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Friday, 1 November, 2024
होमदेशतिरंगा vs भगवा ध्वज- DP विवाद ने एक बार फिर से तिरंगे के साथ RSS के जटिल रिश्तों को सामने ला दिया

तिरंगा vs भगवा ध्वज- DP विवाद ने एक बार फिर से तिरंगे के साथ RSS के जटिल रिश्तों को सामने ला दिया

एम.एस गोलवलकर ने 1966 में अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में लिखा था, तिरंगा 'किसी नेशनल विजन से प्रेरित नहीं' था. लेकिन आरएसएस के जानकारों कहना है कि संगठन ने कभी भी झंडे का अनादर नहीं किया.

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नई दिल्ली: इस महीने की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नाम एक संदेश दिया था. उन्होंने कहा कि भारत 15 अगस्त को स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे करने के लिए पूरी तरह तैयार है और इस अवसर पर सोशल मीडिया यूजर्स को अपनी डिस्प्ले पिक्चर को तिरंगे की तस्वीर के साथ बदल लेना चाहिए.

उसके बाद मोदी के सोशल एकाउंट की डीपी बदल गई. भाजपा ने भी अपने अकाउंट की डीपी बदलते हुए तिरंगे की तस्वीर लगा ली. अन्य सोशल मीडिया यूजर्स ने भी इसका पालन किया.

लेकिन कुछ अकाउंट अभी भी बिना तिरंगे वाली डिसप्ले पिक्चर के साथ नजर आ रहे हैं. इनमें से कुछ खास नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), इसके सरसंघचालक (प्रमुख) मोहन भागवत और सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबले के हैं.

विपक्ष इस मौके को गंवाना नहीं चाहता था. उन्होंने भारतीय ध्वज के साथ आरएसएस के कमजोर संबंधों की तरफ लोगों का ध्यान मोड़ा.

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कहा कि आरएसएस ने अपने मुख्यालय पर ‘52 साल तक’ राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया और उस पर इसका अपमान करने का आरोप भी लगाया.

यह जानते हुए भी कि 2000 के दशक की शुरुआत तक संगठन के निजी परिसर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने की अनुमति नहीं थी, आरएसएस ने इस आरोप को खारिज कर दिया और इसके कई वरिष्ठ सदस्यों ने आने वाले दिनों में अपनी डीपी बदल ली. इनमें संयुक्त महासचिव मनमोहन वैद्य और अरुण कुमार और प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर शामिल हैं.

आरएसएस ने विवाद को कम तो कर दिया लेकिन संगठन के तिरंगे के साथ जटिल संबंध रहे हैं, ये बात ज्यादातर लोगों से छिपी हुई नहीं है. वो तिरंगा जिसके तीन रंग भारत की विभिन्न विशेषताओं को दर्शाते हैं.

आरएसएस के दूसरे प्रमुख एम.एस. गोलवलकर ने अपनी 1966 की किताब बंच ऑफ थॉट्स में कहा था कि झंडा ‘हमारे राष्ट्रीय इतिहास और विरासत पर आधारित किसी भी सच्चाई या नेशनल विजन से प्रेरित नहीं था’.

1947 में स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर आरएसएस ने अपनी पत्रिका ऑर्गेनाइजर में एक संपादकीय में कहा, ‘तीन रंगों वाला झंडा निश्चित रूप से बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक है’. उन्होंने आगे कहा था, तिरंगे को न तो कभी हिंदुओं द्वारा अपनाया जाएगा और न ही कभी उसका ‘सम्मान’ किया जाएगा.

फिर भी, आरएसएस के जानकारों का कहना है कि भले ही संगठन के झंडे के साथ अपने मसले रहे हों लेकिन उन्होंने कभी भी इसका अनादर नहीं किया या इसे स्वीकार करने से इनकार नहीं किया.


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तिरंगे से आरएसएस का जटिल रिश्ता

ध्वज समिति की सिफारिश पर तिरंगे को स्वतंत्र भारत के ध्वज के रूप में अंतिम रूप दिया गया था. राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में बना ये पैनल संविधान सभा के तहत गठित कई समितियों में से एक था.

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा की बैठक के दौरान ध्वज को अपनाया गया था.

यह काफी हद तक 1931 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा अपनाए गए झंडे जैसा ही है. इसमें एकमात्र अंतर तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक से जुड़ा ‘धर्म चक्र’ है.

ध्वज के अग्रदूत ने समुदायों का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश की. लेकिन एआईसीसी ने उस समय एक प्रस्ताव में साफ कर दिया कि झंडे के तीन रंग- केसरिया, सफेद और हरा- ‘समुदायों का नहीं बल्कि गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं.’

