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Friday, 4 October, 2024
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विकास दुबे एनकाउंटर मामले में UP सरकार की जांच आयोग ने पुलिस को दी क्लीन चिट

आयोग ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना पुलिस की 'खराब योजना' के कारण हुई क्योंकि उसने स्थिति का सही आकलन नहीं किया था.

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लखनऊ: गैंगस्टर विकास दुबे मुठभेड़ मामले की जांच के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गठित तीन सदस्यीय जांच आयोग ने पुलिस को क्लीन चिट दी और कहा है कि दुबे की मौत के इर्दगिर्द का घटनाक्रम जो पुलिस ने बताया है उसके पक्ष में साक्ष्य मौजूद हैं.

आयोग ने कहा कि कानपुर देहात में आठ पुलिसकर्मियों की घात लगाकर की गई हत्या पुलिस की ‘खराब योजना’ का परिणाम थी क्योंकि उन्होंने स्थिति का सही आकलन नहीं किया था. कानपुर की स्थानीय खुफिया इकाई को भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी और वह पूरी तरह से नाकाम रही.

उत्तर प्रदेश की विधानसभा में बृहस्पतिवार को कानपुर के बिकरू कांड की रिपोर्ट पटल पर रखी गई थी जिसकी जांच उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्‍यायाधीश बीएस चौहान की अध्यक्षता में गठित जांच आयोग ने की थी.

संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्‍ना ने बृहस्पतिवार को सदन के पटल पर रिपोर्ट रखने की घोषणा की.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘(विकास दुबे मुठभेड़) मामले में एकत्रित सबूत घटना के बारे में पुलिस के पक्ष का समर्थन करते हैं. पुलिसकर्मियों को लगी चोटें जानबूझकर या स्वयं नहीं लगाई जा सकती. डॉक्टरों के पैनल में शामिल डॉ आरएस मिश्रा ने पोस्टमार्टम किया और स्पष्ट किया कि उस व्यक्ति (दुबे) के शरीर पर पाई गई चोटें पुलिस पक्ष के बयान के अनुसार हो सकती हैं.’

रिपोर्ट में कहा गया, ‘इस मामले में पुलिस के पक्ष का खंडन करने के लिए जनता, मीडिया से कोई भी सामने नहीं आया और न ही कोई सबूत सामने आया. विकास की पत्नी ऋचा दुबे ने इस घटना को फर्जी मुठभेड़ बताते हुए एक हलफनामा दायर किया था, लेकिन वह आयोग के सामने पेश नहीं हुईं.’ रिपोर्ट के अनुसार, ऐसी स्थिति में, इस घटना पर पुलिस के पक्ष के बारे में किसी तरह का संदेह पैदा नहीं होता है.

मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट कानपुर नगर द्वारा की गई मजिस्ट्रेटी जांच रिपोर्ट में भी ऐसा ही निष्कर्ष सामने आया है.

गौरतलब हैं कि कानपुर जिले के चौबेपुर थाना क्षेत्र के बिकरू गांव में दो जुलाई, 2020 की रात को आठ पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी गई थी. यह पुलिस टीम बिकरू निवासी कुख्यात माफिया विकास दुबे को पकड़ने के लिए उसके घर दबिश देने गई थी. पुलिस का आरोप है कि विकास दुबे और उसके सहयोगियों ने एक पुलिस उपाधीक्षक समेत आठ पुलिसकर्मियों पर ताबड़तोड़ गोलीबारी कर उनकी हत्या कर दी थी.

इस घटना के हफ्ते भर के भीतर ही विकास दुबे को मध्य प्रदेश की पुलिस ने उज्जैन में गिरफ्तार किया था. पुलिस के अनुसार विकास दुबे को जब पुलिस उज्‍जैन से कानपुर ला रही थी तो उसने भागने की कोशिश की और तभी मुठभेड़ में मारा गया.

तब इस बारे में उत्तर प्रदेश के अपर पुलिस महानिदेशक (कानून-व्यवस्था) प्रशांत कुमार ने पत्रकारों से कहा था कि ‘बिकरू कांड के मुख्‍य आरोपी विकास दुबे को पुलिस ने उज्जैन में गिरफ्तार किया था और उसे कानपुर लाया जा रहा था. कानपुर जिले में गाड़ी पलट गई तो विकास दुबे ने एक घायल पुलिसकर्मी की पिस्टल छीन ली और भागने की कोशिश करने लगा. पुलिस ने उसे चारों तरफ से घेर कर आत्मसमर्पण के लिए कहा लेकिन उसने आत्मसमर्पण करने के बजाय गोली चला दी और जवाब में आत्मरक्षार्थ पुलिस ने भी गोली चलाई जिससे वह घायल हो गया. घायल विकास को पुलिस जब अस्पताल लेकर पहुंची तो उसे डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था.’

आयोग में न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) बीएस चौहान, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) एसके अग्रवाल और उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक केएल गुप्ता शामिल थे. आयोग ने 21 अप्रैल को राज्य सरकार को 824 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी थी.

