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Wednesday, 20 November, 2024
होमदेश‘वे बैलों के बदले हमारे बच्चों को खरीदते-बेचते हैं’- अरुणाचल की कुछ बस्तियों में आज भी कायम है गुलामी की प्रथा

‘वे बैलों के बदले हमारे बच्चों को खरीदते-बेचते हैं’- अरुणाचल की कुछ बस्तियों में आज भी कायम है गुलामी की प्रथा

न्यिशी और मिजी जनजातियां पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुरोइक समुदाय के सदस्यों की ‘मालिक’ बनी हुई हैं. यद्यपि ये प्रथा 1999 में गैरकानूनी घोषित कर दी गई थी लेकिन अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में लोगों को अब भी गुलामों जैसा जीवन जीना पड़ रहा है.

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पूर्वी कामेंग: अगांग सोजा उस समय महज 11 साल की थी, जब एक आदमी उसे संगचु गांव स्थित उसके घर से ले गया. यह गांव अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी कामेंग जिले में पुरोइक जनजाति की बस्ती है. उसके परिवार की हिम्मत नहीं थी कि न्यिशी जनजाति के उस व्यक्ति यूलो ताजो से कोई सवाल-जवाब कर सके-आखिरकार, वह अगांग के पिता का ‘मालिक’ था.

संगचु गांव में मद्धिम रोशनी वाली एक झोपड़ी में बैठी अगांग की 22 वर्षीय बहन पापी सोजा ने बताया कि अक्टूबर 2019 के उस दिन के बाद से परिवार ने 11 वर्षीय बच्ची को फिर कभी नहीं देखा है. उस घटना को याद करते हुए पापी ने दिप्रिंट को बताया, ‘वह (यूलो ताजो) एक दिन हमारे घर आया और उसे यह कहते हुए ले गया कि उसकी पढ़ाई का इंतजाम करेगा…हम बहुत चिंतित हैं.’

यह पूछे जाने पर कि उसके परिवार ने शिकायत क्यों नहीं दर्ज कराई पापी ने कहा, ‘वह (यूलो ताजो) मेरे पिता के न्यिशी भाई की तरह है…हम शिकायत करने की सोच रहे हैं, लेकिन अगर भैया उसकी पढ़ाई करा रहे हैं, तो कोई बात नहीं.’

अपने सुंदर और मनोरम स्थलों की वजह से बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करने वाले अरुणाचल प्रदेश का एक स्याह पहलू भी है और यह है यहां कुछ लोगों को गुलामों जैसा जीवन जीने को मजबूर करने वाली एक आदिवासी सामंती व्यवस्था. इस व्यवस्था के शिकार पुरोइक बनते हैं, जिन्हें कभी ‘सुलुंग’ कहा जाता था. यह एक अपमानजनक शब्द है और यह उनके दास होने की स्थिति को दर्शाता है.

वैसे तो पुरोइक अरुणाचल प्रदेश के छह जिलों में बसे हुए हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश पूर्वी कामेंग में रहते हैं. सैकड़ों सालों से पुरोइक इस जिले में मिजी और न्यिशी जनजातियों के लिए ‘दास’ के तौर पर काम करते आ रहे हैं, जो उनके खेतों में काम करते हैं, उनके मवेशियों की देखभाल करते हैं और घर के अन्य कामकाज में हाथ बंटाते हैं.

मार्च 1999 में पूर्वी कामेंग जिला प्रशासन ने 3,000 से अधिक पुरोइकों को बंधुआ मजदूर के तौर पर काम करते पाए जाने के बाद सामंती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया था. हालांकि, आदेश पारित होने के 23 साल बाद भी इस आदिवासी समुदाय के लोगों को अरुणाचल के कुछ हिस्सों में खासकर न्यिशी समुदाय (जिन्हें निशिंग या बंगनी भी कहा जाता है) द्वारा ‘खरीदा’ जाना जारी है.