संविधान सभा में डॉ. एस. राधाकृष्णन ने तीन रंगों के महत्व को समझाते हुए कहा था, ‘भगवा या केसरिया रंग वैराग्य के त्याग को दर्शाता है. केंद्र में सफेद रंग, हमारे आचरण का मार्गदर्शन करने के लिए सत्य का मार्ग है और हरा मिट्टी व पौधे के जीवन से हमारे संबंध को दर्शाता है … अशोक चक्र धर्म का पहिया है और शांतिपूर्ण परिवर्तन की गतिशीलता का प्रतिनिधित्व करता है.’

2016 में आरएसएस की वेबसाइट पर प्रकाशित एक साक्षात्कार में तत्कालीन प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा था कि ‘भगवा का सांप्रदायिकरण स्वतंत्रता के बाद ही हुआ.’

वैद्य ने कहा था, ‘तिरंगा झंडा 1921 में राजनीतिक परिदृश्य में उभरा. यह गांधी जी का विचार था कि सभी प्रमुख समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाला ध्वज हो. इसलिए, तिरंगा झंडा नीचे लाल (भगवा नहीं), बीच में सफेद और सबसे ऊपर हरा रंग हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करता है.’ उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा था कि ध्वज समिति ने एक आयताकार भगवा रंग के ध्वज की सिफारिश की थी, जिसके शीर्ष पर कोने में नीले रंग का चरखा बना हो.

उन्होंने आगे कहा, ‘भगवा रंग का सांप्रदायिकरण आजादी के बाद ही हुआ, खासकर संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द डालने के बाद. तब से क्या सांप्रदायिक है और क्या धर्मनिरपेक्ष, इनकी परिभाषा को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाना शुरू हुआ.’


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नेशनल विजन से प्रेरित नहीं है तिरंगा: गोलवलकर

बंच ऑफ थॉट्स में गोलवलकर ने सवाल उठाया कि झंडे का चयन कैसे किया गया.

उन्होंने लिखा, ‘हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए एक नया झंडा तैयार किया है. उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ बहकने और नकल करने का मामला है. यह झंडा कैसे अस्तित्व में आया? फ्रांसीसी क्रांति के दौरान, फ्रांस ने ‘स्वतंत्रता’, ‘समानता’ और ‘भाईचारा’ के ट्रिपल विचारों को व्यक्त करने के लिए अपने झंडे पर तीन पट्टियां लगाईं.’

‘अमेरिकी क्रांति ने भी उन्हीं सिद्धांतों से प्रेरित होकर कुछ बदलावों के साथ इसे अपनाया था. हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी तीन धारियां एक तरह का आकर्षण ही था. इसलिए कांग्रेस ने इसे अपनाया. तब इसकी व्याख्या विभिन्न समुदायों की एकता को दर्शाने के रूप में की गई थी. भगवा रंग हिंदू के लिए, हरा मुस्लिम के लिए और सफेद अन्य सभी समुदायों के लिए.

गोलवलकर ने कहा, ‘सभी ‘गैर-हिंदू समुदायों’ में से मुस्लिम का नाम विशेष रूप से अलग रखा गया था क्योंकि उन प्रमुख नेताओं में से अधिकांश के दिमाग में मुस्लिम हावी थे और उनका नाम लिए बिना हमारी राष्ट्रीयता पूरी हो सकती है, वो ऐसा सोच भी नहीं सकते थे.’

उन्होंने आगे कहा कि, यह सिर्फ राजनेताओं की घपलेबाजी और एक राजनीतिक फायदे के लिए था. यह हमारे राष्ट्रीय इतिहास और विरासत पर आधारित किसी सच्चाई या राष्ट्रीयता की विचारधारा से प्रेरित नहीं था. उसी ध्वज को आज हमारे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में केवल एक गौरवशाली अतीत के साथ लिया गया है. तो क्या हमारा अपना कोई झंडा नहीं था? क्या इन हजारों सालों में हमारा कोई राष्ट्रीय चिन्ह नहीं था? निस्संदेह, हमारे पास था. फिर यह शून्यता क्यों? यह हमारे दिमाग में खलल डाल रहा है.

एक अन्य किताब श्री गुरुजी समग्र दर्शन– हिंदी में गोलवलकर के कार्यों का संग्रह- में उन्होंने कहा, ‘वह भगवा ध्वज ही है, जो समग्र रूप से भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है.’

‘यह भगवान का अवतार है. हमें पूरा विश्वास है कि अंत में पूरा देश इस भगवा ध्वज के आगे झुकेगा.’

आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार ने कांग्रेस के पूर्ण स्वराज प्रस्ताव का समर्थन करते हुए भगवा ध्वज को तिरंगे के समान माने जाने के लिए कोशिश की थी.

