scorecardresearch
Monday, 14 October, 2024
होमदेशउत्तराखंड त्रासदी ग्लेशियर टूटने से नहीं, शायद भू-स्खलन से हुई, सेटेलाइट तस्वीरों से पता चलता है

उत्तराखंड त्रासदी ग्लेशियर टूटने से नहीं, शायद भू-स्खलन से हुई, सेटेलाइट तस्वीरों से पता चलता है

त्रासदी से पहले और बाद की सेटेलाइट तस्वीरों का अध्ययन कर रहे वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसा लगता है कि ग्लेशियर का एक टुकड़ा टूटकर किसी पहाड़ी पर गिरा, जिससे भू-स्खलन शुरू हुआ और बाद में बाढ़ आई.

Text Size:

कोयंबटूर: सेटेलाइट तस्वीरों का अध्ययन कर रहे अंतर्राष्ट्रीय भूविज्ञानियों और हिमनद विज्ञानियों का कहना है कि उत्तराखंड के चमोली में बाढ़ से आई तबाही का कारण, भूस्खलन नज़र आता है ग्लेशियर टूटना नहीं, जैसा कि व्यापक रूप से माना जा रहा है.

पहली पहचान कैलगरी यूनिवर्सिटी के डॉ. डैन शुगर ने की, जो अधिक ऊंचाई पर हिमाच्छादित और भूगर्भिक वातावरण में विशेषज्ञता रखते हैं. शुगर प्लैनेट लैब्स से तबाही से पहले और बाद में ली गईं सेटेलाइट तस्वीरों का इस्तेमाल करके इस नतीजे पर पहुंच कि भूस्खलन की वजह से अलकनंदा और धौलियागंगा नदियों में अचानक बाढ़ आ गई, जिसका सबूत सेटेलाइट तस्वीरों में दिख रहे धूल के निशान से मिलता है.

पहले की ख़बरों में कहा गया था कि ये बाढ़ ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (ग्लोफ) की वजह से आई थी, जो तब होता है जब ग्लेशियर की बर्फ पिघलने से, एक क़ुदरती झील बन जाती है, और उसमें दरार पड़ जाती है. लेकिन, उपलब्ध सेटेलाइट तस्वीरों में बाढ़ की इस घटना से पहले ग्लेशियर से बनी किसी झील की मौजूदगी नज़र नहीं आती.

उसकी बजाय हिमनद विज्ञानियों और भू-विज्ञानियों ने एक ग्लेशियर के लटके हुए टुकड़े की पहचान की है, जिसमें शायद दरार पड़ जाने से भूस्खलन शुरू हो गया, भूस्खलन से हिमस्खलन हुआ और बाद में बाढ़ आ गई.

कोपरनिकस के सेंटिनल 2 सेटेलाइट की तस्वीरों से भी नज़र आता है कि नंदा देवी ग्लेशियर में एक दरार पैदा हो गई, जिसकी वजह से ही शायद भूस्खलन हुआ.


यह भी पढ़ें: मंगल, चंद्रमा और आकाश पर नजर रखने वाले टेलीस्कोप- 2021 के लिए बड़े अंतरिक्ष मिशन की पूरी तैयारी है


क्या हुआ होगा

ज़्यादा संभावना यही है कि नंदा देवी का, एक नीचे की ओर लटका हुआ हिस्सा त्रिशूली के पास टूटकर अलग हो गया, जिसे ‘रॉकस्लोप डिटैंचमेंट’ कहा जाता है. इसने संभावित रूप से 200,000 लाख वर्गमीटर बर्फ को, सीधा दो किलोमीटर नीचे गिरा दिया, जिससे भूस्खलन हुआ और जो घाटी की सतह से टकराकर फौरन बिखर गया. ये मलबा, पत्थर और बर्फ हिमस्खलन की सूरत में नीचे बहकर आया, जिसे सेटेलाइट तस्वीरों में धूल के निशान से पहचाना जा सकता है.

ये हिमस्खलन बहकर ग्लेशियर में ही आ गया. पत्थरों को इतने तेज़ बहाव से बेहद गर्मी पैदा हो सकती है, जिससे बर्फ पिघल जाती है, और कीचड़ की झीलें या पानी का बहाव शुरू हो जाता है.

इसके अलावा, संभावना ये भी है कि वहां तलछट से ढकी हुई बर्फ और नीचे की ओर ग्लेशियर का रुका हुई बर्फ भी थी, जिसकी पहचान मैट वेस्टोबी ने की, जो नॉर्थंबरिया यूनिवर्सिटी में फिज़िकल ज्योग्राफी लेक्चरर हैं और ग्लेशियर के विश्लेषण में विशेषज्ञता रखते हैं.

