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Saturday, 4 May, 2024
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UK और US ने कैसे ‘बेल को नियम और जेल को अपवाद’ बनाया, नया जमानत कानून क्यों बनाना चाहता है SC

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि सरकार को जमानत कानून बनाने पर विचार करना चाहिए. अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सहित देशों में जमानत देने या उससे इनकार करने के विस्तृत कानून हैं.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को भारत में विचाराधीन कैदियों की जमानत याचिकाओं की भरमार को देखते हुए विस्तृत जमानत कानून लेकर आने का सुझाव दिया है. इसके साथ ही यूके और यूएस सहित अन्य न्यायालयों में ऐसे कानून कैसे लागू किए गए हैं, इस पर भी चर्चा की.

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम.एम. सुंदरेश ने कहा कि केंद्र सरकार को जमानत प्रक्रिया को व्यवस्थित करने के लिए नया कानून बनाने पर विचार करना चाहिए.

अदालत अक्टूबर 2021 में पारित एक आदेश पर स्पष्टीकरण मांगने वाली याचिकाओं पर विचार कर रही थी, जिसमें विभिन्न प्रकार की जमानत को वर्गीकृत किया गया था. भारत में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) प्राथमिक कानून है जो जमानत के कानून से संबंधित है.

सीआरपीसी यानी दंड प्रक्रिया संहिता जमानत शब्द को परिभाषित नहीं करती बल्कि भारतीय दंड संहिता के तहत अपराधों को जमानती और गैर-जमानती के रूप में वर्गीकृत करती है. सीआरपीसी में मजिस्ट्रेट को जमानती अपराधों में बतौर अधिकार बेल देने की शक्तियां दी गई हैं. ऐसे मामलों में जमानत देकर या उसके बिना सिर्फ बेल बॉन्ड भरने के बाद व्यक्ति को छोड़ दिया जाता है.

वहीं गैर जमानती अपराधों को संज्ञेय माना जाता है जिनमें पुलिस को बिना वारंट गिरफ्तार करने का अधिकार होता है. ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट को यह तय करने का अधिकार होता है कि आरोपी जमानत पर रिहा होने के योग्य है या नहीं.

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अगर व्यक्ति भाग जाने या फिर गवाहों को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है, तो आमतौर पर जमानत दे दी जाती है.

गिरफ्तारी की आशंका रखने वालों के लिए भारत में अग्रिम जमानत का भी प्रावधान है. ऐसे मामलों में व्यक्ति को अग्रिम जमानत पाने के लिए अदालत का रुख करना पड़ता है.

2015 में जब कानूनी मामलों के विभाग ने देश में एक अलग जमानत कानून की जरूरत के बारे में विधि आयोग से पूछा, तो आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि इसकी आवश्यकता नहीं है.

दिप्रिंट के पास इस विस्तृत आदेश की कॉपी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित विभिन्न देशों में जमानत कानून पर चर्चा की.

इससे पहले अदालत ने देश में जमानत कानून के विकास और साथ ही सुप्रीम कोर्ट के पहले के उन फैसलों का भी जिक्र किया जिसमें कहा गया था कि वे बेल देने पर जोर दें न कि जेल भेजने पर.


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बेगुनाही का अनुमान

शीर्ष अदालत ने सोमवार को आपराधिक मामलों में अपराध साबित होने की कम दर पर ध्यान देते हुए कहा कि कई बार सजा की संभावना कम होने पर भी कानूनी प्रावधानों के उलट जमानत याचिकाओं पर अक्सर सख्ती से फैसला लिया जाता है. अपराध साबित होने की थोड़ी सी भी गुंजाइश अदालत को व्यक्ति को लंबे समय तक हिरासत में रखने के लिए मजबूर कर सकती है या जमानत देने से इनकार कर सकती है.

पत्रकार अर्नब गोस्वामी के मामले में अपने 2020 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ‘स्वतंत्रता के संरक्षक दूत’ के रूप में ट्रायल कोर्ट की भूमिका पर जोर दिया और कहा, ‘संवैधानिक मूल्यों और लोकाचार की रक्षा करना और एक सतत दृष्टि रखना क्रिमिनल कोर्ट का कर्तव्य है.’