आयोग ने कहा कि इस बारे में ‘पर्याप्त सामग्री’ है कि विकास दुबे और उसके गिरोह को स्थानीय पुलिस, राजस्व और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा संरक्षण दिया गया था.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘वह (विकास) और उसके सहयोगी ऐसे अधिकारियों के संपर्क में थे और अधिकारी भी उनसे बातचीत करते थे. अगर किसी व्यक्ति द्वारा विकास या उसके सहयोगियों के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज कराई जाती तो शिकायतकर्ता को पुलिस द्वारा अपमानित किया जाता था, भले ही शिकायत दर्ज करने का निर्देश किसी उच्च अधिकारी ने दिया हो.’

हालांकि उसका नाम क्षेत्र के टॉप-10 अपराधियों की सूची में था, लेकिन जिले के टॉप-10 अपराधियों की सूची में नहीं था, यही नहीं उसके गिरोह के सदस्यों को सांप्रदायिक विवादों को सुलझाने के लिए शांति समिति में शामिल किया गया था.

रिपोर्ट में कहा गया कि ‘उसकी (दुबे की) पत्नी जिला पंचायत के सदस्य के रूप में चुनी गई थी और उसके भाई की पत्नी ग्राम बिकरू के प्रधान के रूप में चुनी गई थी. वे दोनों लखनऊ में रह रही थीं. यदि क्षेत्र के किसी भी व्यक्ति को उनसे कोई मदद चाहिए होती, तो वह विकास दुबे से संपर्क करते थे. निर्वाचित दोनों महिलायें कभी सामने नही आती थीं.’

आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक दुबे परिवार के अधिकांश सदस्यों को हथियारों के लाइसेंस दिए गए थे और इस संबंध में सक्षम अधिकारियों द्वारा आपराधिक मामलों में उनकी संलिप्तता के वास्तविक तथ्यों को छिपाते हुए सिफारिशें की गई थीं. आयोग ने कहा कि उनके पासपोर्ट जारी करने, राशन की दुकान का लाइसेंस देने में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी.

रिपोर्ट के मुताबिक ‘उसके (दुबे के गिरोह के) खिलाफ दर्ज किसी भी मामले में जांच कभी भी निष्पक्ष नहीं की गयी. आरोपपत्र दाखिल करने से पहले गंभीर अपराधों से संबंधित धाराएं हटा दी जाती थीं, सुनवाई के दौरान, अधिकांश गवाह मुकर जाते. विकास दुबे और उसके सहयोगियों को अदालतों से आसानी से और जल्द जमानत के आदेश मिल जाते थे. ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि क्योंकि राज्य सरकार के सरकारी अधिवक्ताओं द्वारा इस पर कोई गंभीर विरोध नहीं किया गया था.’

आयोग के अनुसार, ‘वह (दुबे) 64 आपराधिक मामलों में शामिल था, राज्य के अधिकारियों ने कभी भी उसके अभियोजन के लिए विशेष वकील को नियुक्त करना उचित नहीं समझा. राज्य ने कभी भी जमानत रद्द करने के लिए कोई आवेदन नहीं किया या किसी भी जमानत के आदेश को भी रद्द करने के लिए किसी बड़ी अदालत से संपर्क नहीं किया.’

आयोग के अनुसार, ज्यादातर मामलों में उच्च न्यायालय ने दुबे को अंतरिम राहत दी थी और विभिन्न आपराधिक मामलों में अधीनस्थ अदालतों के समक्ष कार्यवाही पर रोक लगा दी और वह 13-14 वर्षों की अवधि के लिए ऐसे आदेशों के संरक्षण में रहा. आयोग ने कहा कि उच्च न्यायालय ने विकास दुबे और उसके सहयोगियों को मुख्य रूप से इस आधार पर जमानत दी कि उसे बड़ी संख्या में मामलों में बरी कर दिया गया था. अदालत ने यह जानने की कोई कोशिश नहीं की कि किन परिस्थितियों में और कैसे ज्यादातर मामलों में गवाह अपने बयानों से पलट गए.

मुठभेड़ के बारे में, आयोग ने कहा कि चौबेपुर पुलिस थाने में तैनात कुछ पुलिस कर्मियों ने दुबे को छापे के बारे में पहले ही जानकारी दे दी थी, जिससे उसे अपने सहयोगियों को हथियारों के साथ बुलाने और जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार होने का मौका मिला.

रिपोर्ट में कहा गया, ‘कानपुर में खुफिया इकाई विकास दुबे और उसके गिरोह द्वारा आपराधिक गतिविधियों और हथियारों (कानूनी और अवैध) के कब्जे के बारे में जानकारी एकत्र करने में विफल रही. छापे की तैयारी में कोई उचित सावधानी नहीं बरती गई जबकि 38-40 पुलिस कर्मी बिकरू गांव पहुंचे और उनमें से किसी ने भी बुलेट प्रूफ जैकेट नहीं पहनी थी. उनमें से केवल 18 के पास हथियार थे, बाकी पुलिसकर्मी खाली हाथ या लाठियों के साथ गए थे.’

आयोग ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना पुलिस की ‘खराब योजना’ के कारण हुई क्योंकि उसने स्थिति का सही आकलन नहीं किया था.


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