नारायणपुर: सुको नाग अपने दो साल के बेटे को उसी कमरे की खिड़की के पास स्तनपान करवा रही है, जिसमें वह 25-30 अन्य लोगों के साथ रहती है. अंधेरा हो चला है और उनके पास जलाने के लिए रोशनी-बत्ती ही नहीं है. जब नाग की पांच साल की बेटी खाना मांगने आती है, तो वह उसे झिड़क देती है. वह मासूम सी लड़की अपने आंखों में आंसू लिए वहां से निकल जाती है.
गोंड जनजाति की एक सदस्य नाग, जो एक ईसाई बन चुकी हैं और साथ ही तीन बच्चों की देखभाल करने वाली एक अकेली मां भी हैं, के लिए हर दिन एक संघर्ष जैसा है. नाग को पिछले 18 दिसंबर को छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के बोरावंड गांव स्थित उसकी झोपड़ी से बेदखल कर दिया गया था.
वह नारायणपुर जिले के कम-से-कम 15 गांवों के 400 से अधिक चर्च जाने वालों आदिवासी लोगों में से एक हैं, जिन्हें पिछले तीन महीनों के दौरान पीटा गया और फिर उनके ही घरों से बाहर कर दिया गया. ये सभी अब जिले के एक इनडोर स्टेडियम में बनाए गए अस्थायी शिविर में रह रहे हैं.
उन्हें भगाने वाले भी उनके साथी आदिवासी ही थे जो अब भी अपने पारंपरिक ‘जीववादी आस्था’ का पालन करते हैं. उनका मानना है कि चर्च जाने वालों को या तो अपने धर्म में वापस लौट जाना चाहिए या वहां से चले जाना चाहिए.
छत्तीसगढ़ प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘ये आदिवासी मूल रूप से यही चाहते हैं कि उनके अपने लोग जिन्होंने चर्च जाना शुरू कर दिया है, वे यीशु की प्रार्थना करना बंद कर दें और अपनी मुख्य धारा में वापस लौट आएं. हालांकि, कुछ लोग अपने ही घरों से बेदखल किए जाने के दबाव में वापस लौट आए हैं, मगर दूसरों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया है.’
इस सारे विवाद की एक और वजह यह भी है कि चर्च जाने वाले अधिकांश लोग औपचारिक रूप से ईसाई धर्म में परिवर्तित नहीं हुए हैं. पारंपरिक आदिवासियों का मानना है कि चर्च जाने वालों को ऐसा कर लेना चाहिए और साथ ही उन्हें अपने अनुसूचित जनजाति (एसटी) के दर्जे और इससे मिलने वाले सरकारी लाभों पर दावा करना बंद कर देना चाहिए.
कांग्रेस की नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ सरकार के करीबी सूत्रों का दावा है कि उनकी राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य एक ऐसे राज्य में ‘राजनीतिक लाभ’ के मकसद से दो आदिवासी समूहों के बीच नफरत फैलाने के लिए मौजूदा विभाजन-रेखाओं का फायदा उठा रहे हैं, जहां इसी साल चुनाव होने वाले हैं
हालांकि, आदिवासी समुदाय के प्रतिनिधियों का कहना है कि यह तनाव कई वर्षों से चल रहा था, और हाल ही में हुई झड़पें इस क्षेत्र में ईसाई धर्म के बढ़ते प्रभाव के कारण हुईं है .
पर जो बात स्पष्ट है वह यह है कि दोनों समूहों के बीच की दरार अब इतनी गहरी हो गई है कि इसने नाग सहित कई लोगों के परिवारों को भी बांट दिया है. छह महीने पहले, उसके पति ने उसे उनके साझा घर से इस वजह से बाहर निकाल दिया था क्योंकि उसने चर्च जाना शुरू कर दिया था, और अब उसे अपने तीन बच्चों का पेट भरने के लिए अकेला छोड़ दिया गया है.
नाग ने बड़ी मेहनत से अपनी जिंदगी को फिर से खड़ा कर लिया था और खेतों में काम करके एक नई झोपड़ी बनाने हेतु पर्याप्त पैसा कमा लिया था. लेकिन 18 दिसंबर को उसके गांव में हुई दो गुटों के बीच झड़प के बाद वह सब कुछ धराशायी हो गया.
उसने बताया कि जब उसे उसकी झोंपड़ी से निकाल बाहर किया गया, तो उसे उसके कपड़े, मुर्गे या पैसे ले जाने की अनुमति भी नहीं थी दी गयी. नाग ने कहा, ‘उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि मैं अपने बच्चों के साथ कहां जाऊंगी. वे मेरे पति (जो अब उससे अलग रहते हैं) के सामने मुझे पीट रहे थे और उसने इसकी कोई परवाह नहीं की.’
फगनू रामा को भी बोरावंड गांव से बेदखल कर दिया गया था और अपना सारा सामान छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था. उन्होंने दावा किया कि उनके इस घाव पर नमक भी छिड़का गया.
