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Saturday, 22 June, 2024
होमदेशजम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों को खदेड़ने वाले गांव सुरक्षा समितियों के लोग सड़कों पर उतरे   

जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों को खदेड़ने वाले गांव सुरक्षा समितियों के लोग सड़कों पर उतरे   

गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों के वेतन का मामला बेहद उलझा हुआ विषय है. यह सारा मुद्दा कहीं न कहीं नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता का परिचय भी देता है.

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श्रीनगर: पिछले 24 वर्षों से बिना वेतन के 63 वर्षीय कुंज लाल आतंकवादियों से टक्कर ले रहे हैं. तमाम आश्वासनों के बावजूद कुंज लाल जैसे सैकड़ों लोग आज भी आतंकवादियों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. लेकिन कई वर्षों से सरकार की तरफ से एक भी पैसा उन्हें नही मिला है. थक-हार कर कुंज लाल जैसे लोग अपने हक के लिए अब सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रहे हैं.

यह विंडबना ही है कि जिन लोगों ने आतंकवादियों के डर के आगे घुटने नही टेके और न ही अपने घरों से पलायन किया, उन्हें उनके योगदान के लिए सरकार और मीडिया ही नही देश ने भी भुला दिया है. रोज़ शाम को टीवी पर होने वाली गर्मागर्म बहसों में शायद ही कभी इन जांबाज़ लोगों का ज़िक्र आया हो. तथाकथित कश्मीर विशेषज्ञ कभी भूले से भी इन लोगों की बहादुरी व कुर्बानियों को याद नही करते. मगर यह एक सच्चाई है कि आतंकवादियों को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर देने वाले यह लोग बहादुरी और देशभक्ति की एक कामयाब व अदभुत मिसाल हैं.

लेकिन आज यही लोग वेतन-भत्ते के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो चुके हैं. यह लोग हैं गांव सुरक्षा समिति यानी विलेज डिफ़ेंस कमेटी (वीडीसी) के सदस्य. आखिर गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के सदस्य नाराज़ क्यों हैं ? दरअसल कई वर्षों से गांव सुरक्षा समिति के अधिकतर सदस्यों को एक पैसा भी नही मिला है. आतंकवादियों को कड़ी टक्कर देने वाले गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के सदस्य अब बकायदा अपने लिए सम्मान और वेतन चाहते हैं. गांव सुरक्षा समितियों के सदस्यों की नाराज़गी और समस्या पर चर्चा करने से पहले पाठकों को बता दें कि गांव सुरक्षा समितियां आखिर हैं क्या?

क्या हैं गांव सुरक्षा समितियां ?

जब नब्बे के दशक में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद अपने पूरे चरम पर था और कश्मीर के साथ-साथ जम्मू संभाग में भी आतंकवाद पांव फैलाने लगा तो सरकार को उन लाखों लोगों को सुरक्षा मुहैया करवाने की चिंता सताने लगी जो दूर-दराज़ और जंगलों से घिरे दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे और लगातार आतंकवादियों के निशाने पर थे. भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी थी कि सरकार चाह कर भी इन इलाकों में रहने वालों को सुरक्षा उपलब्ध नही करवा पा रही थी. दुर्गम पर्वत-मालाओं के बीच बसे छोटे-छोटे गांव इस तरह से फैले हुए थे कि अक्सर रात के समय आतंकवादियों द्वारा अंजाम दी गई वारदात की जानकारी पड़ोसी को भी सुबह ही पता चल पाती थी. प्रशासन की ऐसे गांवों में पहुंच संभव ही नहीं थी. माहौल ऐसा था कि आए दिन होने वाले नरसंहारों की वजह से लोग दहशत में रहने लगे और बेबस सरकार की लगातार किरकिरी होने लगी.


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ऐसे में आतंकवाद से निपटने के लिए गांव-गांव में गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) को बनाए जाने का विचार सामने आया. कुछ शुरुआती अड़चनों और रुकावटों के बाद आखिर 1995 में गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) समितियां अस्तित्व में आईं और देखते ही देखते आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई का एक आवश्यक अंग बन गईं.

स्थानीय लोग स्वेच्छा से गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) में शामिल हुए और आतंकवाद के डर से भागने की जगह अपनी व अपने गांव की सुरक्षा का ज़िम्मा उठाया. एक समय ऐसा भी आया जब गांव सुरक्षा समितियां (वीडीसी) सेना और सुरक्षा बलों की ज़रूरत बन गईं. गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) द्वारा दी गई मदद के बल पर सेना व अन्य सुरक्षा बलों ने आतंकवाद के खिलाफ ज़बरदस्त सफलताएं हासिल करना शुरू कर दीं.