यहां तक कि न्यिशी भी मानते हैं कि यह प्रथा बदस्तूर जारी है. अंगाग सोजा के गांव से करीब 60 मिनट की ड्राइव की दूरी पर स्थित न्यिशी गांव जयंग बगांग के गांवबुरा (ग्राम प्रमुख) ख्याबिंग बगांग कहते हैं, ‘अगर सुलुंग लोग अपने बच्चों को बेचेंगे हैं तो हम (न्यिसी) उन्हें खरीदने में क्यों हिचकिचाएंगे. फिर ये लोग फिर हमारे खेतों में और निर्माण स्थलों पर मजदूर के तौर पर काम करते हैं. वे खुद अपन भोजन आदि के लिए काम करते हैं. यहां कुछ सुलुंग लोगों की जरूरत रहती है.’ वे उन लोगों में शामिल हैं जो आज भी पुरोइकों को सुलुंग के तौर पर संदर्भित करते हैं.

अपनी बहन को तीन साल पहले आखिरी बार देखने वाली पापी सोजा का कहना है कि ‘शादी के दौरान लड़कियों को खरीदा जाना भी आम बात है. पापी भी इस कुप्रथा का शिकार रही है. उसने बताया, ‘मेरे पति के मालिक ने मुझे खरीदा और सामान्य मिथुन (जंगली बैल या गायल) की बजाये मेरे मालिक को पैसे दिए.’

पापी सोजा के पास बैठी एक अन्य ग्रामीण यारो सोजा ने भी कुछ ऐसी ही आपबीती सुनाई. करीब आठ साल पहले उसकी बेटी, मीजो सोजा—जो उस समय 12 साल की थी—को एक न्यिशी व्यक्ति ले गया था, जो नजदीक के ही एक इलाके का मलिक था. यारो ने कहा, ‘हमें अपनी बेटी को देखने की भी अनुमति नहीं है. हमें बताया गया कि वे उसे वापस नहीं देंगे. हम केवल उसे रिहा कराने के बारे में सोच रहे हैं.’


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बहुत गहरी हैं आदिवासी सामंती व्यवस्था की जड़ें

पूर्वी कामेंग के सेपा में गवर्नमेंट कॉलेज के प्रिंसिपल रॉबिन हिसांग ने जैसा दिप्रिंट को बताया, इतिहास बताता है कि इस तरह की बंधुआ मजदूरी की जड़ें आर्थिक निर्भरता और कर्ज से जुड़ी हैं.

हिसांग ने कहा, ‘प्रचलित कथाओं के मुताबिक, पुरोइक और न्यिशियों के एक आर्थिक संबंध था. न्यिशियों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी. पुरोइकों ने उनसे कर्ज लिया, लेकिन कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं रहे.’

पुरोइक परिवारों के पुनर्वास पर मंत्रिस्तरीय समिति की 1994 की एक रिपोर्ट न्यिशियों और पुरोइकों के बीच ऐसे जटिल रिश्तों की शुरुआत के बारे में बताती है. रिपोर्ट कहती है, ‘पुरोइकों के मुताबिक…न्यिशी किसी तरह उनके इलाके में घुस आए और उनके साथ दोस्ती गांठ ली और फिर उन्होंने काफी आग्रह के साथ नमक, मोती, कपड़े, दाओस (तलवार), स्थानीय बीयर आदि भेंट करके उनके साथ नजदीकी संबंध बनाए.’

इसमें आगे कहा गया है, ‘धीरे-धीरे उन्होंने पुरोइकों को अपने खेतों में काम दिया और इस प्रकार निशिंग इन पुरोइकों का शोषण करने लगे, जो उनके उपकारों के बोझ तले दबे थे और वास्तव में हालिया वर्षों तक यही स्थिति रही है.’

1996 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश पर केंद्र ने सभी राज्यों को बंधुआ मजदूरों का सर्वेक्षण करने और 1976 के बंधुआ श्रम प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम पर अमल सुनिश्चित करने का निर्देश दिया.

उसी समय पूर्वी कामेंग में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि जिले के 3,000 से अधिक पुरोइकों में से कम से कम 80 प्रतिशत या तो न्यिशी या मिजी जनजातियों की दासता के अधीन थे. मार्च 1999 में ही पूर्वी कामेंग जिला प्रशासन ने इस तरह की सामंती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया.