फगनू ने कहा ‘बाद में, हमें ऐसे वीडियो मिले जिनमें हम इस बात को साफ़ देख सकते थे कि जिस रात हमें अपने घरों से बेदखल गया था उस रात उन्होंने किस तरह जश्न मनाया था. उन्होंने हमारे सभी मुर्गे आग में पकाए और जश्न मनाया.’
राजधानी रायपुर से करीब 300 किलोमीटर दूर बस्तर संभाग के अंतर्गत आने वाले नारायणपुर में इस साल 1-2 जनवरी को भी फिर से हिंसा भड़क उठी. इस बार हुई झड़प में, एक चर्च में तोड़फोड़ की गई, ईसा मसीह और मदर मैरी की मूर्तियों को तोड़ डाला गया और इलाके के पुलिस अधीक्षक (सुपरिन्टेन्डेन्ट ऑफ़ पुलिस – एसपी) सदानंद कुमार सहित कई पुलिसकर्मी घायल हो गए.
नारायणपुर पुलिस ने इस मामले में चार प्राथमिकियां दर्ज कीं और भाजपा के जिला संयोजक रूप साईं सलाम सहित 10 अन्य लोगों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया, जिसमें दंगा करने, एक लोक सेवक को जानबूझकर चोट पहुंचाने, गैरकानूनी रूप से लोगों को इकट्ठा करने सहित कई धाराएं शामिल हैं.
पर यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चर्च में मचाई गई तोड़फोड़ की घटना के लिए दर्ज प्राथमिकी में ‘धार्मिक भावनाओं को आहत करने’ से जुडी धाराओं को शामिल नहीं किया गया था. इसका कारण पूछे जाने पर पुलिस ने कहा कि मामले की अभी जांच चल रही है और आगे और भी धाराएं जोड़ी जाएंगी.
जब दिप्रिंट ने पिछले हफ्ते नारायणपुर जिले का दौरा किया तो इन गांवों (जिनमें से कई घने जंगलों से घिरे हुए हैं और जिनका बाहरी दुनिया के साथ बहुत कम या कोई भी जुड़ाव नहीं है) में तनाव दिख रहा था और दोनों पक्ष के लोग एक-दूसरे पर अन्याय करने का आरोप लगा रहे थे.
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इस बढ़ती हुई तकरार की जड़ें
नारायणपुर, जिसकी आबादी में जनजातीय समुदाय का हिस्सा 70 प्रतिशत से अधिक है, में अपनी पुरानी धार्मिक प्रथाओं का पालन करने वाले और ईसाई धर्म की ओर रुख करने वाले आदिवासियों के बीच का तनाव पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहा है.
इस इलाके की मुख्य जनजातियां गोंड, मारिया, मुरिया, ध्रुव, भात्रा और हल हैं. इनमे से भी गोंड जनजाति नारायणपुर की जनजातीय आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा रखती है.
इस इलाके की आदिवासी आबादी पारंपरिक रूप से विभिन्न देवताओं की पूजा करती है, जिनमें से अधिकांश की प्रकृति ‘प्रतीकात्मक’ है. ये पारंपरिक आदिवासी चर्च जाने वाले अल्पसंख्यक समुदाय पर अपने देवताओं – जिनमें भूमि, मिट्टी और देवी काली, देवी शीतला, बड़ा देव, जिमी दारी देवी आदि शामिल हैं – को त्यागने का आरोप लगाते हैं.
प्रशासन के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 1.4 लाख की आबादी वाले नारायणपुर जिले के कुल 366 गांवों में केवल 15,000-20,000 लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया है, लेकिन वे अभी औपचारिक रूप से धर्म परिवर्तित नहीं हुए हैं, और यही बात अन्य आदिवासियों को चिंतित करती है.
वे चाहते हैं कि चर्च जाने वाले आदिवासी या तो अपनी आदिवासी आस्था में वापस लौट आएं या फिर गांव छोड़ दें, औपचारिक रूप से ईसाई धर्म अपना लें और अनुसूचित जनजाति का अपना दर्जा त्याग दें. यहां प्रचलित धारणा इस बात की है कि अगर चर्च जाने वाली आबादी औपचारिक रूप से ईसाई धर्म अपना लेती है, तो वे अपना एसटी का दर्जा खो देंगे और भारत में सरकार द्वारा दिए गए आरक्षण से लाभान्वित होना बंद कर देंगे.
हालांकि, जो लोग ईसाई धर्म का पालन करते हैं, वे अपनी पुरानी आस्था में वापस नहीं आना चाहते हैं; पर साथ ही अपनी एसटी पहचान को भी नहीं छोड़ना चाहते हैं. उन्होंने अपनी आस्था क्यों बदली, यह पूछे पर सभी एक जैसी कहानी सुनाते हैं कि कैसे वे बीमार पड़ गए थे और चर्च में जाने के बाद तथा यीशु मसीह से प्रार्थना करने से उनकी बीमारियां ठीक हो गईं.
उधर, पारंपरिक आदिवासियों पर गुस्सा इस कदर हावी है कि उन्होंने अब चर्च जाने वाले समुदाय को अपने गांव में अपने मृतकों को दफनाने से मना कर दिया है, और उनका कहना है कि यह ‘उनकी मिट्टी को अशुद्ध कर देगा, देवताओं को नाराज कर देगा और बीमारियों के प्रसार को बढ़ावा देगा.’