गोस्वामी को गिरफ्तारी से सुरक्षा तब मिली थी जब उन्होंने अपने एक टीवी शो के सिलसिले में अपने खिलाफ दायर कई मामलों को निपटारे के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था.

अपने सोमवार के फैसले में पीठ ने चर्चा की कि कैसे भारत के उलट अन्य कई देशों में जमानत कानूनों को व्यवस्थित किया गया है. अदालत ने यूके और यूएस में जमानत कानूनों का उल्लेख किया, जिसमें जांच एजेंसियों और अदालतों दोनों के लिए पर्याप्त दिशानिर्देश हैं.

अदालत ने सुझाव दिया कि भारत सरकार को आपराधिक मुकदमे के सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद एक समान व्यापक जमानत कानून तैयार करना चाहिए और ‘उम्मीद’ है कि उनके प्रस्तावों को गंभीरता से लिया जाएगा.

बेंच ने सिफारिश की कि कानून को सबसे बुनियादी सिद्धांतों जैसे कि बेगुनाही का अनुमान पर विचार करना चाहिए. इसके बारे में बताना जरूरी था क्योंकि भारत में विभिन्न कानूनों में जमानत पर ‘वैधानिक रोक’ है. फैसले में कुछ उदाहरणों का उल्लेख किया गया जैसे कड़े ड्रग-विरोधी कानून (नार्कोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985) और बिहार प्रोहिबिशन एंड एक्साइज एक्ट, 2016.

अदालत ने देश भर में अधीनस्थ न्यायपालिका को दो से छह सप्ताह के बीच जमानत याचिकाओं का निपटान करने का निर्देश दिया.

अपने सोमवार के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जमानत को सभी देशों में एक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है. दुनिया भर से जमानत याचिकाओं पर कई फैसलों का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि अन्य देशों में विशेष प्रावधानों के बावजूद वहां की अदालतों ने बेगुनाही का अनुमान लगाया और आरोपी के पक्ष में आदेश जारी किए.

पीठ ने कहा, ‘भारत में स्थिति अलग नहीं है.’


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यूएस और यूके- व्यवस्थित कानून की ओर रुझान

यूनाइटेड किंगडम ने 1976 में एक विशेष जमानत कानून पारित किया था. इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह एक ‘सरल प्रक्रिया’ का पालन करता है और सिवाय अधिनियम की अनुसूची 1 में दिए गए प्रावधानों को छोड़कर उन सभी को जमानत देता है जिन पर यह लागू होता है.

अनुसूची 1 में अपराध की प्रकृति और निरंतरता सहित विभिन्न आकस्मिकताओं और कारकों का प्रावधान है. यूके में जमानत कैश डिपॉजिट और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर निर्दिष्ट प्रतिबंधों पर आधारित है.

संयुक्त राज्य अमेरिका में संविधान ‘अत्यधिक जमानत राशि’ पर रोक लगाता है.

संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में आठवें संशोधन के मुताबिक, ‘अत्यधिक जमानत की जरूरत नहीं होगी, न ही अत्यधिक जुर्माना लगाया जाएगा, न ही क्रूर और असामान्य दंड दिया जाएगा.’ यह संशोधन सरकार को आपराधिक प्रतिवादियों पर अनुचित रूप से कठोर दंड लगाने से रोकता है या तो प्री-ट्रायल रिहाई प्राप्त करने के रूप में या दोषसिद्धि के बाद अपराध के लिए सजा के रूप में.

30 साल पहले अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी की स्वतंत्रता के लिए मंजूरी का संकेत दिया था. अदालत ने कहा था, ‘हमारे समाज में स्वतंत्रता आदर्श है और ट्रायल से पहले या बिना उसके हिरासत में रखना सीमित अपवाद है.’

संयुक्त राज्य अमेरिका में किए गए सभी अपराधों में यानी संघीय आपराधिक कार्यवाही, रिहाई और डिटेंशन 1984 के जमानत सुधार कानूनों के तहत चलते हैं. इसमें नजरबंदी और रिहाई के संबंध में दिए गए दिशानिर्देशों का पालन करना भी शामिल हैं.

