नई दिल्ली: पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में एल. विक्टोरिया गौरी की मद्रास हाईकोर्ट के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति पर अभूतपूर्व विवाद देखने को मिला.
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने 17 जनवरी को गौरी को हाईकोर्ट में प्रोन्नत करने की सिफारिश की थी, लेकिन उनकी नियुक्ति तब विवादास्पद बन गई, जब मद्रास हाईकोर्ट के वकीलों ने उन पर ईसाइयों और मुसलमानों के खिलाफ ‘नफरती भाषण’ देने का आरोप लगाते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ से सिफारिश को वापस लेने की मांग की. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दायर की गईं. इनमें से एक सीनियर एडवोकेट आर. वैगई ने दायर की थी, जिसमें उनकी पदोन्नति की सिफारिश को चुनौती दी गई थी.
उनकी नियुक्ति की सूचना सोमवार को दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को गौरी की नियुक्ति में हस्तक्षेप करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि एक उम्मीदवार की राजनीतिक संबद्धता या उनके विचारों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति न्यायाधीश के रूप में उनके काम को प्रभावित नहीं करती है. अदालत की ओर से याचिकाओं को खारिज करने के विस्तृत कारणों को शुक्रवार को सार्वजनिक कर दिया गया था. उसके बाद गौरी ने मंगलवार को मद्रास हाईकोर्ट के एक अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में शपथ ली.
हालांकि, ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी जज की नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई हो. 1992 में भी कुछ इसी तरह का एक मामला सामने आया था, लेकिन तब शीर्ष अदालत ने गौहाटी हाईकोर्ट में न्यायाधीश के रूप में शपथ लेने से पहले के. एन श्रीवास्तव की नियुक्ति को रद्द कर दिया था. गौरी के मामले में याचिकाकर्ताओं ने उनकी नियुक्ति को चुनौती देने के लिए 1992 के इस मामले का भी हवाला दिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में जज की नियुक्ति को रद्द क्यों किया, जबकि विक्टोरिया गौरी के मामले में ऐसा करने से इनकार कर दिया. इन दोनों फैसलों के पीछे क्या कारण रहे, दिप्रिंट इस पर एक नज़र डाल रहा है-
1992 का मामला
यह मामला गौहाटी हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में केएन श्रीवास्तव की नियुक्ति के विवाद से जुड़ा था.
राष्ट्रपति ने 15 अक्टूबर 1991 को श्रीवास्तव की नियुक्ति को अधिसूचित कर दिया था, लेकिन उन्होंने तब तक न्यायाधीश के रूप में शपथ नहीं ली थी. अदालत के सामने सवाल यह था कि क्या उनकी नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद-217 का उल्लंघन करेगी, जो उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की बात करता है और उनकी नियुक्ति के लिए पात्रता मानदंड सूचीबद्ध करता है. अन्य बातों के अलावा, यह प्रावधान कहता है कि एक व्यक्ति हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य तभी होगा जब उसने कम से कम दस सालों के लिए भारत में ‘न्यायिक कार्यालय’ का कार्यभार संभाला हो या कम से कम दस सालों के लिए हाईकोर्ट के वकील के रूप में अभ्यास किया हो. एक वकील ने श्रीवास्तव की नियुक्ति को गौहाटी हाईकोर्ट में चुनौती दी थी और इस याचिका को फिर सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया था.
सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह तर्क दिया गया कि श्रीवास्तव ने न तो दस साल तक एक वकील के रूप में अभ्यास किया और न ही कोई न्यायिक कार्यालय संभाला. अपनी सिफारिश के समय वे मिज़ोरम सरकार के कानून और न्यायिक विभाग के कानूनी सलाहकार और सचिव के रूप में काम कर रहे थे.
श्रीवास्तव के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले को हाईकोर्ट में नियुक्ति के लिए उनकी पात्रता के मुद्दे तक सीमित कर दिया. इसके बाद शीर्ष अदालत ने कहा कि श्रीवास्तव वास्तव में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य नहीं है और उनकी नियुक्ति को रद्द किया जाता है.
यह भी पढ़ेंः मिलिए उन 5 जजों से जो मोदी सरकार और कॉलेजियम की खींचतान के बाद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बने
‘स्वतंत्र भारत में पहली बार’
1992 के फैसले ने आरोपों की असामान्य प्रकृति पर ध्यान दिया था. फैसले में कहा गया था, ‘‘आज़ादी के बाद यह पहली बार है कि जब अदालत को ऐसी स्थिति को सामना करना पड़ रहा है, जहां उसे किसी ऐसे व्यक्ति की योग्यता निर्धारित करने का कर्तव्य निभाना है जिसे भारत के राष्ट्रपति ने उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया है और जो अपने ऑफिस में जाकर अपना पद ग्रहण करने की प्रतीक्षा कर रहे हैं.’’
गौरी के मामले में याचिकाकर्ताओं ने यह दिखाने के लिए इस फैसले का हवाला दिया कि सर्वोच्च न्यायालय एक न्यायाधीश की नियुक्ति को निरस्त कर सकता है, भले ही नियुक्ति आदेश जारी किया जा चुका हो.
हालांकि, 1993 में दूसरे न्यायाधीशों के मामले और 1998 में तीसरे न्यायाधीशों के मामले में कॉलेजियम प्रणाली के क्रिस्टलीकृत होने से पहले श्रीवास्तव के मामले का फैसला किया गया था. अगर सुप्रीम कोर्ट ने गौरी की नियुक्ति में हस्तक्षेप किया होता, तो सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा की गई सिफारिश के खिलाफ इस तरह का यह पहला हस्तक्षेप होता.
‘योग्यता से संबंधित’
हालांकि गौरी से जुड़े मामले में हाईकोर्ट में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने की उनकी ‘योग्यता’ को चुनौती नहीं दी गई थी. जस्टिस संजीव खन्ना और बी.आर. गवई की पीठ द्वारा गौरी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में पिछले फैसलों का हवाला दिया गया है, जो मूल्यांकन के लिए एक उम्मीदवार की योग्यता और एक उम्मीदवार की योग्यता के मूल्यांकन के बीच अंतर करता है.
इन निर्णयों का हवाला देते हुए न्यायालय ने कहा कि वह एक उम्मीदवार की योग्यता पर विचार कर सकता है. सवाल यह है कि कोई व्यक्ति न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य है या नहीं, क्या इसमें उपयुक्तता का पहलू शामिल है और न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर है. गौरी के मामले में चिंताएं उनकी उपयुक्तता से संबंधित थीं न कि उनकी योग्यता से.
सर्वोच्च न्यायालय ने तब बताया कि 1992 का फैसला ‘‘एक ऐसे व्यक्ति की पात्रता से संबंधित मामले में पारित किया गया था, जिसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति का अधिपत्र जारी किया गया था,लेकिन जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य नहीं था.’’
गौरी की नियुक्ति के खिलाफ याचिकाओं को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा,‘‘किसी उम्मीदवार की उपयुक्तता या योग्यता की जांच करने के लिए न्यायिक समीक्षा की शक्ति को लागू करने के लिए इस फैसले को आगे बढ़ाया नहीं जा सकता है.’’
(अनुवादः संघप्रिया | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ेंः SC ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु नियमों को सरल बनाया – कम लालफीताशाही, मेडिकल बोर्ड के फैसले के लिए समय सीमा तय की