ऊपर उद्धृत प्रशासनिक अधिकारी ने कहा, ‘आदिवासी अपने ही लोगों द्वारा क्रिसमस मनाना या उनका रविवार की प्रार्थना में जाना पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उनके रीति-रिवाजों और परंपराओं के खिलाफ है.’
उन्होंने कहा. ‘इसके अलावा, उन्हें लगता है कि वे (अल्पसंख्यक समूह) उनकी भूमि पर चर्चों का निर्माण कर रहे हैं और अपने रीति-रिवाजों का पालन किए बिना अपने मृतकों को दफन कर रहे हैं. उन्होंने अपने साथी ग्रामीणों के विवाह, जन्म और मृत्यु के समारोहों में भाग लेना बंद कर दिया है और वे इसे स्वीकार नहीं करते हैं.’
साल 2020 के बाद से, नारायणपुर के साथ-साथ कोंडागांव जिले के कई गांवों से भी दोनों गुटों के बीच हुई छिटपुट झड़पों वाली ऐसे घटनाओं की सूचना मिली है, जिसमें दोनों पक्षों के लोग हताहत हुए हैं.
पुलिस के मुताबिक, सितंबर 2020 में कोंडागांव में पांच गांवों में झड़प हुई थी. उसके बाद पिछले साल 18 दिसंबर को इस जिले में इसी मुद्दे को लेकर 32 झड़पें हुईं. नारायणपुर जिले में, पिछले चार महीनों के दौरान इन दो समूहों के बीच झड़पों के आधार पर 20 से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं.
प्रशासनिक अधिकारी ने कहा, ‘इन झड़पों में, दोनों पक्षों – चर्च जाने वाले समुदाय और पारंपरिक आदिवासी – के लोग घायल हुए हैं.’
पहले एक बैठक, और फिर भड़की हिंसा
लेटराइट मिट्टी से पटी पड़ी एक गहरी लाल कच्ची (टूटी हुई) सड़क, जिसके दोनों ओर एक विशाल जंगल और कृषि भूमि के टुकड़े हैं, नारायणपुर के कम आबादी वाले उस गोर्रा गांव की ओर जाती है, जिसमें केवल 22 घर हैं.
यही वह जगह है जहां से चर्च पर हुए हमले से एक दिन पहले, 1 जनवरी को, पारंपरिक आदिवासियों और ईसाई प्रथाओं का पालन करने वालों के बीच झड़प की सूचना मिली थी.
इस दिन, पारंपरिक आदिवासियों ने यहां एक बैठक बुलाई थी जिसमें गांव के सरपंच और आदिवासी समुदाय के वरिष्ठ नेता, जिसमें उनकी गीता (पुजारी) और पटेल (सरदार) शामिल थे, उपस्थित थे.
इस बैठक का मकसद चर्च जाने वाले स्थानीय परिवारों से जनजातीय आस्था में वापस लौटने का आग्रह करना था. मगर, जब चर्च जाने वालों ने इसे मनाने से इनकार कर दिया, तो मामला हिंसक भिड़ंत में बदल गया. पुलिस के मुताबिक दोनों पक्षों के लोगों के साथ मारपीट की गई थी .
जगुराम दुग्गा, जिन्होंने साल 2010 में चर्च जाना शुरू किया था, ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा कि लोगों का एक समूह उनके घर में घुस आया और उन्हें पीटना शुरू कर दिया. उन्होंने कहा, उन लोगों ने एक बैठक बुलाई थी और हमें भी वहां बुलाया था. उन्होंने कहा कि हमें या तो चर्च जाना बंद कर देना चाहिए या फिर औपचारिक रूप से ईसाई धर्म अपना लेना चाहिए और अपना धर्म ‘ईसाई’ के रूप में लिखना चाहिए. जब हमने इसका कारण पूछा तो वे आक्रामक हो गए. हमने उन्हें यह कहकर समझाने की कोशिश की कि हम आदिवासी हैं और हम वही बने रहना चाहते हैं.’
उन्होंने सवाल किया, ‘आखिर लड़ाई किस बात की है? सिर्फ इसलिए कि हम चर्च जाते हैं और वे मंदिर? तो क्या? हम जिस भगवान में विश्वास करते हैं उस का अनुसरण करते हुए भी आदिवासी क्यों नहीं बने रह सकते हैं?’
एक अन्य ग्रामीण, मुंगली बाई, जिसकी उम्र 30 के आसपास लग रही थी, ने कहा कि उसे और उसके बेटे को भी पीटा गया था. उन्होंने कहा कि हिंसा, एक नई घटना थी.
