिया कि इस मामले में केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के केस में दिए निर्देशों का पालन करना चाहिए.

क्या है राजद्रोह कानून

दरअसल भारत में देशद्रोह कानून 152 साल पुराना है. सबसे पहले इसे 1870 में आईपीसी में शामिल किया गया. मौजूदा वक्त में आईपीसी की धारा 124-ए के तहत अगर कोई भी व्यक्ति सरकार विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिह्नों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है, अपने लिखित या फिर मौखिक शब्दों या फिर चिह्नों या फिर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर नफरत फैलाने या फिर असंतोष जाहिर करता है तो फिर उस पर राजद्रोह के खिलाफ मामला दर्ज किया जा सकता है.


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महात्मा गांधी पर भी लग चुका है आरोप

हाल ही में यह सीएए विरोध के दौरान भी काफी लोगों पर देशद्रोह के आरोप लगे. दिशा रवि, कन्हैया कुमार, शरजील इमाम और हार्दिक पटेल जैसे चेहरे देशद्रोह कानून के आरोप के कारण सुर्खियों में रहे. लेकिन ब्रिटिश काल में महात्मा गांधी पर भी 1922 में इस कानून का इस्तेमाल कर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था और ब्रिटिश सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार करके 6 साल की सजा सुना दी गई थी. हालांकि बाद में खराब स्वास्थ्य के कारण उन्हें 2 साल के भीतर ही रिहा कर दिया गया था. उनके ऊपर राजद्रोह का मामला उनके साप्ताहिक पत्र यंग इंडिया में लिखे एक आर्टिकिल की वजह से दर्ज किया गया था. इसके अलावा बाल गंगाधर तिलक पर भी उनके दैनिक पत्र मराठा और केसरी में एक रिपोर्ट छापने के आरोप में राजद्रोह की धारा के तहत मामला दर्ज किया गया था.

क्या है विरोध

जहां एक तरफ देशद्रोह कानून देश विरोधी, अलगाववादी और आतंकी तत्वों को रोकने और जन सुरक्षा को कायम करने में मदद करता है और हिंसक या गैर-कानूनी तरीके से चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंकने जैसी गतिविधियों पर भी प्रतिबंध लगाता है वहीं कुछ लोगों का मानना है कि इससे भारत के संविधान में नागरिकों को दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन होता है. इनका कहना है कि इस कानून के जरिए व्यक्ति का मौलिक अधिकार सीमित हो जाता है. जिसकी वजह से इस बात पर बहस काफी दिनों से जारी है कि अंग्रेजों के ज़माने के इस कानून में जरूरी संशोधन किए जाने चाहिए. खासकर तब जब ब्रिटेन ने खुद इस कानून को 2009 में खत्म कर दिया.


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