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Sunday, 22 December, 2024
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मथुरा में ‘भगवान कृष्ण के प्रिय’ पौधों का जंगल लगाएगा UP वन विभाग, सुप्रीम कोर्ट से मांगी अनुमति

सुप्रीम कोर्ट में दिए गए आवेदन के अनुसार यूपी वन विभाग मथुरा के आसपास के 37 'प्राचीन वन' क्षेत्रों में प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा को हटाना चाहती है. यह एक आक्रामक विदेशी प्रजाति है जो दूसरे पौधों को आगे नहीं बढ़ने नहीं देती.

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नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश वन विभाग “अपने प्राचीन वन क्षेत्रों के पुनर्जन्म” कार्यक्रम के तहत मथुरा की महिमा को पुनर्जीवित करने के लिए एक योजना पर काम कर रहा है. वन विभाग का मानना है कि इसे भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत के एक महत्वपूर्ण हिस्से को बचाने में मदद मिलेगी. इसके लिए विभाग एक पर्यावरण-पुनर्स्थापना अभियान शुरू करना चाहता है जिसमें देशी चौड़ी पत्ती वाली प्रजातियों के पौधे लगाए जाएंगे, खासरकर वो जो “भगवान कृष्ण को प्रिय हैं”. दिप्रिंट को इसकी जानकारी मिली है.

मई में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर एक आवेदन में अपनी योजना के बारे में बताते हुए, जो इस महीने की शुरुआत में सुनवाई के लिए आया, राज्य वन विभाग ने प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (पीजे) – एक आक्रामक विदेशी प्रजाति – के पौधे 37 वन क्षेत्र से उखाड़ने के लिए शीर्ष अदालत से अनुमति मांगी है. मथुरा के आसपास के प्राचीन वन क्षेत्र में कदम्ब, वर्ना, तमाल, पीलू, बरगद, पीपल, पाखड़, मोलश्री, खिरानी, ​​आम, आमवला, अर्जुन, पलास, बहेड़ा आदि जैसी देशी प्रजातियों के पौधे लगाए जाने हैं. दिप्रिंट ने आवेदन की एक प्रति देखी है.

मूल रूप से लैटिन अमेरिका से, पीजे कथित तौर पर 1857 और 1940 के बीच भारत में लाया गया था. हालांकि, पिछले कुछ सालों में इसकी आक्रामकता चलते इसने वन क्षेत्रों में जानवरों के लिए प्राकृतिक आवास को नष्ट कर दिया है और चरागाहों के लिए कई सामाजिक-आर्थिक समस्याएं पैदा की हैं. आवेदन में दावा किया गया है कि इसकी जहरीली और नुकीली कांटों की वजह से यह खेतों और मवेशियों को नुकसान पहुंचाता है.

वन विभाग के आवेदन पर एक विशेष पीठ द्वारा सुनवाई की जा रही है, जिसने इससे पहले ताज ट्रेपेज़ियम जोन (टीटीजेड) में विकास कार्यों की निगरानी की है. यह पीठ स्मारक को प्रदूषण से बचाने के लिए ताज महल के आसपास 10,400 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र के लिए नियम बनाती है. दिसंबर 1996 में, शीर्ष अदालत ने स्मारक की सुरक्षा की मांग करने वाली एक जनहित याचिका (पीआईएल) के जवाब में टीटीजेड बनाने का फैसला सुनाया था.

चूंकि मथुरा डिवीजन टीटीजेड में आने वाले कई डिवीजनों में से एक है, इसलिए राज्य क्षेत्र में कोई भी विकासात्मक या औद्योगिक कार्य करने से पहले सुप्रीम कोर्ट की अनुमति लेने के लिए बाध्य है.

विशेष पीठ ने अब अधिवक्ता ए.डी.एन. राव – जो मामले में अदालत की सहायता कर रहे हैं – को वन विभाग के पर्यावरण-बहाली प्रस्ताव पर अपने सुझाव देने के लिए कहा गया है, जिसमें 490 हेक्टेयर वन क्षेत्र को कवर करने की संभावना है.