वे कहती हैं, ‘पहले भी समस्याएं थीं लेकिन बात कभी भी हिंसा तक नहीं बढ़ी. उन्होंने हमारे मामलों में कभी दखल नहीं दिया और न ही हमने उनके मामलों में कभी कोई दखलअंदाजी की. जब हमने चर्च में प्रार्थना करना शुरू किया तो उन्होंने हमसे बात करना बंद कर दिया, लेकिन किसी ने हमें इस तरह नहीं पीटा. 1 जनवरी को तो उन्होंने लोगों को घसीट-घसीट कर घरों से बाहर निकाला और फिर पीटना शुरू कर दिया. उन्होंने मेरे छोटे बेटे को घसीटा और तब तक पीटा जब तक कि वह बेहोश नहीं हो गया.’
दूसरे पक्ष का भी यही दावा है कि वे हिंसा के ‘शिकार’ हुए थे. साठ वर्षीय अमलू (वह अपने अंतिम नाम का उपयोग नहीं करते हैं) को इस टकराव में उनकी पसलियों में चोट लग गई. उन्होंने आरोप लगाया कि चर्च जाने वालों ने ही उन पर हमला किया था.
उन्होंने कहा, ‘हमने उनसे (जो लोग चर्च जाते हैं) पूछा, आप क्यों हमसे दूर जा रहे हैं? लेकिन वे सुनना भी नहीं चाहते. भगवान जाने उनके अंदर क्या समा गया है! हमारे पटेल, जो गांव के वरिष्ठ व्यक्ति हैं, भी बैठक में शामिल हुए थे. कई बैठकें हो चुकी हैं, और हमने उन्हें (आदिवासी आस्था में) वापस लौटने के लिए मनाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने हमारी बात नहीं मानी और इसके बजाय आक्रामक हो गए तथा हमें पीटना शुरू कर दिया.‘
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‘वे लाठियां, डंडे, पत्थर लेकर आए थे’
1 जनवरी को हुई झड़प के एक दिन बाद, आदिवासी समूह ने एक और बैठक आयोजित की, जिसके परिणामस्वरूप फिर से हिंसा हुई. पुलिस सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि बंगलापारा स्थित सेक्रेड हार्ट चर्च और उसी परिसर में बने एक स्कूल पर भी हमला किया गया.
50 साल पहले नारायणपुर में शुरू हुए सेक्रेड हार्ट चर्च की आल्टर (वेदिका) पर स्थित ईसा मसीह की मूर्ति को इस हद तक तोड़ दिया गया था कि केवल क्रॉस पर ठुके उनकी हाथ ही शेष रह गए थे.
ईसा मसीह के जन्म को दर्शाने वाला पालना (क्रिब) भी तोड़ दिया गया और साथ ही मदर मैरी की मूर्ति को भी तोड़ दिया गया. मुख्य प्रार्थना कक्ष में दीवार के दोनों ओर लगा रंगीन कांच क्षतिग्रस्त हो गया था और अंदर का फर्नीचर चकनाचूर कर दिया गया था.
फादर जोमन, जो इस घटना के समय चर्च परिसर में स्थित अपने कार्यालय के अंदर ही थे, ने दिप्रिंट को बताया.’वे सभी लाठी, डंडे और पत्थरों के साथ हम पर टूट पड़े. मैंने तुरंत अपने सभी शिक्षकों को (स्कुल के) बच्चों को बचाने के लिए सतर्क कर दिया.’
उन्होंने कहा, ‘यह चर्च पिछले 50 सालों से यहां है और पहले कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ.’
हालांकि, यह चर्च एक छोटे से प्रार्थना कक्ष के रूप में शुरू हुआ था, और पिछले कुछ वर्षों के दौरान ही इस एक बड़े से चैपल, रंगीन कांच और यीशु मसीह तथा मदर मैरी की तस्वीरों के साथ पूरी तरह से निर्मित किया गया था.
नारायणपुर के एसपी सदानंद कुमार भी इस गांव में हुई मारपीट के दौरान घायल हो गए थे .
एसपी कुमार ने कहा, ‘हमें फोन आया था कि सैकड़ों की संख्या में लोग प्रार्थना कक्ष के पीछे स्थित एक स्कूल में घुस गए हैं और वहां की संपत्ति को नुकसान पहुंचाया है. वे शिक्षकों और छात्रों की ओर बढे जा रहे थे, इसलिए हमने उनके अभिभावकों को बुलाया. मैं मौके पर गया लेकिन मुझे भी चोट पहुंचाई गई. भीड़ के पास लाठियां, डंडे और रोडस थे. हमारी कोशिश सिर्फ बच्चों को बचाने की थी.‘
चर्च पर हुए हमले की घटना की अपनी जांच के दौरान, पुलिस ने पाया कि दूसरी बैठक (2 जनवरी) के आयोजक के रूप में अन्य लोगों के साथ ही भाजपा जिला संयोजक साईं सलाम (जो अब गिरफ्तार हो चुके), और बेनूर के पूर्व भाजपा संयोजक नारायण मरकाम (जो अभी भी फरार हैं) भी शामिल थे.
हालांकि, पुलिस ने इस बात को स्पष्ट नहीं किया है कि चर्च पर किया गया हमला या नारायणपुर और कोंडागांव के अन्य इलाकों में हुई हिंसा की घटनाएं पूर्व नियोजित और संगठित थीं या नहीं.