पुरोइक बस्ती सांगचू में स्कूल के सामने बैठे बच्चे। लगभग 100 निवासियों वाले गांव में एक भी स्कूल नहीं है | अंगना चक्रवर्ती | दिप्रिंट

इसके बाद, 1999 के ‘बंधुआ मजदूरी पर सूचना’ शीर्षक से जारी एक नोट में जिला प्रशासन ने बताया कि प्रतिबंध के बाद जिले के 3,452 बंधुआ मजदूरों में से 2,992 को रिहा करा दिया गया है.

हालांकि, अधिकारियों को अभी भी ऐसी शोषण वाली प्रथा पूरी तरह खत्म करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. जिले के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा. ‘कागज पर अब कोई भी बंधुआ मजदूर नहीं है. लेकिन सावा क्षेत्र में कुछ हिस्सों में हैं और चयांगताजो में एक या दो जगहों पर यह प्रथा अभी भी जारी है.’

अरुणाचल प्रदेश सरकार की तरफ से गठित स्वायत्त पुरोइक कल्याण बोर्ड के सदस्य ताकेया सोजा ने कहा, ‘पूर्वी कामेंग में 50 प्रतिशत पुरोइकों के लिए स्थिति बेहतर हो गई है. लेकिन, कुरुंग कामेई जिले में स्थिति और भी खराब हो गई है और किसी भी पुरोइक को रिहा नहीं किया गया है.’


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‘कुछ भी कहा तो जान से मार देंगे’

1975 में अरुणाचल प्रदेश सरकार ने पुरोइकों को अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद के उद्देश्य से एक ग्राम पुनर्समूहीकरण योजना लागू की थी. योजना से पहले तक पुरोइकों के पास जमीन नहीं थी और वे छोटी और इधर-उधर बिखरी बस्तियों में रहते थे.

सांगचु की तरह चयांगताजो का तगाम्पु गांव भी 1970 और 1980 के दशक में राज्य सरकार की योजना के तहत पुरोइकों के पुनर्वास के लिए बसाया गया था.

ग्राम पंचायत के एक सदस्य सियांग साजी ने कहा, ‘जब हम पुनर्वास के दौरान यहां आए, तो हमें कुछ आजादी मिली. अतीत में, हमें रंगबंग (जंगली साबूदाना, जिससे एक आटा बनाया जाता है), बांस और अन्य चीजें बंगनियों (न्यिशियों) के लिए एकत्र करनी पड़ती थीं. हम जंगल से जो कुछ भी शिकार करते, हमें उन्हें भी देना होता था.’

सियांग और तगाम्पू के अधिकांश निवासी इस सामंती व्यवस्था से मुक्त हो गए हैं, लेकिन जिले के अन्य लोग अभी भी इस दुष्चक्र में फंसे हैं.

सर्कल मुख्यालय से 26 किलोमीटर दूर मारा तसर पुरोइकों के लिए बनाए गए चयांगताजो के नौ गांवों में से एक है. मारा तसर तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता पहाड़ी इलाकों की 90 मिनट की कठिन यात्रा है जो पहाड़ियों से घिरे एक स्थान पर खत्म होती है. इस जगह पर टिन की छतों वाली सिर्फ पांच लकड़ी की झोपड़ियां हैं.

65 वर्षीय ठुकिक कापेक ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैंने 1981 में इस समझौते में मदद की. सरकार ने 22 घरों में से प्रत्येक को 2,500 रुपये के साथ हमें यह जमीन दी. अब, ज्यादातर लोग (नौकरी की तलाश या शिक्षा के लिए) चले गए हैं, और यहां केवल पांच घर बचे हैं.’

तगाम्पु गांव के निवासियों का कहना है कि सरकार की पुनर्वास नीति के लागू होने के बाद उन्हें कुछ हद तक आजादी मिली है | अंगना चक्रवर्ती | दिप्रिंट

जो पुरोइक अभी भी इस क्षेत्र में न्यिशियों के लिए काम करते हैं, वे अपने मालिकों के घर या उसके आसपास ही रहने के लिए बाध्य है.

कापेक की बेटी की शादी दूसरे गांव जयंग बगांग के एक न्यिशी के घर काम करने वाले लड़के से हुई थी. उन्होंने बताया, ‘लड़के को बंगनी (न्यिशी) ने खरीदा था. उन्होंने हमें शादी के समय तीन मिथुन (बैल) दिए और वह अब उस घर में रहती है और काम करती है.’