उन्होंने 21 जनवरी 1930 को एक सर्कुलर जारी किया, जिसमें सभी आरएसएस शाखाओं को संकल्प का समर्थन करने के लिए भगवा ध्वज फहराने के लिए कहा गया. हेडगेवार द्वारा लिखे गए पत्रों के एक संग्रह- पत्ररूप व्यक्तिदर्शन नामक पुस्तक में हिंदी में स्वयंसेवकों से कहा गया, ‘राष्ट्रीय ध्वज अर्थात भगवे ध्वज का वंदन करें.’

17 सितंबर 2018 को विज्ञान भवन में दिए गए अपने भाषण में भागवत ने तिरंगे के साथ आरएसएस के जुड़ाव का दावा करने के लिए हेडगेवार के उसी सर्कुलर का उल्लेख किया था. उन्होंने हेडगेवार की बातों को गलत तरीके से उद्धृत किया और बताया कि हेडगेवार ने शाखाओं में तिरंगे फहराने के लिए कहा था.

उसी भाषण में भागवत ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करता है और भगवा प्राचीन परंपरा का प्रतीक है.

भागवत ने कहा था, ‘जब भी इतिहास का हवाला दिया जाता है, वहां भगवा झंडा हमेशा मौजूद रहा है. यहां तक कि जब यह तय किया जाना था कि स्वतंत्र भारत का झंडा क्या होना चाहिए, ध्वज समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की कि प्रसिद्ध और सम्मानित भगवा ध्वज राष्ट्रीय ध्वज होना चाहिए.’

उन्होंने 2018 में यह भी कहा कि बंच ऑफ थॉट्स के हिस्से अब मान्य नहीं हैं.


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झंडे की ‘स्पष्ट स्वीकृति’ के बाद आरएसएस पर लगा प्रतिबंध हटा

भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने 1948-49 में आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाते हुए कहा था कि संगठन की राष्ट्रीय ध्वज की ‘स्पष्ट स्वीकृति’ निर्णय की शर्तों में से एक थी.

पी.एन. चोपड़ा और प्रभा चोपड़ा द्वारा संपादित ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ सरदार वल्लभभाई पटेल वॉल्यूम 8’ के मुताबिक, पटेल ने कांग्रेसियों से कहा कि उन्होंने गोलवलकर को बता दिया है कि राष्ट्रीय ध्वज को सार्वभौमिक रूप से स्वीकार करना होगा और अगर किसी ने इसके विकल्प के बारे में सोचा, तो इसके लिए लड़ा जाएगा.

पुस्तक में यह भी उल्लेख किया गया है कि तत्कालीन गृह सचिव एच.वी.आर. अयंगर ने मई 1949 में गोलवलकर को लिखा था, ‘देश की खुशी के लिए राष्ट्रीय ध्वज (संघ के संगठनात्मक ध्वज के रूप में भगवा ध्वज के साथ) की स्पष्ट स्वीकृति आवश्यक होगी और राष्ट्र के प्रति निष्ठा को देखते हुए इसमें कोई आपत्ति भी नहीं है.’

जबकि आरएसएस का दावा है कि 2002 से हर साल उसके मुख्यालय पर तिरंगा फहराया जाता रहा है लेकिन राष्ट्रीय ध्वज के बारे में विवादास्पद टिप्पणियां उसके यहां से आती रहती हैं.

2016 में आरएसएस के वरिष्ठ नेता सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा कि भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज मानना गलत नहीं था. उन्होंने कहा कि तिरंगा और राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ बाद में आया.

आरएसएस ने बाद में एक स्पष्टीकरण जारी करते हुए कहा कि जोशी ने राष्ट्रीय ध्वज और गान में कोई बदलाव की मांग नहीं की.


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‘आरएसएस ने विरोध तो किया लेकिन तिरंगे का सम्मान किया’

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर संगीत रागी ने कहा कि आरएसएस ने इस आधार पर तिरंगे के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराया कि यह भारतीय लोकाचार को नहीं दर्शाता है लेकिन यह कहना सही नहीं है कि उन्होंने ध्वज को सम्मान नहीं दिया.

उन्होंने कहा, ‘यह सच है कि आरएसएस चाहता था कि भगवा ध्वज राष्ट्रीय ध्वज हो क्योंकि यह भारतीय लोकाचार के करीब था. केसरी हमारी सभ्यता का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करता रहा है लेकिन क्या आरएसएस ने तिरंगे का सम्मान नहीं किया? यह सही नहीं है.’