‘आदिवासी पहचान को हो रहा नुकसान’
छत्तीसगढ़ के लिए धर्मांतरण के मुद्दे पर टकराव कोई नई बात नहीं है. यह मुख्यतः इस वजह से है क्योंकि आदिवासियों को यह डर रहता है कि अगर और लोग दूसरे धर्मों की ओर जाने लगे तो वे अपनी पहचान खो देंगे.
चर्च जाने वालों के साथ उनकी शिकायत के बारे में पूछे जाने पर, पारंपरिक आदिवासी आमतौर पर यही दावा करते हैं कि उनका मुख्य उद्देश्य अपनी ‘संस्कृति’ (परंपरा और रीति-रिवाजों) को बचाना है और यह सुनिश्चित करना है कि उनकी जनजाति विलुप्त न हो जाए.
गोर्रा गांव की सरपंच सुनीता मंडावी ने कहा, ‘हम देवी-देवताओं को मानते हैं. हमारे देवता अलग हैं. हम अपनी भूमि, मिट्टी और दुर्गा माता की पूजा करते हैं. हर गांव के अपने देवी-देवता होते हैं. वे यह सब छोड़कर चर्च जाने लगे हैं. उनकी प्रथाएं अब अलग हैं.’
वे कहती है, ‘उनकी महिलाएं उस श्रृंगार प्रथा में नहीं मानती हैं, जिसमें उनके लिए चूड़ियां पहनना पह और सिंदूर लगाना अनिवार्य होता है. अगर यह पलायन नहीं रुका तो सदियों से हमारे पुरखों द्वारा पोषित किया गया आदिवासी समाज खत्म हो जाएगा, हमारी संस्कृति खत्म हो जाएगी.‘
मंडावी ने कहा कि वह आदिवासी समाज के अन्य प्रतिनिधियों के साथ चर्च जाने वाले लोगों को उनकी पुरानी आस्था में वापस लौटने के लिए मनाने की कोशिश कर रही हैं.
सरपंच मंडावी ने कहा, ‘हमने उन्हें प्यार से समझाने की कोशिश की, तो वे नाराज हो गए, फिर हम भी आक्रमक हो गए, लेकिन वे वापस लौटना नहीं चाहते.’
आदिवासियों की एक और शिकायत यह है कि चर्च जाने वाले आदिवासी गांव में होने वाले किसी भी अनुष्ठान में कोई योगदान नहीं देते हैं और उन्होंने खुद को (समाज से) पूरी तरह से काट लिया है.
ग्रामीणों ने दावा किया कि वे न तो ‘फूल पानी चढ़ाई’ – देवताओं को फूलों और जल के साथ की गई एक भेंट – के लिए आते हैं, न ही किसी समारोह के लिए नारियल देते हैं और न ही किसी उत्सव या शोक संस्कार के लिए पैसे या सामग्री के साथ योगदान करते हैं.
गोर्रा गांव के अमलू ने कहा, ‘वे हमारे देवताओं के किसी भी अनुष्ठान के लिए कभी नहीं आते हैं. वे सिर्फ हमारी परंपराओं से दूर होना चाहते हैं. क्या उन्हें लगता है कि वे खुद भगवान बन गए हैं?’
उसने पूछा, ‘अगर वे इतने ही नकचढ़े हैं और वे हम में से एक नहीं हैं, तो उन्हें गांव छोड़ देना चाहिए. वे यहां क्यों रुके हैं?’
साइमा, जो गोर्रा गांव में बने एक मंदिर (जहां देवी जिमी दारी की एक मूर्ति रखी गई है) की देखभाल करने वाली हैं, और एक चर्च जाने वाले परिवार के पड़ोसी भी हैं, का भी कुछ ऐसा ही मानना था. हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें ‘पुराने दिनों’ को बहुत याद आती है.
वे कहती हैं, ‘पहले तो वे मंदिरों में आते थे, हमारे देवताओं की पूजा करते थे, अब क्या हो गया? हम इतने छोटे से समुदाय हैं. अगर वे इसी तरह दूर जाने लगे तो हम खत्म ही हो जाएंगे. हम सब एक हैं और हमें एक साथ ही रहना चाहिए. लेकिन वे इसे समझ ही नहीं पा रहे हैं.’
उन्होंने कहा, ‘अब हम चर्च जाने वालों के साथ बात भी नहीं करते. मैं उस वक्त को बहुत याद करती हूं जब कोई समस्या नहीं होती थी और हम सब साथ में (मंदिर) जाया करते थे. गांव के बजुर्ग और हमारे पुजारी भी बहुत नाराज हैं. हमारी लड़ाई इन लोगों से नहीं, बल्कि उनकी आस्था से है.‘
ST दर्जे को लेकर हो रही खींचतान गुमराह करने वाली है
पारंपरिक आदिवासियों का मानना है कि अगर चर्च जाने वाले लोग वापस अपने समाज में आने से इंकार कर देते हैं, तो उन्हें औपचारिक रूप से ईसाई धर्म अपना लेना चाहिए और अपना एसटी दर्जा छोड़ देना चाहिए. हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि धर्म और एसटी का दर्जा परस्पर रूप से अलग-अलग हैं.