जयंग बगांग के ग्राम प्रधान ख्याबिंग बगांग ने कहा कि कुछ पुरोइकों के अपने घर हैं, लेकिन वे मालिकों के घर के करीब बने हैं. वे भोजन और कपड़ों के लिए अपने मालिक पर निर्भर हैं और आमतौर पर उन्हें वेतन नहीं मिलता है. मारा तसर के एक अन्य ग्रामीण लागो कापेक ने कहा कि उनकी आवाजाही सीमित है और उन्हें अपने परिवारों से मिलने या अपने गांव लौटने की अनुमति नहीं है.

जिले के एक अन्य अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि उन्हें इस संबंध में अभी तक एक भी शिकायत नहीं मिली है.

अगर भूल-भटके किसी मामले में शिकायत दर्ज कराई जाती है तो उस पर विचार करने के लिए स्थानीय पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी, एक डॉक्टर, बाल विकास परियोजना अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक समिति गठित की जाती है.

अधिकारी ने बताया, ‘वे (समिति के सदस्य) इसकी जांच करते हैं कि क्या शोषण हुआ है और फिर दोनों संबंधित पक्षों को बुलाते हैं. इसके बाद अतिरिक्त उपायुक्त (एडीजी) के समक्ष सुनवाई होती है.’ यदि संबंधित लड़के/लड़की को बंधुआ मजदूरी में लिप्त पाया जाता है तो उसे मुक्त करा दिया जाता है. उसे या तो उनके परिवारों के पास भेज दिया जाता है या फिर कौशल प्रशिक्षण मुहैया कराया जाता है ताकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सकें.

लागो कापेक ने कहा, ‘कुछ बंगनी हैं जो मिथुन के लिए हमारे लड़के-लड़कियां खरीदते हैं. ये मालिक आज भी ऐसा करते हैं. बंगनी (न्यिशी) के लिए काम करने से इनकार करने पर उन्हें पीटा जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘शिकायत कौन करेगा? हर कोई डरा हुआ है. वे कहते हैं कि हम पर दाओ (पारंपरिक तलवारों) से हमला करेंगे. यही नहीं ये भी कहते हैं कि अगर हमने अपनी आवाज उठाई तो हमें मौत के घाट उतार देंगे.’


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बहुत जटिल हैं पुरोइक-न्यिशी संबंध

पीढ़ी-दर-पीढ़ी न्यिशियों के लिए काम करते हुए चयांगताजो के कुछ पुरोइकों ने इस दास प्रथा को अपनी नियति ही मान लिया है. इसने कुछ न्यिशियों को खुद को ‘छोटी-सी’ जनजाति का मालिक बनने को प्रोत्साहित किया है. दरअसल, पुरोइक खुद को न्यिशियो की उदारता पर निर्भर मानते हुए इस संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं.

सावा सर्कल के एक ग्राम प्रधान कामको टोंगी ने कहा, ‘सुलुंग आज अपने पैरों पर खड़े हैं लेकिन सैकड़ों वर्षों तक तो उनकी देखभाल हमने ही की है, उन्हें कपड़े, भोजन, सब कुछ दिया है. आज भी अगर वे बीमार पड़ते हैं तो हम उनकी मदद करते हैं. हमें इसका मुआवजा मिलना चाहिए.’

इस समस्या की जटिलता को देखते हुए केवल कार्रवाई और बचाव अभियान जैसे कदम ही उठाए जा सकते हैं. पूर्वी कामेंग जिले के उपायुक्त प्रविमल अभिषेक ने कहा, ‘यह एक गहरी सामाजिक समस्या है. कुछ मामलों में रिहा कराए गए बंधुआ मजदूर फिर अपने मालिक के पास लौट गए. ऐसे में सामान्य कानूनी दृष्टिकोण से आगे कुछ करने की जरूरत है.’

व्यवस्थागत परिवर्तन के लिए, जागरूकता, शिक्षा, आर्थिक स्थिरता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और पुरोइकों के लिए बेहतर नौकरी की संभावनाओं पर भी जोर देने की जरूरत है.