माफिया सदस्य एंथनी सालेर्नो से जुड़े 1987 के एक मामले में- जहां सुप्रीम कोर्ट ने 1984 के अधिनियम को संवैधानिक माना था, बेंच ने माना कि संविधान में जमानत का अधिकार शामिल नहीं है लेकिन यह अत्यधिक जमानत राशि पर रोक लगाता है.


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कैरिबियन देशों में

2018 में इम्पैक्ट जस्टिस की एक रिपोर्ट– कनाडा सरकार द्वारा फंडिड एक सुधार प्रोजेक्ट– ने उल्लेख किया था कि कैरेबियन क्षेत्र के सिर्फ चार देशों में जमानत के लिए कानून है.

ये थे त्रिनिदाद और टोबैगो, बारबाडोस, जमैका और सेंट किट्स एंड नेविस. जब रिपोर्ट प्रकाशित हुई तो डोमिनिका और एंटीगुआ और बारबुडा भी इस तरह के कानून लेकर आए. यह उनकी संसदों में लंबित पड़े थे.

एंटीगुआ और बारबुडा ने 2019 में अपना व्यापक जमानत कानून लागू किया जबकि डोमिनिका ने 2020 में ऐसा किया था.

जबकि इस क्षेत्र के अन्य देशों जैसे कि सेंट लूसिया के पास जमानत के लिए एक व्यवस्थित ‘विशेष’ कानून का अभाव है.

ये सभी अधिनियम बड़े पैमाने पर यूनाइटेड किंगडम के जमानत अधिनियम पर आधारित हैं और उसे ध्यान में रखकर बनाए गए हैं.


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न्यूजीलैंड और श्रीलंका

दो दशक से अधिक समय पहले पारित किया गया न्यूजीलैंड का जमानत कानून, जमानत देने या अस्वीकार करने को नियंत्रित करने वाले सभी नियमों को निर्धारित करता है. भले ही उनका कानून अधिकांश अपराधों के लिए जमानत को अधिकार के रूप में मान्यता देता है लेकिन यह घरेलू हिंसा और बच्चों पर हमले जैसे विशेष अपराधों के लिए अपवाद है.

पड़ोसी देश श्रीलंका में 1997 में जमानत का कानून बनाया गया था, जो ‘अपवाद’ नहीं बल्कि ‘नियम’ के रूप में जमानत देता है. हालांकि, इस अधिनियम के प्रावधान उन मामलों में लागू नहीं होते हैं जहां कोई व्यक्ति देश के आतंकवाद विरोधी कानून के तहत आरोपी या अपराधी है.


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न्यू साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलिया और अन्य

2013 में ऑस्ट्रेलियाई राज्य न्यू साउथ वेल्स ने 1978 के कानून को बदलने के लिए एक व्यापक जमानत कानून बनाया, जिसे उस समय ‘आधारभूत’ माना जाता था. इस नए कानून ने जमानत के मामलों में ‘अस्वीकार्य जोखिम’ की अवधारणा को जोड़ा, इस बात का जिक्र करते हुए कि क्या आरोपी कार्यवाही में पेश होने में विफल रहेगा, गंभीर अपराध करेगा या पीड़ितों, समाज या सबूतों के साथ हस्तक्षेप करेगा. यह मौजूदा प्रावधानों के अतिरिक्त था जो जमानत को प्रतिबंधित करते थे.

संघीय स्तर पर ऑस्ट्रेलिया में लगभग तीन दशक पहले इसी तरह के कानून को लाया गया था. यह कुछ मामलों को छोड़कर जमानत देने की मंजूरी देता है. अपवाद के रूप में शामिल इन कुछ मामलों में विशेष अपराधों या जेल की सजा काट रहे व्यक्ति शामिल हैं. जिस व्यक्ति को जमानत दी जाती है, यह उसके लिए कानूनी शर्तों और अंडरटेकिंग को भी निर्धारित करता है.

अन्य उदाहरणों में मॉरीशस और मलावी शामिल हैं, जिन्होंने क्रमशः 1999 और 2000 में इस तरह के व्यापक जमानत कानून बनाए हैं.

(अक्षत जैन नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के छात्र हैं और दिप्रिंट में इंटर्न हैं)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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