मंडावी ने कहा, ‘यदि वे हमारे किसी भी रीति-रिवाज का पालन नहीं करते हैं, तो उन्हें आदिवासी कहा ही नहीं जाना चाहिए. उन्हें वह ‘उपाधि’ त्याग देनी चाहिए और औपचारिक रूप से ईसाई बन जाना चाहिए. वे हमारी मान्यताओं का पालन नहीं करना चाहते हैं, और साथ ही वे एसटी होने के साथ मिलने वाले सभी लाभों के लिए आदिवासी बने रहना भी चाहते हैं – यह इस तरह से काम नहीं करता है.’
हालांकि, ऐसा कोई कानून नहीं है जो कहता हो कि आदिवासियों को किसी अलग धर्म में परिवर्तित होने के लिए अपना एसटी का दर्जा छोड़ना होगा, मगर छत्तीसगढ़ में भाजपा और उसके ‘वैचारिक अभिभावक’ आरएसएस के नेता इस डिलिस्टिंग (सूची से हटाए जाने) के विचार का प्रचार कर रहे हैं. इसका अर्थ है धर्मांतरित होने वाले जनजातीय लोगों को उनके एसटी दर्जे, जो उन्हें नौकरियों, शिक्षा और विधायी निकायों में आरक्षण का अधिकार देता है, से वंचित किया जाना.
विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और आरएसएस सहित कई हिंदूवादी संगठनों की लंबे समय से ‘डिलिस्टिंग’ वाली मांग रही है, और संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार, संसद कानून बनाने के जरिये एसटी की सूची में समावेशन (किसी को शामिल करने) और बहिष्करण (बाहर करने) का काम कर सकती है.
पिछले महीने ही विहिप ने अपने केंद्रीय न्यासी बोर्ड और गवर्निंग काउंसिल (कार्यकारिणी परिषद्) की एक बैठक में एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें यह मांग की गई थी कि केंद्र सरकार धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजातियों की सूची से बाहर करने के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन करे. हाल ही में संपन्न हुए संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान विहिप नेताओं ने विभिन्न दलों के 300 से अधिक सांसदों (लोकसभा और राज्यसभा) के साथ भी इस मुद्दे पर चर्चा की.
हालांकि, इस मामले में अभी फैसला लिया जाना बाकी है.
इस सब के बीच, छत्तीसगढ़ प्रशासन के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से, आदिवासी अपने एसटी दर्जे को बरकरार रख सकते हैं, भले ही वे किसी भी धर्म का पालन करते हों. उन्होंने आगे कहा कि आदिवासी आबादी को ‘यह मानने के लिए गुमराह किया जा रहा है कि अगर चर्च जाने वाली आदिवासी आबादी आधिकारिक रूप से धर्मांतरित हो जाती है, तो वे सभी अपना एसटी वाला दर्जा खो देंगे.’
उन्होंने कहा, ‘यदि अनुसूचित जाति (एससी) का कोई व्यक्ति ईसाई धर्म या इस्लाम स्वीकार कर लेता है तो वह एससी नहीं रह जाता है और इस बारे में अदालत के कई फैसले भी मौजूद हैं. लेकिन अनुसूचित जनजाति के लोग (दूसरा धर्म अपनाने के बावजूद) अपना दर्जा बरकरार रख सकते हैं.’
वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने भी यही बात कही. उन्होंने कहा, ‘यदि आप अनुसूचित जनजाति से आते हैं, तो आप नास्तिक हो सकते हैं, आप आदिवासी आस्था या किसी भी अन्य धर्म का पालन कर सकते हैं, लेकिन आप एसटी का दर्जा नहीं गवां सकते हैं. मुझे लगता है कि यहां जो हो रहा है वह एक विचार का दूसरे में समावेश किया जाना है. इस्लाम या ईसाई धर्म में परिवर्तित होने पर अपना दर्जा खोने का यह नियम केवल अनुसूचित जातियों पर लागू होता है, क्योंकि वे केवल हिंदू ही हो सकते हैं. आदिवासियों के मामले में, वे किसी भी धर्म से संबंधित नहीं होते हैं, इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस धर्म को अपनाते हैं.’
‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’, एक स्वतंत्र समूह जो आदिवासी आबादी के साथ काम करता है, की शालिनी गेरा, ने दिप्रिंट को बताया कि ‘कोई भी अपने जन्म के कारण आदिवासी होता है न कि किसी के धर्म के कारण.’
वे कहती हैं, ‘ऐसा कहीं कोई कानून नहीं है जो यह कहे कि आदिवासियों को ईसाई धर्म अपना लेने पर अपना एसटी दर्ज छोड़ना होगा. उस तर्क के अनुसार तो रामायण की कथा सुनाने वाले और गणेश की मूर्ति रखने वाले आदिवासियों को भी आदिवासी का दर्जा छोड़ना होगा, क्योंकि आदिवासी धर्म हिंदू धर्म से भी अलग है.”