इतनी विशाल मात्रा में बर्फ, जो क़रीब 3.5 किलोमीटर में फैली थी, भूस्खलन और हिमस्खलन से पैदा हुई गर्मी से और पिघली होगी, जिससे भारी मात्रा में पैदा हुए पानी से नदियों में बाढ़ आ गई.

भूस्खलन विज्ञानियों ने भी इसी थ्योरी की पुष्टि की. शैफील्ड यूनिवर्सिटी के डेव पेटले के अनुसार ये घटना 2012 में नेपाल की सेती नदी में आई बाढ़ से मिलती जुलती है, जिसका कारण भी चट्टानों का खिसकना ही था.

आईआईटी रुड़की में असिस्टेंट प्रोफेसर सौरभ विजय ने, जो ग्लेशियर्स का अध्ययन करते हैं पिछले हफ्ते सेटेलाइट तस्वीरों से ताज़ा गिरे हुए बर्फ की पहचान की, जो संभावित रूप से हिमस्खलन और इतने अधिक पानी का कारण बना होगा.

भूस्खलन से पैदा हुए बहाव से इतनी गर्मी पैदा हो सकती थी कि उससे पानी के अस्थाई और चलायमान बांध बन सकते थे, जो बाढ़ आने की सूरत में जल्दी से बह सकते थे, लेकिन इस घटना को ‘ग्लेशियर का टूटना’ नहीं कहते.

क्या होता है ग्लोफ?

ग्लोफ घटना वो होती है, जिसमें ग्लेशियर के पिछले हुए पानी से क़ुदरती तौर पर बनी झील में दरार पड़ जाती है, जिससे भारी मात्रा में पानी नीचे की ओर बहता हुआ तबाही मचाता है.

पहाड़ों की चोटियों और उनके किनारों पर बने ग्लेशियर्स पर, हिमपात से बर्फ जमा हो जाती है. इस बर्फ के पिघलने की एक प्रक्रिया होती है जिसे उच्छेदन कहते हैं, जिसमें ये पानी नीचे के जलश्रोतों और नदियों में जमा हो जाता है. ये प्रक्रिया निरंतर चलती रहती ह और ज़मीन के प्राकृतिक जल चक्र का हिस्सा है.

पिघलने की वजह से जब किसी ग्लेशियर का आकार कम होता है, तो ये पिछले हुए ताज़ा पानी में तलछट छोड़ देता है, जो मिट्टी, रेत, चट्टानों, पत्थरों और बजरी की शक्ल में होता है. जमा हुई ये तलछट अक्सर क़ुदरती बांध बना देती है, जिन्हें मोरेन्स कहते हैं और जिनके अंदर पिघला हुआ पानी होता है.

इन क़ुदरती बांधों या ग्लेशियर झीलों में सैलाब आ सकता है या इनमें दरार पड़ सकती है, जिससे नीचे की ओर बाढ़ आ जाती है.

मोरेन्स में ये दरारें हिमस्खलन, भूकंप या मोरेन्स के पानी के अत्याधिक दबाव से आ सकती हैं. ग्लोफ में एक योगदान इंसानी हरकतों का भी होता है, जैसे वनों की कटाई और प्रदूषण, जिनसे स्थानीय जलवायु बदल जाती है. प्रदूषण की स्थिति में कालिख के कण बर्फ पर बैठ जाते हैं, जो गर्मी को सोखते हैं जिससे बर्फ के पिछलने की गति बढ़ जाती है.

ग्लेशियर के बर्फ के विखंडन से, अंतिम मोरेन्स या बांध की सीमाओं में दरार पड़ जाती है, जो सीधी टक्कर या लहरों के हटने से पैदा होती है, जिससे बांध की स्थिरता को ख़तरा पैदा हो जाता है. संदेह ज़ाहिर किया जा रहा है कि चमोली में यही हुआ होगा.

अभी तक स्पष्ट नहीं है कि वो मूल भूस्खलन किस वजह से हुआ, जिससे इस हफ्ते तबाही सामने आई. नई सेटेलाइट तस्वीरें, सर्वेक्षण डेटा, और आगे की जांच से अपेक्षा है कि आने वाले कुछ दिनों में और जानकारी सामने आएगी.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: सतह नहीं उस हवा में कोरोना के मौजूद रहने की संभावना जिसमें हम सांस लेते हैं, वैज्ञानिकों ने कहा- हम गलत थे


 

share & View comments