आंतकवाद विरोधी अभियानों में शामिल रहे कई बड़े अधिकारी मानते हैं कि जम्मू संभाग में गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) की आंतकवाद को काबू में करने में एक अहम भूमिका रही है. अधिकारी मानते हैं कि आतंकवादियों के खिलाफ किए गए कई बड़े अभियान गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के बिना संभव ही नहीं थे.

सीमावर्ती पुंछ जिले के हिलकाका क्षेत्र में चलाए गए एक बड़े अभियान में गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) द्वारा निभाई गई भूमिका को आज भी सुरक्षा अधिकारी याद करते हैं. हिलकाका में चलाए गए अभियान में गांव सुरक्षा समितियों (विडीसी) के पुरुष सदस्यों के साथ-साथ महिला सदस्यों ने भी एक अहम भूमिका निभाई.

इसी तरह से आंतकवाद विरोधी कईं अन्य अभियानों में भी गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) ने सेना और अन्य सुरक्षा बलों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी. गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के सैंकड़ों सदस्य आतंकवाद से लड़ते हुए शहीद भी हुए.

लेकिन एक संगठित और व्यवस्थित बल न होने के कारण गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के सदस्यों की शहादत को वो नाम व शोहरत हासिल नहीं हुई जो कि किसी संगठित सुरक्षा बल के सदस्य को आम तौर पर मिल पाती है. मगर इसमें कोई दो राय नहीं कि जम्मू-कश्मीर के जम्मू क्षेत्र में आतंकवाद की कमर तोड़ने में गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) की बेहद अहम भूमिका रही है.

महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि आतंकवादियों के पास यहां एके-47 जैसे आधुनिक हथियार थे वहीं गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) ने सारी लड़ाई 303 राइफल की मदद से लड़ी.

हुए थे कईं बड़े नरसंहार

जम्मू क्षेत्र के दुर्गम व घने जंगलों से घिरे पर्वतीय इलाकों में आतंकवादियों ने मौत का जो तांडव खेला उसको याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं और रूह कांप उठती है. दहशत और वहशत के उस दौर को आतंकवाद का सबसे खतरनाक व भयंकर दौर माना जाता है. यह वो समय था जब देशी-विदेशी आतंकवादी दनदनाते घूमते थे और जम्मू क्षेत्र के गांवों में आए दिन नरसंहार कर अपने वहशीपन का परिचय देते थे.

आतंक के उस दौर में आतंकवादियों ने जो कहर बरपाया उसमें छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बुज़ुर्ग तक मारे गए. महिलाओं की इज्जत लुटी गई, नौजवानों पर ज़ुल्म ढाए गए. उस दौर में अनगिनत नरसंहार हुए. दिल दहला देने वाले कुछ प्रमुख नरसंहारों में प्राणकोट व ढक्कीकोट, चपनारी, बरशाला, कुलहांड आदि शामिल हैं.

14 अगस्त 1993 को किश्तवाड़ के करीब 16 बस यात्रियों की हत्या कर दी गई थी. इसी तरह से 5 और 6 जनवरी 1996 की रात डोडा जिले के बरशाला क्षेत्र में 15 लोगों को मार डाला गया था. साल 1996 में ही एक और नरसंहार में कमलाडी गांव में नौ लोगों की निर्ममता से हत्या कर दी गई. आतंकवादी यहीं नहीं रुके और बेलगाम आतंकवादियों ने 25 जुलाई 1996 को डोडा जिले के ही सरोधार गांव में 13 लोगों को बर्बरतापूर्वक मार दिया था. इसी तरह आतंकवादियों ने कुदधार गांव में 14 और 15 अक्तूबर 1997 की रात गांव सुरक्षा समिति के छह लोगों की हत्या कर दी.

आतंकवादियों ने उस दौर में सिर्फ डोडा-किश्तवाड और रामबान जिलों के गांव में ही कहर नही बरपाया बल्कि उधमपुर-रियासी क्षेत्रों में भी 17 अप्रैल 1998 को प्राणकोट व ढक्कीकोट गांव में 29 लोगों का नरसंहार किया. इस घटना के लगभग दो महीने बाद 19 जून 1998 को डोडा जिले के चपनारी गांव में एक पूरी बारात को आतंकवादियों ने मौत के घाट उतार दिया, कुल 25 बराती मारे गए. अभी चपनारी के ज़ख्म ताज़ा ही थे कि 27 जून 1998 को 17 लोगों को मार कर एक और नरसंहार कर दिया गया.


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30 अप्रैल 2006 को डोडा जिले के कुलहांड और उधमपुर जिले के बसंतगढ में दो अलग-अलग जगह हुए नरसंहारों में 57 लोग मारे गए. इस तरह के कई और भी नरसंहार हुए.