भाजपा और आरएसएस की भूमिका
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार, आदिवासियों के बीच चर्च जाने वालों के खिलाफ दुश्मनी को इस इलाके में काम करने वाले भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने भड़काया है.
गेरा ने बताया कि हालांकि आदिवासी समुदाय के भीतर पहले भी विभाजन था और उनके बीच झड़पों की छिटपुट घटनाएं भी हुईं थीं, लेकिन यह इतना संगठित कभी नहीं था.
उन्होंने आरोप लगाया कि हालिया संघर्ष आरएसएस की एक शाखा ‘जनजाति सुरक्षा मंच (जेएसएम)’ द्वारा ‘संगठित, समर्थित और प्रायोजित’ था.
उनके अनुसार, ‘भाजपा -आरएसएस समर्थित जेएसएम – जो ‘धर्मांतरित आदिवासियों’ की डिलिस्टिंग (सूची से बाहर करने) की मांग कर रहा है – के गठन के बाद ही पिछले कुछ महीनों के दौरान हिंसा भड़क उठी थी.
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन द्वारा तैयार एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ‘जेएसएम धर्म परिवर्तित आदिवासियों के खिलाफ हिंसा का खुले तौर पर आह्वान करता है’ और ‘आदिवासियों के मुस्लिम या ईसाई धर्म में धर्मांतरण का विरोध करने के स्पष्ट उद्देश्य के साथ बनाया गया है.’.
रिपोर्ट में यह भी आरोप लगाया गया है कि हिंसा के हालिया मामलों को 26 अप्रैल, 2022 को नारायणपुर में ‘आरएसएस और भाजपा समर्थित जनजाति सुरक्षा मंच’ की महा-रैली से जोड़कर देखा जा सकता है, इस रैली का नेतृत्व भाजपा के पदाधिकारियों ने किया था और इसने खुले तौर पर उन आदिवासियों के खिलाफ हिंसा की वकालत की थी.जिन्होंने अन्य धर्मों को अपना लिया है.
इस बारे में दिप्रिंट के साथ बात करते हुए, अंतागढ़ के पूर्व भाजपा विधायक और जेएसएम के राज्य संयोजक भोजराज नाग ने धर्मांतरित लोगों के खिलाफ हिंसा की वकालत करने से इंकार किया. हालांकि, उन्होंने इस बात से जरूर सहमति जताई कि उनका मंच ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाने वाले आदिवासियों की डिलिस्टिंग का आह्वान करता है.
उन्होंने कहा, ‘दूसरे धर्म का पालन करने वाले आदिवासियों को जनजाति की सूची में क्यों शामिल किया जाना चाहिए? हमारा संदेश है कि ऐसे लोगों को कोई आरक्षण नहीं मिलना चाहिए. यदि आप अपनी आस्था से ईसाई हैं, तो आप किसी आदिवासी के नाम पर दिया जाने वाला आरक्षण क्यों लेना चाहते हैं? हमारा आह्वान है कि ऐसे सभी लोगों को सूची से हटा दिया जाए.’
जेएसएम के प्रवक्ता शरद चौहान ने इस बात से भी इंकार किया कि उनका संगठन आरएसएस से संबद्ध है.
उन्होंने कहा, ‘हम एक स्वतंत्र संस्था हैं और हमारी राय यह है कि धर्म परिवर्तन करने वालों को एसटी का दर्जा नहीं मिलना चाहिए. असल में होता क्या है कि जो ईसाई औपचारिक रूप से धर्म परिवर्तित नहीं हुए हैं और फिर भी आदिवासी पहचान बनाये रखते हैं, वे अपने एसटी दर्जे के आधार पर शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेते हैं, जिसे अवैध बना दिया जाना चाहिए.’
चौहान ने कहा कि उनका संगठन इस विचार के प्रचार-प्रसार के लिए कई सारे कार्यक्रम और बैठकें करता रहा है.
उन्होंने कहा, ‘हम ग्रामीणों के बीच इस विचार का प्रचार कर रहे हैं और यह हमारी वजह से ही हुआ है कि इस मुद्दे को एक बार फिर महत्व मिला है. हालांकि, हम कभी भी हिंसा का आह्वान नहीं करते, पर यह सही और गलत की बात है.’
‘अपनी पहचान बनाए रखते हुए अपनी आस्था का पालन क्यों नहीं कर सकते?’
दिसंबर के अंतिम सप्ताह में, कांकेर जिले के देवगांव के चर्च जाने वाले निवासियों को इस बारे में दो सप्ताह का नोटिस दिया गया था कि या तो वे यीशु की प्रार्थना करना बंद कर दें या अपने घरों को खाली कर दें. इसी तरह कुल्हड़ और बोरावंड गांव के लोगों को भी यही हिदायत दी गई थी.
जब चर्च जाने वाले आदिवासियों ने इस निर्देश का पालन करने से इनकार कर दिया, तो उन्हें कथित तौर पर उनके घरों से बाहर निकाल दिया गया.
