नई दिल्ली: जम्मू कश्मीर में लंबे समय से चल रहे डिलिमिटेशन यानी परिसीमन बदलने की कवायद एक बार फिर से चर्चा में आ गई है. कई रिपोर्ट इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बहुत दिनों से ठंडे बस्ते में पड़े इस जिन्न को दोबारा बाहर निकालने के प्रयास में है. हालांकि गृह मंत्रालय की तरफ से इसको लेकर कोई फरमान जारी नहीं हुआ है लेकिन इस मुद्दे पर आई कुछ रिपोर्टों ने राज्य के राजनीतिक गलियारे में एक हलचल जरूर मचा दी है.
ये क्या है, पहली बार कब हुआ, इसके लिए कौन जिम्मेदार है और घाटी के लिए भविष्य में इसकी क्या संभावना है. इस पूरे मामले पर दिप्रिंट ने परिसीमन पर एक नजर डाली है.
परिसीमन क्या है ?
किसी संसदीय या विधानसभा क्षेत्र की सीमाएं निर्धारित करने को परिसीमन कहते हैं. यह प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए कुछ वर्षों में की जाती है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या लगभग बराबर है या नहीं. इसलिए, इसे हर जनगणना के बाद प्रयोग में लाया जाता है. प्रत्येक जनगणना के बाद, संसद संविधान के अनुच्छेद 82 के तहत परिसीमन अधिनियम लागू करती है. इसके बाद, परिसीमन आयोग के रूप में जाने जाने वाला एक निकाय गठित किया जाता है, जो निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं के सीमांकन की प्रक्रिया को अंजाम देता है.
इस आयोग का आदेश मानना कानूनी रूप से अनिवार्य है और कानून की किसी भी अदालत के जांच के अधीन नहीं है. वास्तव में, यहां तक कि संसद भी आयोग द्वारा जारी आदेश में संशोधन का सुझाव नहीं दे सकती है. आयोग में एक अध्यक्ष होता है – सर्वोच्च न्यायालय का एक सेवानिवृत्त या वर्तमान न्यायाधीश, मुख्य चुनाव आयुक्त या दो चुनाव आयुक्तों में से कोई भी, और उस राज्य का चुनाव आयुक्त जहां ये प्रक्रिया अपनानी हो. इसके अलावा, राज्य के पांच सांसदों और पांच विधायकों को आयोग के सहयोगी सदस्यों के रूप में चुना जाता है.
चूंकि आयोग एक अस्थायी बॉडी है जिसका कोई खुद का स्थाई कर्मचारी नहीं है, इसलिए इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए उसे चुनाव आयोग के कर्मचारियों पर निर्भर होना पड़ता है. प्रत्येक जिले, तहसील और ग्राम पंचायत के लिए जनगणना के आंकड़े एकत्र किए जाते हैं, और नई सीमाओं का सीमांकन किया जाता है. इस अभ्यास को पूरे देश में संपन्न होने में पांच साल तक लग सकते हैं.
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पहले कब हुआ है?
परिसीमन आयोग का गठन सबसे पहले 1952 में किया गया था. इसके बाद, इसे 1963, 1973 और 2002 में गठित किया गया. हालांकि, 2002 में, संविधान में विशेष रूप से बदलाव करते हुए 2026 तक निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन में संशोधन नहीं करने के आदेश दिए गए थे.
इसके पीछे तर्क यह था कि 2026 तक, राज्यों में जनसंख्या वृद्धि कुछ हद तक समान होगी. अन्यथा, जनसंख्या नियंत्रण के मामले में खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों के निर्वाचन क्षेत्र में वृद्धि की जाएगी, वहीं जो राज्य जनसंख्या को नियंत्रित करने का उपाय करते हैं, उनके पास कम निर्वाचन क्षेत्र होंगे.
क्या केंद्र जम्मू-कश्मीर में परिसीमन कर सकता है?
नहीं, केंद्र सरकार जम्मू और कश्मीर के संविधान में संशोधन किए बिना राज्य के आदेश के परिसीमन में बदलाव नहीं कर सकता है. शायद ही कोई कश्मीर का राजनीतिक दल इस मुद्दे का समर्थन करेगा, इसलिए केंद्र को इस बाबत कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा.
आखिरी बार जम्मू कश्मीर में साल 1995 में राष्ट्रपति शासन के तहत सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति के.के. गुप्ता के कमीशन के तहत परिसीमन किया गया था. इसके बाद एक तत्कालिक परिसीमन 1993 में राज्यपाल जगमोहन द्वारा किया गया, तब जम्मू व कश्मीर को 87 विधानसभा क्षेत्रों में विभाजित किया गया था.
वर्तमान में, विधानसभा में अनुसूचित जातियों के लिए सात सीटें आरक्षित हैं, सभी जम्मू के अंतर्गत आती हैं, जिनमें 1996 से कोई बदलाव नहीं किया गया है. इस दिशा में अगला प्रयास 2005 में होने वाला था, लेकिन 2002 में, फारूक अब्दुल्ला सरकार ने 2026 तक जम्मू और कश्मीर प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 और जम्मू और कश्मीर के संविधान की धारा 47 (3) में संशोधन करके परिसीमन को रोक दिया.