आतंकवादी भौगोलिक परिस्थितियों का पूरा लाभ उठाते और आए दिन कोई बड़ी वारदात कर देते. घने जंगलों में स्थित दुर्गम गांवों तक प्रशासन व सुरक्षा बलों का पहुंचना संभव नहीं होता. उल्लेखनीय है कि प्राणकोट नरसंहार के समय रियासी मुख्यालय से प्रशासन को पहुंचने में लगभग दस घंटे लग गए थे. उन दिनों इस तरह की कई कठिनाईयों का सामना प्रशासन को करना पड़ता था. अधिकतर इलाकों में सड़क, पानी-बिजली जैसी सुविधाएं भी नहीं होने के कारण प्रशासन की पहुंच बहुत कम थी. ऐसे में गांव सुरक्षा समितियां (वीडीसी) स्थानीय लोगों का सहारा बनीं और प्रशासन की मददगार साबित हुईं.

कुल 4,248 गांव सुरक्षा समितियां हैं सक्रिय

इस समय कुल 4,248 गांव सुरक्षा समितियां सक्रिय हैं जिनमें 27,924 सदस्य हैं. यह समितियां जम्मू क्षेत्र के लगभग सभी दस जिलों में काम कर रही हैं. सबसे ज़्यादा डोडा जिले में गांव सुरक्षा समितियां काम कर रही हैं. डोडा जिले में इस समय 660 गांव सुरक्षा समितियों में कुल 6521 सदस्य सक्रिय हैं. इसी तरह से 5,818 लोग सीमावर्ती राजौरी जिले में काम कर रहे हैं जबकि रियासी जिले में 5,730  वीडीसी सदस्य विभिन्न गांव में सक्रिय हैं. इसी तरह से किश्तवाड जिले में 3,287 गांव सुरक्षा समितियों के सदस्य आज भी आतंकवादियों के खिलाफ जुटे हुए हैं. रामबन, कठुआ, उधमपुर, पुंछ व राजौरी जिलों में भी गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) सक्रिय हैं.

कश्मीर संभाग में इस तरह की कोई समिति नहीं है. उल्लेखनीय है कि कश्मीर में कभी भी कहीं भी गांव सुरक्षा समितियां गठित नहीं हो पाईं. कश्मीर में आतंकवाद शुरू होते हीं हिन्दू समाज ने पलायन कर दिया था और मुस्लिम समाज गांव सुरक्षा समितियों के गठन के लिए कभी आगे नहीं आया.

जबकि जम्मू क्षेत्र में आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही समुदायों के लोग खुद आगे आए और स्वेच्छा से गांव सुरक्षा समितियों का गठन कर आतंकवादियों का मुकाबला किया. सरकारी आकंड़ों के अनुसार इस समय सक्रिय गांव सुरक्षा समितियों के कुल सदस्यों में 33 प्रतिशत मुस्लिम हैं. गांव सुरक्षा समितियों के संगठन के अध्यक्ष बिहारी लाल भूषण कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के जम्मू क्षेत्र में आतंकवाद के सफ़ाए में गांव सुरक्षा समितियों के हिन्दू-मुस्लिम सदस्यों का बराबर और अहम योगदान रहा है.

गांव सुरक्षा समितियां कैसे करती हैं काम

गांव सुरक्षा समिति के सदस्य अपने-अपने इलाकों में आतंकवादियों की गतिविधियों पर लगातार नज़र बनाए रखते हैं. जैसे ही उन्हें कोई जानकारी मिलती है तो फ़ौरन सुरक्षा बलों की करीबी चौकी को सूचना दी जाती है. सुरक्षा बलों के आने तक आतंकवादियों पर कड़ी नज़र रखी जाती है और कई बार बकायदा मुठभेड़ शुरू हो जाती है. ऐसे कई मामले हैं यहां पर गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों ने सुरक्षा बलों के पहुंचने से पहले खुद मोर्चा संभाला और आतंकवादियों के खिलाफ अभियान संचालित किए और सफलताएं हासिल की हैं. अभी तक गांव सुरक्षा समितियों के सैकड़ों सदस्य आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हो चुके हैं.

क्या है वेतन न मिलने का मामला ?

गांव सुरक्षा समिति के सदस्यों के वेतन का मामला बेहद उलझा हुआ विषय है. यह सारा मुद्दा कहीं न कहीं नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व की अदूरदर्शिता का परिचय भी देता है. गांव सुरक्षा समितियों के मामले को देख-सुन कर यह भी पता चलता है कि ऐसे मामलों को लेकर अक्सर हमारी सारी व्यवस्था किस हद तक असंवेदनशील हो जाती है.

