नयी दिल्ली, 10 जून (भाषा) पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने मंगलवार को ‘नोटा’ (उपरोक्त में से कोई नहीं) विकल्प को और अधिक प्रभावी बनाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि अब ऐसे सुधारों पर विचार करने का समय आ गया है, जो नोटा को अधिक प्रभावी बनाते हुए चुनाव प्रक्रिया को निष्क्रिय होने से बचा सकें।
लवासा ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की ओर से आयोजित एक वेबिनार में यह टिप्पणी की, जिसका शीर्षक ‘क्या नोटा को और अधिक प्रभावी बनाने का समय आ गया है?’ था।
उन्होंने कहा कि नोटा को लागू करने के सिलसिले में उच्चतम न्यायालय का 2013 का फैसला लोकतांत्रिक विकल्प को मजबूत करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था, लेकिन इससे उम्मीदवारों की गुणवत्ता में कोई सार्थक बदलाव नहीं आया है।
लवासा ने कहा, “इसका उद्देश्य प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता में सुधार करना था।”
उन्होंने याद दिलाया कि कैसे शीर्ष अदालत ने उम्मीद जताई थी कि नोटा से राजनीतिक दलों पर स्वच्छ उम्मीदवार उतारने का दबाव बनेगा।
लवासा ने कहा, “लेकिन भारत के अपने आंकड़े बताते हैं कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या वास्तव में बढ़ी है।”
उन्होंने कहा कि नोटा मतदाताओं को अयोग्य उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार देता है, लेकिन इसके वर्तमान स्वरूप से कोई परिणाम नहीं मिला है।
पूर्व चुनाव आयुक्त ने कहा, “अगर नोटा को सबसे अधिक वोट मिलते हैं, तो भी इससे चुनाव नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ता। क्या हमें अब इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि अगर नोटा को सबसे अधिक वोट मिलते हैं, तो फिर से चुनाव कराए जाने चाहिए?”
उन्होंने सार्वजनिक बहस के लिए तीन प्रमुख सुधारों का सुझाव दिया, पहला-किसी उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित करने के लिए न्यूनतम वोट सीमा निर्धारित करना, दूसरा-अगर नोटा को किसी भी उम्मीदवार से अधिक वोट मिलते हैं, तो फिर से चुनाव कराना और तीसरा-बेहतर उम्मीदवार चयन सुनिश्चित करने के लिए पार्टी के भीतर अधिक लोकतंत्र पर जोर देना।
लवासा ने कहा, “हर किसी को अस्वीकार करने का अधिकार भी वोट देने के अधिकार का हिस्सा है। ऐसे में मुझे यह इस लिहाज से बहुत ही स्वागत योग्य कदम लगता है।”
उन्होंने कहा, “मैं यह सोचने के लिए मजबूर हूं कि जब भारत में अधिकतम मतदान प्रतिशत 67 फीसदी या उसके आसपास दर्ज किया गया है, तो देश में अब भी लगभग 33 प्रतिशत लोग ऐसे हैं, जो मतदान नहीं करते हैं। तो क्या हम यह कह सकते हैं कि जो लोग मतदान नहीं करते हैं, वे भी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर रहे हैं?”
लवासा ने अनिवार्य मतदान का भी विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र में एक “व्यवहार्य विकल्प नहीं है।”
भाषा पारुल प्रशांत
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