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रविवार, 20 अप्रैल, 2025
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बीमा दावों के निपटारा में परेशानी मुआवजे का आधार, लेकिन आपराधिक कृत्य नहीं: उच्च न्यायालय

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नयी दिल्ली, 20 अप्रैल (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी अस्पताल में बीमा दावों की मंजूरी के दौरान ग्राहक को होने वाली परेशानी मुआवजे की मांग का आधार हो सकती है लेकिन यह आपराधिक कृत्य नहीं है।

अदालत ने यह भी कहा कि मरीजों को अंतिम बिल के निपटारा में अक्सर परेशानी का सामना करना पड़ता है और बिल के सुगम निपटारा तथा मरीजों को अस्पताल से छुट्टी देने के मुद्दे को प्राधिकारों द्वारा उठाया जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने सत्र अदालत के खिलाफ एक वकील की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। सत्र अदालत ने निजी अस्पताल को वकील की शिकायत पर मजिस्ट्रेट अदालत द्वारा जारी समन को बरकरार रखने से इनकार कर दिया था।

वकील की 2013 में एक निजी अस्पताल में सर्जरी हुई थी। उन्होंने अस्पताल पर धोखाधड़ी, धन के दुरुपयोग और गलत तरीके से रोककर रखने का आरोप लगाया।

उन्होंने आरोप लगाया कि निजी बीमा कंपनी की कैशलेस बीमा योजना के तहत मंजूरी होने के बावजूद, उनसे सर्जरी से पहले पूरी अनुमानित राशि जमा करवा ली गई और पॉलिसी के तहत पूरा भुगतान होने तक उन्हें छुट्टी नहीं दी गई।

अदालत ने 17 अप्रैल को पारित फैसले में कहा कि प्रक्रियागत देरी हुई, लेकिन याचिकाकर्ता ने जो आरोप लगाया है, वैसा कोई अपराध नहीं बनता है और उसने सत्र अदालत के फैसले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।

अस्पताल ने दलील दी कि उसने कोई अपराध नहीं किया है, क्योंकि प्रारंभिक अनुमति केवल सीमित राशि और निम्न श्रेणी के कमरे के लिए थी, तथा बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीए) के मानदंडों के अनुसार, स्वीकृत शुल्क और वास्तविक शुल्क के बीच का अंतर मरीज से अस्पताल से छुट्टी से पहले लिया जाना आवश्यक है।

अदालत ने कहा कि शेष राशि को पहले ही जमा करने की शर्त कठिन लग सकती है, लेकिन इसे न तो धन उगाही कहा जा सकता है और न ही इस संबंध में अस्पताल की कोई बेईमानी या धोखाधड़ी की मंशा को दर्शाया जा सकता है।

हालांकि, अदालत ने बीमा कंपनियों के साथ अपने बिल का भुगतान करने में मरीजों को होने वाली परेशानी को स्वीकार करते हुए कहा कि इसमें ‘‘बहुत अधिक विलंब होता है।’’

अदालत ने कहा, ‘‘बीमा कंपनी से मंजूरी प्राप्त करने की इस व्यवस्था पर कई मंचों और अदालतों ने नाराजगी व्यक्त की है। ऐसी स्थिति मानसिक परेशानी के लिए मुआवजे की मांग का आधार हो सकती है, लेकिन यह किसी आपराधिक कृत्य के समान नहीं है।’’

अदालत ने कहा, ‘‘कई बार अदालतों ने सिफारिश की है कि कुछ नियामक नीति हो सकती है और एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) ने मरीजों के अधिकारों का चार्टर भी प्रस्तावित किया है, लेकिन दुर्भाग्य से इस पहलू पर आज तक कोई अंतिम समाधान नहीं हुआ है।’’

अदालत ने कहा, ‘‘यह ऐसा मामला है जिसे राज्य सरकार, केंद्र सरकार के स्तर पर आईआरडीए तथा दिल्ली एवं भारत की मेडिकल काउंसिल के परामर्श से उठाया जाना चाहिए, ताकि अस्पताल से छुट्टी की प्रक्रिया को सुचारू बनाने तथा मेडिकल बिल के निपटारे के लिए कोई तंत्र तैयार किया जा सके।’’

भाषा आशीष रंजन

रंजन

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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