देवगांव निवासी बोदाई कावड़े पूछते हैं, ’हमने साल 2015 में चर्च जाना शुरू किया था. उन्होंने हमें नशा (ड्रग्स) और शराब छोड़ने के लिए कहा. उन्होंने हमें बताया कि हमें अपने जीवन को एक साथ लाने और अपने परिवारों की भलाई के लिए कड़ी मेहनत करने की ज़रूरत है, जो हमने करना शुरू किया. हमारे सभी दुख-दर्द,सभी रोगों सहित, केवल प्रार्थनाओं से ही दूर हो गए. क्या यह इतनी बुरी बात है?’
अपने घरों से बेदखल किये जाने को याद करते हुए नारायणपुर के बोरावंड के फगनू रामा उसेंडी कहते हैं, ‘हमें अपने बर्तन, कपड़े, ट्रैक्टर और बाइक तक नहीं ले जाने दिया गया. पंचायत के सदस्य हमारी मुर्गियां और बकरियां भी ले गए.’
छत्तीसगढ़ क्रिश्चियन फोरम के अध्यक्ष अरुण पन्नालाल ने आरोप लगाया कि ईसाई विरोधी हिंसा में राज्य भर में बढ़ोतरी हुई है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘बस्तर की ईसाई आबादी पिछले दो वर्षों से हमले का शिकार हो रही है और पुलिस अधिकारियों की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई है. यहां तक कि राज्य सरकार ने भी इस मुद्दे के समाधान के लिए कुछ खास नहीं किया है. गांवों में असामाजिक तत्वों द्वारा बैठकें आयोजित की जाती हैं, जो लाठी और डंडों से लैस होते हैं, और फिर चर्च जाने वाले लोगों को अपने आस बुलाते हैं और उन्हें अपनी आस्था त्यागने की धमकी देते हैं.’
उन्होंने सवाल किया, ‘200 से अधिक घरों को लूट लिया गया है, बहुत से लोग विस्थापित हुए हैं, उन्हें पीटा गया है और वे घायल हुए हैं, लेकिन फिर भी अपराधियों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं की गई है. यह कैसे उचित है?’
हालांकि, नारायणपुर प्रशासन ने इन विस्थापितों के ठहरने के लिए एक इनडोर स्टेडियम में व्यवस्था की है, लेकिन उनमें इस बात को लेकर नाराजगी व्यापत है कि पुलिस ने समय रहते कार्रवाई क्यों नहीं की या उन्हें खतरा होने की बात जानते हुए भी सुरक्षा मुहैया क्यों नहीं कराई गई.
कावड़े ने कहा, ‘हमें (घरों से0 बाहर कर दिया गया है लेकिन हमने पुलिस को पहले ही सूचित कर दिया था कि हमें सुरक्षा की आवश्यकता है और हम डरे हुए हैं. ग्राम पंचायतों की ये बैठकें नियमित हो गई थीं और वे हमें चर्च छोड़ने के लिए मजबूर कर रहे थे.’
स्थानीय प्रशासन और पुलिस अब इन गांवों में नियमित रूप से गश्त लगा रही है और विस्थापितों को फिर से अपने घरों में वापस भेजने के लिए पंचायतों की बैठक भी बुलाई है.
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘हम यह सुनिश्चित करने के लिए ग्राम प्रधानों से बात करने का प्रयास कर रहे हैं कि इन लोगों को फिर वापस भेजा जाए और वे बिना किसी डर के अपने घरों में रहें.’
बेघर हैं, लेकिन आशा अभी बाकी है
‘ओ-एन-ई-वन, टी-डब्ल्यू-ओ-टू, टी-एच-आर-आई-आई-थ्री!’
इनडोर स्टेडियम में आठ साल की दीपिका सलाम नंबर्स (संख्याओं) की स्पेलिंग सीख रही हैं. पास में खड़ी उसकी सहेली उसे सुधारते हुए कहती है: ‘यह टी-एच-आर-ई-ई है – थ्री होता है.’
दोनों मुस्कुरा देती हैं और फिर चार्ट पर लिखे बाकी नंबरों की स्पेलिंग सीखें जारी रखतीं हैं.
जिस कमरे में यह चार्ट टंगा हुआ है वहां अंधेरा है क्योंकि बिजली है ही नहीं, लेकिन यह दीपिका, जो गोंड जनजाति से है और शिक्षिका बनने का सपना देखती है, के लिए कोई बड़ी रूकावट नहीं है.
पढ़ने के लिए कोई किताबें नहीं होने की वजह से बच्चे अब स्टेडियम के कई कमरों में लटके चार्ट से काम चला रहे हैं.
दीपिका ने कहा, ‘मैं अपनी राह नहीं खोना चाहती. मुझे नहीं पता कि हम घर कब लौटेंगे. अब तक मैंने जो कुछ भी सीखा है अगर मैं उसे भी भूल जाऊं तो क्या होगा? तब मैं कभी भी शिक्षिका कैसे बन पाऊंगीं? इसलिए मैं इन सभी चार्ट्स को पढ़ने और इसे दुहराने करने के लिए खुद को रोजाना आधा घंटा का समय देती हूं.’
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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