वह बताते हैं, ‘एक और लोकप्रिय गलत धारणा है कि आरएसएस ने 1950 के बाद 52 सालों तक जानबूझकर राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया था. झंडे को कहां फहराया जा सकता है और कैसे उतारना चाहिए, इस बारे में सख्त नियम थे.’ उन्होंने आगे कहा, ‘आजादी मिलने के बाद से 26 जनवरी और 15 अगस्त को सभी शाखाओं में तिरंगा फहराया गया है.’

आरएसएस पर कई किताबें लिखने वाले लेखक रतन शारदा ने कहा, जब ध्वज समिति द्वारा नए झंडे का चयन किया जा रहा था, तब बहस और चर्चा हुई थी.

उन्होंने आगे बताया, ‘आलोचना का मतलब यह नहीं है कि आप किसी चीज़ से नफरत करते हैं. यहां तक कि जब संविधान बनाया जा रहा था, तब भी कई सवाल और बहसें उठीं क्योंकि हमारे देश का माहौल सवालों और चर्चाओं के लिए खुला रहा है. ऐसे कई स्वयंसेवक थे जिन्होंने तिरंगे के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. फिर, इसे राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार नहीं करने का सवाल ही कहां उठता है?’

वह कहते हैं, ‘आरएसएस के स्वयंसेवकों ने दादरा और नगर हवेली को पुर्तगालियों से मुक्त कराने के लिए लड़ाई लड़ी और तिरंगा फहराया. इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं. आरएसएस के सदस्य राजाभाऊ महाकाल की गोवा मुक्ति संग्राम में तिरंगा पकड़े हुए मृत्यु हुई थी.

उन्होंने कहा, ‘साल 1942 में चिमूर, पटना और सिंध में कई स्वयंसेवकों ने तिरंगा झंडा पकड़े हुए अपनी जान गंवाई. विभाजन के दौरान और जम्मू-कश्मीर में हिंदू सिखों को बचाते हुए सैकड़ों लोग मारे गए थे.’

आरएसएस के हर कार्यालय में भारत माता की एक तस्वीर होती है, जिसमें एक शेर की सवारी होती है और एक भगवा झंडा होता है. इसकी पृष्ठभूमि में ‘अखंड भारत’ होता है. भगवा ध्वज संगठन के लिए अधिक महत्व रखता है. वह इसे ‘गुरु’ मानता है.

भगवा ध्वज के महत्व को समझाते हुए आरएसएस ने 2016 के एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, ‘भगवा ध्वज संघ की अपनी रचना नहीं है. न ही संघ का अलग झंडा बनाने का कोई इरादा है. संघ ने केवल भगवा ध्वज को स्वीकार किया है, जो हजारों वर्षों से हमारे राष्ट्र धर्म का ध्वज है. भगवा ध्वज का एक लंबा इतिहास और परंपरा है और यह हिंदू संस्कृति का एक अवतार है.’

रागी ने कहा कि भगवा झंडा ‘सनातन धर्म के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा’ रहा है.

उन्होंने कहा, ‘महाभारत में अर्जुन के रथ पर भगवा झंडा था. भगवान राम और हनुमान ने भी भगवा झंडा लहराया. इस प्रकार यह हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत के लोकाचार के करीब है.’

आरएसएस छह त्योहार मनाता है, जिनमें से ‘गुरु पूर्णिमा’ विशेष रूप से भगवा ध्वज को सम्मान देने के लिए मनाया जाता है. स्वयंसेवक ध्वज को धन और अन्य प्रसाद के रूप में ‘गुरु दक्षिणा’ भी देते हैं. इस पैसे का इस्तेमाल आरएसएस संगठनात्मक खर्चों के लिए करता है.


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हम ‘हर घर तिरंगा’ का समर्थन करते हैं: आरएसएस नेता

डिस्प्ले पिक्चर विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए आरएसएस के वरिष्ठ नेता और प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा कि ऐसी चीजों का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए.

आंबेकर ने कहा कि आरएसएस पहले ही ‘हर घर तिरंगा’ और ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ कार्यक्रमों को अपना समर्थन दे चुका है.

उन्होंने कहा कि जुलाई में संघ ने सरकारी, निजी निकायों और संघ से जुड़े संगठनों द्वारा आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में लोगों और स्वयंसेवकों के पूर्ण समर्थन और भागीदारी की अपील की थी.

कुछ नेताओं और संगठन के आधिकारिक हैंडल की डिसप्ले पिक्चर क्यों नहीं बदली है, इस पर आंबेकर ने कहा, ‘हम किसी के दबाव में कोई निर्णय नहीं लेते हैं’

उन्होंने कहा, ‘अगर हमारे आधिकारिक ट्विटर हैंडल की डिस्प्ले पिक्चर बदलनी है, तो यह समय आने पर किया जाएगा.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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