संशोधित धारा 47 (3) में यह प्रावधान किया गया है कि ‘जब तक कि वर्ष 2026 के बाद पहली जनगणना के लिए प्रासंगिक आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते, तब तक राज्य की विधान सभा और सीटों के विभाजन में कुल सीटों की पुनरावृत्ति करना आवश्यक नहीं होगा.’
जम्मू-कश्मीर संविधान के अनुसार, राज्यपाल के पास इस तत्कालिक प्रवाधान को हटाने के लिए धारा 47 में संशोधन करने का अधिकार है. इसके अलावा, अगर राज्यपाल एक परिसीमन आयोग का गठन करता है, तो प्रक्रिया शुरू हो सकती है. जम्मू और कश्मीर प्रतिनिधि अधिनियम की धारा 3 भी राज्यपाल को एक परिसीमन आयोग का गठन करने की शक्ति देती है.
राज्य में दो-तिहाई बहुमत के साथ संविधान संशोधन के माध्यम से कानून को रद्द करने का भी अधिकार है.
कन्वेंशन की माने तो अगले परिसीमन का प्रयोग 2031 में होने वाली जनगणना के बाद ही हो सकता है, बशर्ते राज्यपाल कोई हस्तक्षेप न करें.
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घाटी के लिए इसका क्या अर्थ होगा?
जम्मू-कश्मीर में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का प्रस्ताव लंबे समय से भाजपा की लिस्ट में था. गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के अनुसार, यदि जम्मू में सीटों की संख्या बढ़ जाती है, तो इससे ‘बेहतर शासन’ को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि यह क्षेत्र को कश्मीर के बराबर लाएगा.
एक अधिकारी ने कहा, ‘प्रशासनिक दृष्टि से देखे तो, परिसीमन सुनिश्चित करेगा कि जम्मू को कश्मीर के बराबर प्रतिनिधित्व मिले. घाटी अब राजनीतिक परिदृश्य पर हावी नहीं होगी. एक मजबूत राजनीतिक प्रणाली के लिए परिसीमन आवश्यक है और यह सुनिश्चित करना है कि कोई राजनीतिक गिरावट न हो.’
अधिकारी ने कहा कि जम्मू के लोगों की यह लंबे समय से मांग रही है क्योंकि उन्हें समान प्रतिनिधित्व नहीं मिला है.
‘ जबकि कश्मीर कह रहा है कि प्रक्रिया 2026 के लिए निर्धारित की गई थी और वे घाटी में यथास्थिति और वर्चस्व इसे बनाए रखना चाहते हैं. अगर जम्मू का कश्मीर (तीन सीटों का बदलाव) के रूप में समान प्रतिनिधित्व होता है, तो विधानसभा में असंतुलन ठीक हो जाएगा.
‘जम्मू के हिंदुओं ने हमेशा महसूस किया है कि घाटी के मुसलमानों को अधिक प्रतिनिधित्व मिलता है, ऐसा है तो इसे पेश किया जाएगा.’
जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दल इसके विरोध में
परिसीमन की प्रक्रिया शुरू करने की योजना का कश्मीर की दो सबसे बड़ी पार्टियों, नेशनल कांफ्रेंस (नेकां) और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, ने जमकर विरोध किया है. नेकां के प्रमुख उमर अब्दुल्ला ने कहा कि भाजपा सरकार जम्मू-कश्मीर में परिसीमन लागू करने का स्वागत करती है बशर्ते वह देश के बाकी हिस्सों के लिए भी ऐसा ही करती है तब. उन्होंने ट्वीट किया, ‘जब शेष देश में परिसीमन हुआ तो भाजपा जम्मू-कश्मीर में इसे लागू करने का स्वागत कर रही है, तब तक हम इसका भरसक विरोध करेंगे, लोगों के जनादेश के बिना किसी भी राज्य में बदलाव का प्रयास उचित नहीं है.’
महबूबा मुफ्ती ने कहा, ‘यह आश्चर्यजनक है कि भाजपा, जो 370 और 35-ए को हटाकर अन्य राज्यों के साथ जम्मू-कश्मीर को लाने के बारे में बात करती है, वह अब इस संबंध में अन्य राज्यों से अलग जम्मू-कश्मीर का इलाज करना चाहती है.’
पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने सरकार पर ‘सांप्रदायिक आधार पर राज्य का एक और भावनात्मक विभाजन’ करने का आरोप लगाया.
जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा, ‘जम्मू-कश्मीर में विधानसभा क्षेत्रों को फिर से तैयार करने की भारत सरकार की योजना के बारे में सुनकर व्यथित हूं. मजबूर परिसीमन राज्य के एक और भावनात्मक विभाजन को सांप्रदायिक आधार पर भड़काने का एक स्पष्ट प्रयास है. पुराने घावों को ठीक करने के बजाय, भारत सरकार कश्मीरियों के दर्द और बढ़ा रही है.’
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