च्यांगताजो सर्कल मुख्यालय का एक दृश्य | अंगना चक्रवर्ती | दिप्रिंट

यद्यपि अरुणाचल प्रदेश के इस हिस्से में सांस्कृतिक बदलाव की शुरुआत धीमी रही है, लेकिन कुछ प्रगति को हुई है. उदाहरण के तौर पर जिला प्रशासन की तरफ से सेपा में ‘अरुणोदय’—सिर्फ पुरोइकों की एक कॉलोनी—की  स्थापना के साथ समुदाय के भीतर शिक्षित ग्रामीणों की संख्या बढ़ी है.

पूर्वी कामेंग के लाडा सर्कल के रहने वाले 35 वर्षीय कुमार जंजू ने दिप्रिंट को बताया, ‘सेपा में एक कॉलोनी स्थापित होने से हमें लाभ हुआ है. पुरोइक के लिए यहां आने में संभव हुआ. वे यहां रहते हैं, पढ़ाई करते हैं…और कुछ को नौकरी भी मिल गई है.’

बहरहाल, पुरोइकों के लिए रोजगार की संभावनाएं अभी भी सीमित ही है.

सरकारी नौकरी (एकीकृत बाल विकास सेवाओं के साथ एक पर्यवेक्षक के तौर पर) पाने वाली जनजाति की पहली महिला 56 वर्षीय पुनी पुरोइक ने कहा, ‘समुदाय के तमाम लोग अब शिक्षित हैं, लेकिन यही पर्याप्त नहीं हैं क्योंकि उनके पास स्थिर नौकरी नहीं है. पुरोइकों को नौकरी नहीं मिलेगी तो खाना कैसे खाएंगे? यह हमें फिर अंधेरे में धकेल देगा.’

शोधकर्ताओं के मुताबिक, किसी तरह के परिवर्तन की दिशा में एक बड़ी बाधा यह है कि एक खास भाषा और संस्कृति के बावजूद पुरोइकों को न्यिशियों की ‘उप-जनजाति’ के तौर पर वर्गीकृत किया गया है.

सांगचू के ग्राम पंचायत अध्यक्ष तरंग सोजा ने कहा, ‘हमारे पास कोई आरक्षण या कोटा नहीं है. सारा आरक्षण न्यिशियों को मिला हुआ है.’

उन्होंने कहा, ‘46 पुरोइक गांव और कई ग्राम पंचायतें हैं, लेकिन हमारे समुदाय से एक भी जिला परिषद सदस्य नहीं है. हमें हमेशा काम या राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए लड़ना पड़ता है.’

अब तक, पुरोइक जनजाति से केवल दो सदस्य विधानसभा पहुंचे हैं—1980 में डांबिंग सरिया और 1985 में सिजी जूली—और दोनों को अरुणाचल प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने नामित किया था. 1987 में जब अरुणाचल प्रदेश एक पूर्ण राज्य बना तो विधायकों को नामित करने की व्यवस्था खत्म कर दी गई और तबसे इस समुदाय का कोई भी सदस्य विधायक नहीं बना है.

2020 में ऑल पुरोइक वेलफेयर सोसाइटी ने मुख्य चुनाव अधिकारी को पत्र लिखकर मांग की कि एक विधानसभा सीट पुरोइक समुदाय के किसी व्यक्ति के लिए सुरक्षित की जाए.

दिप्रिंट ने ये पता लगाने के लिए फोन के जरिये राज्य चुनाव आयुक्त हेज कोजीन से संपर्क साधने की कोशिश की कि इस मांग पर क्या स्थिति है, लेकिन रिपोर्ट प्रकाशित होने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली थी. कोई जवाब आने पर रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

इस बीच, कुछ पुरोइक समुदाय के बीच बदलाव के बीज बोने के काम में लगे हैं और सामंती व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. तगाम्पु के सियांग साजी जैसे कुछ लोग, भाषा के इस्तेमाल और स्थानीय रीति-रिवाजों के अभ्यास को लेकर मुखर तरीके से सत्ता समीकरणों को चुनौती दे रहे हैं.

साजी ने कहा, ‘हम अब उन्हें मालिक नहीं कहते, भले ही वे हमें हमारी शादी के दौरान मिथुन दें. मैं उनकी शादियों के दौरान उन्हें मिथुन देकर उनकी मदद भी करूंगा.’

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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