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‘वन ब्रज परिक्रमा का हिस्सा’

आवेदन में, विभाग ने कई शोध पत्रों का हवाला दिया है, जिसमें कथित तौर पर पीजे को एक हानिकारक प्रजाति घोषित किया गया है, जो इसकी पत्तियों से निकलने वाले रसायन के कारण “अन्य प्रजातियों के बीजों के अंकुरण को रोकती है”. इसमें कहा गया है कि कई “जनप्रतिनिधियों, वरिष्ठ अधिकारियों और ब्रज की धार्मिक हस्तियों” ने “क्षेत्र के ऐतिहासिक और मूर्त विरासत मूल्य को सुधारने और पुनर्स्थापित करने” के लिए पीजे के स्थान पर देशी प्रजातियों को शामिल करने की इच्छा व्यक्त की है.

आवेदन में दावा किया गया है कि देशी पेड़ों के साथ वन क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने से मानव-बंदर संघर्ष भी कम हो जाएगा, जो जानवरों के आवास की कमी के कारण एक खतरा बन गया है. इसमें आगे कहा गया है कि पीजे का विस्तार इसके लिए ज़िम्मेदार है क्योंकि इससे बंदरों के साथ-साथ देशी जीवों के लिए अनुपयुक्त आवास का निर्माण हुआ है.

इसलिए, देशी पेड़ों के रोपण से न केवल पुष्प जैव विविधता फिर से स्थापित होगी, बल्कि पशु जैव विविधता में भी जबरदस्त वृद्धि होगी. आवेदन में यह दावा किया गया है.

योजना को धार्मिक परिप्रेक्ष्य देते हुए विभाग ने दावा किया कि मथुरा मंडल में 137 प्राचीन वन हैं जिनका भारत के धार्मिक ग्रंथों में स्थान है. उनमें से 48 वन देवताओं से संबंधित है और इसलिए, ब्रज मंडल परिक्रमा [क्षेत्र की यात्रा] का हिस्सा हैं. आवेदन में कहा गया है कि तीर्थयात्री परिक्रमा के हिस्से के रूप में इन प्राचीन जंगलों की पूजा करते हैं.

आवेदन में कहा गया है कि चार वन एक ही नाम और एक ही स्थान पर मौजूद हैं, जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है. 37 अन्य का पता लगाया जा चुका है और सात और स्थानों की पहचान करने की प्रक्रिया जारी है. इसमें कहा गया है कि जिन 37 की पहचान की गई है, उनमें से 26 आरक्षित वन क्षेत्रों में आते हैं और 11 को सामुदायिक या निजी भूमि के रूप में चिह्नित किया गया है.

आवेदन में कहा गया है कि परियोजना को अगले तीन वर्षों में तीन चरणों में पहचाने गए 37 वन क्षेत्रों में लागू किया जाएगा, जिसमें पीजे द्वारा देशी वनस्पतियों और जैव विविधता पर पड़ने वाले “नकारात्मक परिणामों” पर प्रकाश डाला जाएगा.

आवेदन में दावा किया गया है कि हाल के वर्षों में बढ़ी हुई जलवायु परिवर्तनशीलता ने भूमि और जल प्रबंधन में बदलाव को मजबूर कर दिया है जिससे पीजे पर और अधिक आक्रमण की सुविधा मिली है. इसके अतिरिक्त, इसकी सबसे चरम और व्यापक जड़ प्रणाली इसे और भी अधिक आक्रामक बनाती है.

पालन ​​की जाने वाली प्रक्रिया को समझाते हुए, आवेदन ने खुलासा किया कि साइट पर भूमि की उपलब्धता के अनुसार, 1.3-हेक्टेयर से 10-हेक्टेयर क्षेत्र के पैच की पहचान की जाएगी. यह एक साइट-विशिष्ट योजना होगी जिसमें मिट्टी के प्रकार, नमी शासन, लवणता और अन्य संबंधित एडैफिक लक्षण जैसे पैरामीटर शामिल होंगे. इन मापदंडों को बेंचमार्क डेटा के रूप में लिया जाएगा.

आवेदन में कहा गया है कि परियोजना की समीक्षा और वार्षिक मूल्यांकन करने के लिए एक निगरानी समिति होगी.

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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