गांव सुरक्षा समितियों को थोड़ा व्यवस्थित करने के उद्देश्य से कुछ साल पहले सभी समितियों के आठ सदस्यों में से तीन को विशेष पुलिस अधिकारी यानी स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) चुना गया.

उल्लेखनीय है कि स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) को अनुबंध के आधार पर जम्मू-कश्मीर पुलिस बल में शामिल किया जाता है और उन्हें एकमुश्त राशि वेतन के रूप में दी जाती है. स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) अन्य किसी सुविधा के पात्र नही होते हैं. यह एक अस्थाई व्यवस्था है.


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गांव सुरक्षा समितियों के तीन सदस्यों को जब बकायदा एसपीओ बनाया गया तो उनके साथ बकायदा शर्त रखी गई कि सभी एसपीओ मिलने वाले वेतन को शेष सभी गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) सदस्यों के साथ बराबर बांटेंगे. कुछ देर तक ऐसा हुआ भी और एसपीओ अपने साथी गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के सदस्यों के साथ अपना वेतन बांटते भी रहे. लेकिन जैसे ही एसपाओ का वेतन बढ़ा और नई व्यवस्था के तहत नकद की जगह वेतन सीधे एसपीओ के बैंक खाते में आने लगा तो गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के अन्य सदस्यों को में पैसा बंटना बंद हो गया.

गांव सुरक्षा समिति के विशेष पुलिस कर्मियों को पहले प्रति व्यक्ति 1500 रुपए मिलते थे. बाद में विशेष पुलिस कर्मियों को प्रति व्यक्ति 3000 रुपए मिलने लगे. फिर प्रति व्यक्ति 9000 रुपए मिलना तय हुआ. कुछ समय बाद इसे बढ़ाकर 12000 रुपए प्रति व्यक्ति तक कर दिया गया. इस समय प्रत्येक विशेष पुलिस कर्मी को 18000 रुपए मिल रहे हैं. यानी आठ सदस्यों वाली गांव सुरक्षा समिति के तीन सदस्यों को 18000 रुपए के हिसाब से 54000 रुपए मिल रहे हैं. लेकिन शिकायत यह है कि गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के तीन एसपीओ सदस्य शेष सदस्यों को पैसा देने से इंकार कर रहे हैं.

गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के संगठन के अध्यक्ष बिहारी लाल भूषण का कहना है कि स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) द्वारा गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के शेष सदस्यों को पैसा नहीं देने से गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के सदस्यों में असंतोष है और उन्हें गंभीर आर्थिक संकट से गुज़रना पड़ रहा है. भूषण बताते हैं कि इस वजह से स्पेशल पुलिस आफीसर (एसपीओ) और गांव सुरक्षा समितियों (विडीसी) के बीच बेवजह का तनाव पैदा होता है. उनका कहना  है कि सरकार की गलत नीति के कारण गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) में दरार पड़ रही है जबकि गांव सुरक्षा समिति (वीडीसी) के सदस्य चाहते हैं कि सभी को उनका उचित हक मिले.

बिहारी लाल भूषण गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के ऐसे कई सदस्यों के नाम बताते हैं जिन्होंने अपनी पूरी जवानी आतंकवादियों से लड़ते बिता दी. कई लोगों को यह उम्मीद थी कि उन्हें भी स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) का दर्जा मिल जाएगा.

एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के अनुसार पहले संबंधित पुलिस थानों में स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) का वेतन आता था और सभी सदस्यों में बराबर बांट दिया जाता था. लेकिन अब सीधे एसपीओ के बैंक खाते में वेतन के आने से पैसा नहीं बांटे जाने की शिकायतें आ रही है. पुलिस अधिकारी का कहना है कि पहले अगर इस तरह की कोई शिकायत सामने आती थी तो मौके पर ही शिकायत दूर कर दी जाती थी मगर अब ऐसा करना संभव नहीं होता क्योंकि एसपीओ के खाते में कब पैसा आता है इसकी कोई जानकारी संबंधित थाने को नही होती है.


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हांलाकि आज भी कुछ मामलों में कुछ पुलिस अधिकारी हस्तक्षेप कर गांव सुरक्षा समितियों (वीडीसी) के सभी सदस्यों में पैसा बंटवा रहे हैं, मगर यह पुलसिया ‘जुगाड़’ ज़्यादा है और समस्या का समाधान कम. गांव सुरक्षा समिति (वीडीसी) के सदस्य चाहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ उनके योगदान को देखते हुए उन्हें भी स्पेशल पुलिस आफीसर (एसपीओ) का दर्जा और वेतन मिले.

मामले को लेकर आंदोलन करने के साथ-साथ कुछ लोगों ने अब अदालत का दरवाजा भी खटखटाया है.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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